यूं जी जहाजवाली

संघर्ष से शुरूआत


पहले देवरी-गुवाड़ा में छोटी-छोटी बैठकों का दौर चला। पहले गांवों का अनुशासन जरूरी था। गांव अपना अनुशासन खुद करने के लिए तैयार हो गए। तय किया गया कि अब कोई भी ग्रामवासी गांव के जंगल से पेड़ नहीं काटेगा। सब समझ गए कि जंगल कटने के कारण गाय, भैंस, बकरी, ऊंट आदि पशुओं को चारे का अभाव हो रहा है। जंगल जाने से ही पानी जा रहा है। अच्छा-खासा समृद्ध इलाका इसी कारण बेरोजगारी व गरीबी की ओर बढ़ रहा है। गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी से बचने के लिए जरूरी है कि जंगल का संरक्षण हो।यह सच है कि 1985 में जब तरुण भारत संघ इस इलाके में आया, तब तक जंगल जंगलात के हो चुके थे और जंगलात की नजर में जंगलवासी नाजायज लेकिन यह भी सच है कि सरिस्का ‘अभ्यारण्य क्षेत्र’ बाद में घोषित हुआ और इसके भीतर बसी इंसानी बसावट सदियों पुरानी है। इसे भी झुठलाना मुश्किल है कि जंगल को जंगलात से ज्यादा जंगलवासी प्यार करते हैं। लोग भले ही इन्हें जंगली कहते हों, लेकिन जंगल को जंगलात से ज्यादा जंगलवासियों ने ही संजोया। बावजूद इसके यदि जंगलवासियों को जंगल से दूर करने की कोशिश हो रही है, तो यह सही है या गलत? आप तय करें।

हम तो यही जानते हैं कि जंगल जंगलवासियों की जन्मभूमि है। इन्हें अपनी जन्मभूमि से अत्यंत प्यार है। जन्मभूमि के प्रति इनके अनंत प्रेम को देखकर ही एक बार अलवर के महाराजा मंगल सिंह को भी सरिस्का क्षेत्र में बसे 27 गांवों को उठा देने का अपना आदेश स्वयं ही रद्द करना पड़ा था। यह ब्रितानी जमाने की बात है।

सचमुच! यह विरोधाभास ही है कि राजशाही ने इनके जंगल प्रेम को समझा...मान रखा, लेकिन लोकशाही ने बेसमझी की, अभद्रता दिखाई और अत्याचार किया। वन विभाग के कर्मचारी उस दौर में जंगल से बाहर के गांवों में इनके आने-जाने पर रोक लगाते थे। इनकी रसद रोक देते थे। पशुओं की चराई तथा उनके लिए चारा या सूखे पत्ते लाने पर भी रोक लगाने का अधिकार जंगलात के पास था। ग्रामवासियों पर एहसान जताते हुए वनकर्मी कभी-कभी नाममात्र की छूट देकर रिश्वत वसूलते थे। ये रिश्वत रूपए-पैसे के अलावा दूध, मावा व घी के रूप में होती थी। गांव वाले भी जैसे इस रिश्वत के आदी हो चुके थे। जबकि इसके बदले में उन्हें पूरी छूट कभी नदी दी जाती थी। हां! कभी-कभी थोड़ी सी ढील दी जाती थी। जब कभी ढील की रस्सी ज्यादा कस दी जाती, गांव कसक उठता; पर शांत रहता। मवेशी चराने के लिए भी परमिट लेना पड़ता था। अनपढ़ समाज यह सब क्या जानता था। खानें पानी पी गईं थीं। सो, खेती थी नहीं। बाहर अनाज लाने गई औरतें किसी तरह से अपनी आबरू का मान रख पाती थी। जंगलात ने नाहर सती के पास रास्ते में दीवार बनाकर रास्ता रोकने की भी कोशिश की थी। घरों पर पत्थर तक बरसाए।

