चंद्रकुँवर बर्त्वाल

चंद्रकुँवर बर्त्वाल
गंगा से
Posted on 16 Sep, 2013 03:04 PM
जननि, तुम्हारे तट पर ही जब भूखी ज्वाला
मुझे भस्मकर पी जावे धू-धूकर जननी
घने धुएँ से घिरी रुद्र-दृग-सी विकराला।

और प्राण लेकर मेरे, जब सुख से हँसती
मृत्यु चले चिर अंधलोक को विद्यु-गति से
छोड़, धरा पर मेरी दुनिया जननि बिलखती।

छोड़ मुझे जब अग्नि तुम्हारे पावन तट से
धूम्र लीन हो उड़ जावे, जगती के उर पर
मँडराते गिद्धों के वृहत् परों से सट के।
नदी
Posted on 16 Sep, 2013 03:03 PM
वह हिम-गिरि के देवदारु-वन में है विचरण करती
नीरद कुंज बनाकर वह, शशि-बदनी रहती
नहीं किसी ने पिए अझर झरते वे निर्झर
जिन पर रहते हिलते उसके सुमधुर अधर।
शशि-आलिंगित सांध्य जलद से गिरि पर सुंदर।
वह तट पर उल्लास उछाल छलककर बहती
पत्थर में वह फूल खिला फेनिल हो हँसती।

अलकनंदा
Posted on 16 Sep, 2013 12:38 PM
बही जा रहीं उसी नदी की
यौवन-भरी तरंगें।
गाती हैं उन्मत्त अभी भी
भरने वही उमंगें।
लहरों के इस प्यासे तट पर
एक रात में आकर।
लाया था शशि मुख छाया में
अपनी प्यासी गागर।
लहरों में लिपटी आई तुम
इस छोटे उर में बसने।
वैसा ही फिर हे वन-वासिनी
लहरों में घिर आओ।
गिरि चढ़ने से श्रांत पथिक को
फिर जलगीत सुनाओ।

आज मंदाकिनी जल में
Posted on 16 Sep, 2013 12:36 PM
खेतले हैं वरुण अपनी प्रणय-लीला।
घोर केश-समूह छितरा, काटती अपने किनारे,
गगन को घन-घन कँपाती, पर्वतों को तोड़ विखरा,
गज घटा-से बन बहाती, आज कर्दम धूमिला सरि
नाचती उन्मादिनी-सी, नाचते हैं वरुण जल में
लहर-लहरों में उठाए हाथ पीला,
आज मंदाकिनी जल में
खेलते हैं वरुण अपनी प्रणय-लीला।

नदी चली जाएगी, यह न कभी ठहरेगी
Posted on 16 Sep, 2013 12:35 PM
नदी चली जाएगी, यह न कभी ठहरेगी!
उड़ जाएगी शोभा, रोके यह न रुकेगी!
झर जाएँगे फूल, हरे पल्लव जीवन के,
पड़ जाएँगे पीत एक दिन शीत भरण से!
रो-रोकर भी फिर न हरी यह शोभा होगी!
नदी चली जाएगी, यह न कहीं ठहरेगी!

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