प्रसून लतांत

प्रसून लतांत
काकासाहेब कालेलकर सम्मान घोषित
Posted on 07 Dec, 2015 11:51 AM

मीनाक्षी अरोड़ा को वर्ष 2015 का काकासाहेब कालेलकर पत्रकारिता सम्मान

नई दिल्ली, 6 दिसम्बर 2015, जनसत्ता। गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा और विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान ने वर्ष 2015 के ‘काका साहेब कालेलकर सम्मान’ की घोषणा कर दी गई है। इण्डिया वाटर पोर्टल की संयोजिका मीनाक्षी अरोड़ा (दिल्ली) को पत्रकारिता के लिये यह सम्मान देने का फैसला किया गया है। यह सम्मान खासतौर से प्रोत्साहन और उपलब्धियों के लिये हर साल युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य के लिये दिया जाता है।

गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा की मंत्री कुसुम शाह ने बताया कि समाज सेवा के लिये यह पुरस्कार महिला तस्करी को रोकने में और सड़कों पर लोकतंत्र लाने के आन्दोलन में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाली झारखण्ड की सुनिता मिंज और पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से ग्रामीण क्षेत्रों में समाज सेवा करने वाले बिहार के मोतिहारी के दिग्विजय को दिया जाएगा। साहित्य के लिये काकासाहेब कालेलकर सम्मान जेएनयू दिल्ली के लालबहादुर मीरापुर को दिया जाएगा।

शाह के मुताबिक इन सभी को यह सम्मान 23 जनवरी, 2016 को सन्निधि परिसर में आयोजित होने वाले एक समारोह में दिया जाएगा। सन्निधि का पता है; गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, सन्निधि, 1, जवाहर लाल नेहरु मार्ग, राजघाट के सामने, नई दिल्ली-110002।
गंगा नदी में ओसीएमएस लगाने में हो रही देरी
Posted on 23 Jun, 2015 12:48 PM
गंगा नदी पर प्रदूषणकारी उद्योगों की ओर से प्रवाहित कचरे पर उसी समय निगरानी करने वाली प्रणाली (ओसीएमएस) अभी तक नहीं लगाई गई है। इस प्रणाली को लागू करने में क्यों देरी की जा रही है, यह किसी को समझ में नहीं आ रही है। बहरहाल, केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्रालय ने ओसीएमएस लगाने की समय-सीमा और नहीं बढ़ाने का अनुरोध किया है।
विदिशा के जल सेवकों को विष्णु प्रभाकर समाज सेवा सम्मान
Posted on 18 Jun, 2015 04:47 PM
तारिख : 20 जून 2015
समय : 05 - 08 बजे तक
स्थान : गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभागार, निकट अम्बेडकर स्टेडियम जवाहर लाल नेहरू रोड, नई दिल्ली


बाजार में पानी बेचने के बढ़ते निर्मम व्यापार के दौर में प्यासे को मुफ्त में पानी पिलाने की परम्परा और सामाजिक उपक्रम अब एकदम खत्म सा होता जा रहा है, लेकिन मध्य प्रदेश के विदिशा रेलवे स्टेशन पर वहाँ के स्थानीय निवासी बाजार के बहाव में नहीं बहकर लोगों की मदद में जुटे हुए हैं। यहाँ सार्वजनिक भोजनालय समिति के प्रयास से पिछले बत्तीस सालों में सैकड़ों जल सेवक तैयार हुए हैं, जो खासकर गर्मी के दिनों में रेलवे स्टेशन पर यात्रियों के लिये मुफ्त जल सेवा करते हैं वे ज्यादातर रेल डिब्बों की खिड़कियों के पास जाकर यात्रियों को पीने का पानी मुहैया कराते हैं। विदिशा के इन जल सेवकों के कार्य को अब अनूठा बताकर उनकी सराहना करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।

इन जल सेवकों को तैयार करने वाली सार्वजनिक भोजनालय समिति (विदिशा) को गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान और अनिल संदेश (राष्ट्रीय मासिक पत्रिका) की ओर से विष्णु प्रभाकर के 104वें जन्म दिवस पर विष्णु प्रभाकर समाज सेवा सम्मान से सम्मानित करने का फैसला किया है।
सत्ता के कुचक्र से जूझते जन आंदोलन
Posted on 29 Apr, 2014 10:51 AM
देश के कई हिस्सों में जल, जंगल और जमीन के अधिग्रहण के विरोध में आंदोलनकारी सक्रिय हैं। लेकिन सत्ता में बैठे लोग उन आवाजों की निरंतर अनसुनी कर रहे हैं। ऐसे में करोड़ों लोगों के विस्थापित और बेरोजगार होने का खतरा बढ़ गया है। जायजा ले रहे हैं प्रसून लतांत..
विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।

ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।
आंदोलन का पुनर्गठन जरूरी
Posted on 13 Dec, 2013 01:01 PM
बिहार भूदान यज्ञ समिति के अध्यक्ष कुमार शुभमूर्ति से प्रसून लतांत की बातचीत।