इन्हीं दिनों तरुण भारत संघ स्थानीय गांवों में शिक्षा व स्वास्थ्य के कामों के साथ-साथ पदयात्राएं कर गांवों की तत्कालीन समस्याओं की खोज करने में जुटा था। ‘देवरी की संघर्ष गाथा’ पुस्तक में जिक्र है कि दिसंबर 1985 में एक दिन श्री राजेंद्र सिंह कुछ साथियों के साथ भीकमपुरा से प्रातः 5 बजे पैदल ही रवाना होकर गोपालपुरा, मांडलवास, मथुरावट, करांट, कालीघाटी व ऊमरी होते हुए 55 किलोमीटर दूर गांव देवरी पहुंचे। सभी साथी जोशीले व जवान थे और लक्ष्य को लेकर संकल्पबद्ध भी। तभी शायद अनजान क्षेत्र में इतनी लंबी यात्रा करने के बावजूद उस समय उन्हें आनंद ही आया था हां! उन्हें प्यास जरूर लग आई थी। तब बोतलों में पानी भरकर ले चलने का चलन नहीं था। रास्ते के जोहड़-बांधों में कहीं भी पानी नहीं दिखाई दिया। हरसावल का झरना भी उस समय सूखा हुआ था। देवरी पहुंचकर प्रभात पटेल की प्यार भरी बातों ने रास्ते में लगी प्यास के एहसास को कम कर दिया था। उन्होंने पानी पिलाया। भोजन कराया। गांव के अन्य लोगों को भी प्रभात पटेल ने अपने घर बुला लिया। आपस में बातचीत होने लगी। गांव के लोगों ने अपनी दुःख भरी दास्तान सुनाई। बोले-राम से हम प्रार्थना करेंगे, तो शायद सुन ले, पर राज पर हमारी प्रार्थना का कोई असर नही हो रहा। खुलासा करते हुए उन्होंने बताया-हमारे यहां न तो बरसात हो रही है, न पशुओं के पीने के लिए पानी ही है। जंगल में भी न चारा है, न पानी। जानवर भूखे-प्यासे मर रहे हैं। इसलिए हमें गांव छोड़ कर नीचे के गांवों में पलायन करना पड़ रहा है। पानी नहीं, तो फसल कहां से हो? खाने के लिए अनाज भी बाहर से लाना पड़ता है। इन समस्याओं के अलावा सबसे बड़ी समस्या जंगलात बना हुआ है। वन कर्मचारी सामान लेकर आने-जाने पर भी रोक लगाते हैं। चौथ भी वसूलते हैं। उनके आदेश को शिरोधार्य करने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं है। क्या करें?

यह कहककर गांववालों ने श्री राजेंद्र सिंह जी पर एक आशा भरी नजर डाली। श्री राजेंद्र सिंह उनकी पीड़ा सुनकर बहुत दुःखी हुए। उन्हें आश्वासन दिया कि सभी मिलकर जल्द ही समस्या का हल निकाल लेंगे।

इसके बाद श्री राजेंद्र सिंह उस क्षेत्र में आते-जाते रहे। उन्हीं के निर्देश पर तरुण भारत संघ ने जहाज के जंगलों में जंलात के जुल्म को चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने स्थानीय लोगों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ने का प्रयास किया। इसी श्रृंखला में एक अक्टूबर, 1987 को संस्था में एक साथ 20-25 कार्यकर्ता जोड़े गए। कुछ कार्यकर्ता पहले से ही कार्यरत थे। 1987 के अंत में ऐसे नए, लेकिन सामाजिक क्षेत्र का विशेष अनुभव रखने वाले कार्यकर्ता श्री गोवर्धन शर्मा को श्री राजेंद्र सिंह जी ने जहाजवाली नदी क्षेत्र और सरिस्का क्षेत्र की समस्याओं से निपटने के लिए नियुक्त किया। इसी दौर में प्रसिद्ध गांधीवादी स्व. श्री लोकेंद्र भाई ने भी यहां अपनी ढपली और गीतों से जन चेतना जगाने का अभियान छेड़ा था।

जहाजवाली नदी क्षेत्र में गोवर्धन जी के पहली बार आने की बात को याद करके बांकाला (देवरी) के भम्बू गुर्जर बताते हैं कि उस वक्त वह कुएं से पानी निकालने हेतु लाव तैयार कर रहे थे। दिन ढल रहा था। लाव तैयार हो चुकी थी। उसी वक्त बागल में थैला लटकाए...सिर पर टोपा पहने राजेंद्र सिंह जी व गोवर्धन जी आ धमके। उन्होंने लाव तैयार करते भम्बू गुर्जर, प्रभातीलाल पटेल, बाबूलाल मीणा और रामधन मीणा को अपनी पहचान बताई। कोड़ै… कॉय छै की स्थानीय बोली बोलते हुए राजेंद्र सिंह जी ने जल-जंगल संरक्षण के लिए लोगों को तैयार करने का प्रयास किया। काफी बातचीत हुई। फिर भी उपस्थित लोग पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुए। आखिर में यह तय हुआ कि तीनों गांवों की सामूहिक बैठक बांकाला में करेंगे। सूर्यास्त के समय राजेंद्र सिंह जी को बांकाला-गुवाड़ा भेज दिया। भम्बू गुर्जर की तिबारी में बैठक जमीं। राजेंद्र सिंह जी को बड़े प्रेम से रात्रि भोजन कराया। बाबूलाल मीणा और भम्बू गुर्जर ने अगले दिन तीनों गांवों के लोगों को इकट्ठा किया।

राजेंद्र सिंह जी ने गांव के लोगों को गांव में आने का अपना उद्देश्य बताया गांव का हालचाल पूछा। राजेंद्र सिंह जी जब गांव की बदहाली का कारण पूछने लगे, तो गांव ने फिर वही पुरानी कहानी दोहरा दी-न-चारा है, न पानी… न अनाज; ऊपर से जंगलात के जुल्म और रिश्वत। “रिश्वत क्यों देते हैं? जवाब आया-पेड़ काटने के लिए। राजेंद्र सिंह जी ने कहा कि पेड़ तो नहीं काटने चाहिए। लोगों को शक हुआ कि यह भी कोई गांव उठाने वाले लोगों में से ही है। बैठक में उपस्थित लोगों ने गोपनियता बरतते हुए राजेंद्र सिंह जी के पास भम्बू की तिबारी में कुछ लोग छोड़े और बाकी सब खास-खास लोग स्वर्गीय श्री कल्याण गुर्जर की तिबारी में पहुंच गए। कैलाश गुर्जर के कहे अनुसार वहां लोग बातें करने लगे- यह भी कोई वन विभाग का ही आदमी है। हमारे गांव को हटाने की साजिश रच रहा है। इसलिए पूरी जानकारी हासिल करना जरूरी है। फिर भी ऐसे भगाना ठीक नहीं। उन्होंने यह तय किया कि गांव के लोग एक बार भीकमपुरा आएंगे। बैठक में भम्बू गुर्जर का भीकमपुरा जाना तय हुआ। राजेंद्र सिंह ने रात्रि में भम्बू गुर्जर की तिबारी में ही विश्राम किया। राजेंद्र जी व गोवर्धन जी प्रातः उठकर देवरी, बांकाला, गुवाड़ा गांव में भ्रमण करने गए। एक-दो दिन भ्रमण करने के बाद राजेंद्र सिंह जी व गोवर्धन जी भीकमपुरा के लिए रवाना हो गए।

यूं मिला रास्ता


राजेंद्र सिंह जी और गोवर्धन जी के चले जाने के बाद बांकाला के भम्बू गुर्जर क्रास्का के अपने रिश्तेदार गणपत गुर्जर को साथ लेकर तरुण भारत संघ की कार्यप्रणाली को देखने-समझने ...एक तरह से जांच करने पहुंचे। भम्बू गुर्जर ने काफी गहराई से बातचात की। अपने तरीके से जांच-पड़ताल की। तरुण भारत संघ के प्रति जो शंकाएं थीं, वे दूर हुई. अच्छा हुआ। उन्हें विश्वास हो गया कि तरुण भारत संघ व इसके कार्यकर्ता वास्तव में सेवा-भावना से ही काम करते हैं। इनमें किसी प्रकार की स्वार्थ-भावना नहीं है। इस तरह पूरा विश्वास हो जाने के बाद भम्बू गुर्जर ने श्री राजेंद्र सिंह जी व अन्य कार्यकर्ताओं से पुनः बातचीत की। सबने मिलकर तय किया कि सरिस्का के जंगल में हो रहे कटान व जंगलात कर्मचारियों द्वारा ग्रामवासियों से ली जाने वाली रिश्वतखोरी से निपटने के लिए गांव व संस्था...सब मिलकर आंदोलन चलाएंगे। इस आंदोलन को ठीक से चलाने के लिए गोवर्धन जी को देवरी गांव में भेजेंगे। वे वहां रहकर छोटे बच्चों के लिए स्कूल भी चलाएंगे और आंदोलन को भी सक्रिय करेंगे। यह तय हो जाने के बाद निर्धारित तारीख पर गोवर्धन जी वहां पहुंच गए।