भूदान को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर क्या करने की जरूरत है?
भूला भटका भूदान
Posted on 13 Dec, 2013 12:59 PM
विनोबाजी का भूदान आंदोलन कभी भारत के भूमिहीनों के लिए एक बड़ा सपना बन कर आया था। लेकिन सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी, लालफीताशाही और जमींदारों की कुटिल चालों ने इस महत्वाकांक्षी अभियान को ध्वस्त कर दिया। इस आंदोलन को फिर से जांचा-परखा जा रहा है। इसकी जरूरत और अहमियत की पड़ताल कर रहे हैं प्रसून लतांत।
vinoba jee ka bhoodaan
आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर
Posted on 02 Jul, 2013 10:47 AM
कुदरत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अलबत्ता मुकम्मल तैयारी हो तो प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही बहुत हद तक कम की जा सकती है। मौसम के तीव्र उतार-चढ़ाव और जलवायु बदलाव के दौर में आपदा प्रबंधन की अहमियत और बढ़ गई है। लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन बहुत लचर है। इसकी खामियों की पड़ताल कर रहे हैं, प्रसून लतांत।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है।

उत्तराखंड में आसमान फटने, लगातार मूसलाधार बारिश होने और पहाड़ के टूट कर बिखरने से हुई तबाही में जानमाल की जो हानि हुई है, उससे एक बार फिर आपदा प्रबंधन पर सवालिया निशान लगा है। अभी तक आपदा प्रबंधन के नाम पर किसी एजेंसी की इस मामले में कोई भूमिका देखने सुनने को नहीं मिल रही है। उलटे उसका खोखलापन ही सामने आ रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हैं। यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि केदारनाथ घाटी में आई आपदा राष्ट्रीय है या स्थानीय। विपक्ष इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रहा है तो केंद्र इस मामले में चुप्पी साधे हैं। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक जहां इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ और अंधाधुंध विकास का दुष्परिणाम बता रहे हैं वहीं कुछ अंधविश्वासी लोग ईश्वर या दैवीय प्रकोप बताकर लोगों को भ्रम में डाल रहे हैं।
जल संकट ने आंखों में उतारा पानी
Posted on 19 May, 2013 03:47 PM
यों भारत में इतनी बारिश होती है कि अगर उसका कारगर ढंग से रखरखाव किया जाए तो पानी के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ेगा। लेकिन कुप्रबंधन, उदासीन नौकरशाही और जनप्रतिनिधियों में इच्छाशक्ति की कमी ने पूरे देश में जल संकट पैदा कर दिया है। पेयजल का व्यवसायीकरण होने से भी स्थिति विषम बनी हुई है। पानी की कहानी बयान कर रहे हैं प्रसून लतांत।

पानी के लिए सामने खड़ी समस्याओं के लिए हम और हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हमने अपने पूर्वजों के अनुभव और उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा बता कर बड़े-छोटे बांध और तटबंध बनाने के नाम पर नदियों के प्रवाह से खिलवाड़ किया और उसमें कारखाने का रासायनिक डाल कर उसे प्रदूषित किया। बाकि बचे झील-तालाबों और कुओं में मिट्टी डाल उस पर दुकानें बना लीं। इन सब कारणों से अब धरती के ऊपरी सतह पर उपलब्ध पानी के ज्यादातर स्रोत सूख रहे हैं। देश की ज्यादातर नदियां सूख रही हैं। इसके कारण खेतों की सिंचाई नहीं हो पा रही है। पीने के पानी की किल्लत देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। पानी के बढ़ते संकट के कारण सभी के आंखों में पानी उतरने लगा है। पानी का सवाल अकेली दिल्ली या देश के किसी एक राज्य और उसकी राजधानी और उनके जिलों भर का मामला नहीं है, यह देश दुनिया में व्याप गया है। नमक से कहीं ज्यादा जरूरी इस प्राकृतिक साधन पर खतरे मंडरा रहे हैं। इस साधन को सहेजने, संवारने और बरतने वाले आम आदमी का हक इस पर से टूटता जा रहा है और इसे हड़पने वाली कंपनियां दिनोंदिन मालामाल होती जा रही हैं और ऐसे में केवल सरकार है, जिससे उम्मीद की जाती है तो वह भी इसका कारगर हल खोजने के बदले कहीं तमाशबीन तो कहीं शोषकों के खेल में भागीदार बन कर लोगों के संकट को बढ़ा रही है। इन सभी कारणों से आम आदमी का भरोसा टूटा है और उनके आंदोलन शुरू हो गए हैं। इसी के साथ पानी से जुड़े सभी पुराने सरोकार और इस पर आधारित संस्कृति का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो गया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी और कभी होगी तो उसमें काफी समय लग जाएगा।
सबकी दीदी, राधा दीदी
Posted on 06 Feb, 2010 11:35 AM
राधा भट्ट यूं तो पहाड़ की आम महिलाओं जैसी ही नजर आती हैं. लेकिन वे आम नहीं हैं. साधारण तो कतई नहीं. हां, आप उनसे बातचीत करें तो परत दर परत संघर्ष और अनुशासन का एक ऐसा रचनात्मक संसार खुलता चला जाता है, जो उन्हें सबसे अलग करता है.
राधा भट्ट
काकासाहेब कालेलकर सम्मान समारोह की मुख्य अतिथि होंगी मेधा पाटेकर
Posted on 22 Dec, 2015 09:34 AM
काकासाहेब कालेलकर सम्मान समारोह की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध समाजकर्मी मेधा पाटेकर होंगी, अध्यक्षता जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज करेंगे।
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