पहले आत्मनुशासन, फिर संघर्ष


पहले देवरी-गुवाड़ा में छोटी-छोटी बैठकों का दौर चला। पहले गांवों का अनुशासन जरूरी था। गांव अपना अनुशासन खुद करने के लिए तैयार हो गए। तय किया गया कि अब कोई भी ग्रामवासी गांव के जंगल से पेड़ नहीं काटेगा। सब समझ गए कि जंगल कटने के कारण गाय, भैंस, बकरी, ऊंट आदि पशुओं को चारे का अभाव हो रहा है। जंगल जाने से ही पानी जा रहा है। अच्छा-खासा समृद्ध इलाका इसी कारण बेरोजगारी व गरीबी की ओर बढ़ रहा है। गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी से बचने के लिए जरूरी है कि जंगल का संरक्षण हो। यूं भी जंगल नष्ट होगा, तो तोहमत जंगलात से ज्यादा जंगलवासियों के माथे ही थोपी जाएगी। बदनामी होगी, सो अलग! यह निर्णय गांव में काफी लंबी आपसी बहस व संवाद के बाद तय हो पाया। बहस में बार-बार यह बात उठती रही कि सारा जंगल तो वन विभाग का है। विभाग चाहे, तो जंगल कटा सकता है और चाहे तो संरक्षण कर सकता है। गोवर्धन जी ने गांववालों को समझाया कि वन विभाग जंगल का मालिक नहीं होता। वह जनता का नौकर होता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह जंगल को बचाए। जंगल का असली मालिक तो गांव ही है। पूरी बात समझ में आने के बाद सर्वसम्मति से हरा जंगल नहीं काटने का निर्णय हुआ। इसी के साथ गांव की व्यवस्था संबंधी एक ढांचा भी तय हुआ।

तय हुआ कि तीनों गांवों को मिलाकर एक ग्रामसभा बनेगी। इसमें गांव के हर व्यक्ति का आना अपेक्षित है। हर घर से कम एक वयस्क सदस्य का उपस्थित होना अनिवार्य ही है। ग्रामसभा ने हाथ खड़े करके तय किया कि अब गांव वाले न तो खुद हरा जंगल काटेंगे और न ही कटने देंगे। जंगल में यदि किसी व्यक्ति को पेड़ काटते हुए गांव का कोई भी व्यक्ति देखेगा, तो वह उसी शाम ग्रामसभा में आकर बताएगा। गांव के पशुपालक दिन भर जंगल में ही रहते हैं, इसलिए जंगल काटने वाला व्यक्ति उनसे छिप नहीं सकता। सूचना मिलते ही ग्रामसभा तुरंत इकट्ठी होगी। वह अपने निर्णय के अनुसार अपराधी पर जुर्माना करेगी। जुर्माना नहीं देने की स्थिति में ग्रामसभा अहिंसात्मक तरीके से अपराधी के खिलाफ सत्याग्रह करेगी। यदि वह फिर भी नहीं मानता है, तो ग्रामसभा जंगल विरोधी व्यक्ति से अपना नाता-रिश्ता तोड़ लेगी। एक तरह से उसका सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया जाएगा। इसमें कोई समझौता नहीं होगा हां। ग्रामसभा ने गांव की जरूरत के लिए जंगल से सूखी लकड़ी, सूखी घास, गाय-भैंस-बकरी के लिए सूखी पत्तियां, चराई व छान-छप्पर के लिए आवश्यक सूखी सामग्री जंगल से जुटाने की छूट अवश्य दी।

गांव अपने निर्णय पर खुश था। उसकी ऊर्जा व आत्मज्ञान जैसे वापस लौट आया था। गांववालों ने गोवर्धन जी को रहने के लिए ठाकुर जी का मंदिर सौंप दिया। गोवर्धन जी ‘मास्टर जी’ बन गए। गांव को पढ़ाते-पढ़ाते वह संगठन का काम भी करते रहे। रचना और सत्याग्रह दोनों की तैयारी साथ-साथ परवान चढ़ने लगी। रणनीति के तौर पर गांवों को प्रेरित किया कि यदि कोई वनकर्मी रिश्वत मांगे, तो उससे रसीद मांगो, ‘रसीद नहीं, तो रिश्वत नहीं’ का टोटका चल निकला। दूसरा नारा था- जंगलात से जंगल को बचाओ। गोवर्धन जी का प्रयास सफल रहा। उन्हीं दिनों गोवर्धन जी के पास लक्ष्मण सिंह जी व गोपाल दत्त जी का भी आवागमन बढ़ा। तरुण भारत संघ के ये तीनों साथी मिलकर गांव के संगठन को मजबूत करने का काम करते रहे। इन्होंने नए कार्यकर्ताओं की खोज की इसी से आगे के संघर्ष में सफलता की पृष्ठभूमि तैयार हो गई।

बौखलाया जंगलात


देवरी गांव पहुंच कर गोवर्धन जी ने वहां के तीनों गांवों की बैठक बुलाई। खूब चर्चा हुई। उन्होंने तीनों गांवों को संगठित कर उनकी एक ग्रामसभा बनाई। ग्रामसभा में जंगल को बचाने के लिए कुछ गंवई दस्तूर बनाए गए। जंगलात वालों के षड्यंत्र से सावधान होकर काम करने का संकल्प हुआ। इधर बैठक में जंगलात वालों की साजिश से निपटने के लिए रणनीति बनी, तो उधर जंगलात विभाग के कर्मचारियों में हड़कम्प मच गया। बौखलाहट में उन्होंने गांव के संगठन को कमजोर करने के लिए बांकाला-गुवाड़ा को अपनी साजिश का निशाना बनाया। वे रात को भम्बूराम, शोभाराम व सुरजा गुर्जर के घर पत्थर बरसाने लगे। गांव के लोग सावधान हो गए। वे इन सब करतूतों से घबराए नहीं। रातभर गश्त लगाते रहे। गोवर्धन जी, लक्ष्मण सिंह जी व गोपालदत्त जी जैसे कार्यकर्ता भी डटे रहे। जंगलात की करतूत देखने वास्ते तरुण भारत संघ के महामंत्री श्री राजेंद्र सिंह जी ने भी कई रातें वहीं बिताई। बरसते पत्थरों से किसी का बाल भी बांका न होते देख बौखलाए जंगलात वालों ने 43 ग्रामीणों के खिलाफ झूठे मुकदमे लगा दिए। गोवर्धन जी को भी झूठे मुकदमे फंसा दिया गया।

किस्सा रोमांचक है। अज्ञात कारणों से मरा हुआ एक जरख धमरेड़ गांव के जयराम गुर्जर व गिर्राज जांगिड़ को एक दिन गांव की गौर में पड़ा मिल गया। उन्होंने वन विभाग की वन चौकी को इसकी सूचना दे दी। वन चौकी के गार्डों ने दोषी व्यक्तियों को खोजने की बजाए सूचना देने आए दोनों लोगों को दोषी ही ठहरा दिया। उन्हें दंड भुगतना पड़ा। कई सौ रुपए खर्च करने पर वनकर्मियों ने उनका पीछा छोड़ा। इस हकीकत से कई वन अधिकारी व कर्मचारी भली-भांति अवगत थे।

जब तरुण भारत संघ व ग्रामीणों द्वारा जंगल संरक्षण के लिए प्रयास और तेज हुए तो जंगलात वालों ने एक नया दांव खेला। यह किस्सा और आगे बढ़ा। जरख केस में पहले दर्ज धमरेड़ के व्यक्तियों के नाम के दूसरे दो व्यक्ति खोज निकाले। एक दूसरे गांव गुवाड़ा में परताराम का भतीजा जयराम गुर्जर व देवरी प्रभात पटेल का बेटा गिर्राज मीणा। धमरेड़ के जयराम गुर्जर व गिर्राज जांगिड़ की जगह इन्हें पेश करके फंसा दिया। कई बार पेशी लगने के बाद भोजराज सिंह जी रेंजर के सहयोग से उन्हें बड़ी मुश्किल से छुटकारा मिला।

दूसरा किस्सा और भी शर्मसार करने वाला है। देवरी गांव के लोगों के खिलाफ दर्ज मुकदमों की पैरवी कर रहे वकीलों को नकल देने गोवर्धन जी व गांव के कुछ लोग एक दिन राजगढ़ तहसील पहुंचे। राजगढ़ में गोवर्धन जी व कुछ ग्रामीणों को अकेले देखकर वनकर्मियों ने उन्हें झटपट पकड़कर जेल भेजने की योजना बना डाली। गोवर्धन जी कुछ बाबुओं के पास मुकदमों की जानकारी कर रहे थे। अपने आगे-पीछे लगे वनकर्मियों को देखकर उन्हें शक हुआ। वनकर्मियों ने अनजाने ही गोपनीयता तोड़ते हुए आजू-बाजू के कई लोगों से यह कह दिया था - “देवरी गुवाड़ा के कई लोग व गोवर्धन शर्मा हमारे मुलजिम हैं। इन्हें गिरफ्तार करेंगे।” गोवर्धन जी ने देवरी गांव के लोगों को वनकर्मियों से बचकर भाग निकलने का इशारा कर दिया। तभी संयोग से चावा का बास क उनके परिचित मुकेश शर्मा कोर्ट-परिसर में मिल गए। गोवर्धन जी ने अपने पर होने वाली संभावित घटना से मुकेश शर्मा को अवगत कराया। टहला छींड के मुकेश शर्मा संघर्षशील व कमजोर वर्ग की सेवा करने वाले नौजवान व्यक्ति हैं। गोवर्धन जी के कार्य की प्रशंसा उन्होंने पहले से ही सुन रखी थी। गोवर्धन जी को वन विभाग की आफत से निकालने के लिए उन्होंने उन्हें वहीं कोर्ट-परिसर में अपने पहचान वाले एक बाबू के पास बैठा दिया। उन्होंने बाहर घूम रहे वनकर्मियों को समझाने की भी कोशिश की। उनके बाज नहीं आने पर मुकेश शर्मा ने चुपके से अपनी पहचान के एक जीप वाले को बुलाकर यह सब हाल सुनाया। उससे जीप को कोर्ट-परिसर में बैठे गोवर्धन के करीब सटाने को कहा। जीप वाले ने वैसा ही किया। जीप आ जाने पर मुकेश शर्मा ने गोवर्धन शर्मा को इशारा किया। गोवर्धन जी जीप में बैठ गए। मुकेश शर्मा उन्हें राजगढ़ से कई किलोमीटर दूर चीतोश गांव में छोड़ आए। गोवर्धन वहां से आगे बढ़ गए।

जहाजवाली नदी क्षेत्र के लोगों ने एक वक्त यही बात शासन से कह दी थी। सिर्फ कही नहीं, बल्कि अपने संसाधन बचाने में भी लगे रहे। आस-पास के गांवों में भी यह चर्चा जोरों से फैली। ग्रामीणों ने जंगल संरक्षण के इस कार्य के साथ-साथ जल संरक्षण का कार्य भी शुरू कर दिया। गुवाड़ा में सेढ़वाला व देवरी में कारोजवाला जोहड़ - ये दो जोहड़ गांव के श्रमदान व तरुण भारत संघ के आंशिक आर्थिक सहयोग से बनकर तैयार हो गए। उधर देवरी गांव में गोवर्धन जी की गिरफ्तारी की साजिश की सूचना पहुंच चुकी थी। गांव के लुगाई-मोट्यार सब गोवर्धन जी के सहयोग के लिए राजगढ़ की तरफ रवाना हो गए थे। उन्हें रास्ते में सूचना मिली कि गोवर्धन जी वनकर्मियों के चंगुल से निकल गए हैं। फिर भी ग्रामवासी आगे बढ़कर कई किलोमीटर पैदल ही तालाब गांव पहुंच गए। वहां जब गोवर्धन जी को सकुशल पाया और अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देख लिया, तभी लोगों की जान में जान आई। गांव के लोग तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं को सचमुच! ही बहुत प्यार करते थे। फिर वे गोवर्धन जी को साथ लेकर वापस देवरी लौट गए। तुरंत ग्रामसभा की बैठक बुलाई गई। बैठक में गांव वालों ने तय किया कि अब वे किसी भी परिवार में किसी भी वनकर्मी को नहीं बैठने देंगे। वनकर्मी जिसके भी घर बैठा मिलेगा, उसके ऊपर ग्रामसभा जुर्माना करेगी। यह एक तरह से जंगलात का सामाजिक बहिष्कार था। लोगों ने वनकर्मियों को पीने का पानी तक देने से इंकार कर दिया। इससे जंगलात वालों में और ज्यादा आक्रोश बढ़ गया। लेकिन इस आक्रोश ने लोगों को एकजुट ही किया।

जुटी ताकत


देवरी के संघर्ष में गोवर्धन जी के साथ लापोड़िया के लक्ष्मण सिंह जी का भी विशेष योगदान रहा। लक्ष्मण सिंह जी का समझाने का तरीका बड़ा अद्भुत था। लोग उनकी भाषा और बातचीत से बहुत प्रभावित होते थे। उन्होंने राड़ा की गांडरवाली जोहड़ी, बल्ला गोवर्धनपुरा की जोहड़ी और खैराली की ढाब में ग्रामवासियों के साथ कई दिन तक पूर्ण श्रमदान करके उन्हें श्रमदान की व्यावहारिक अवधारणा समझाई थी। श्रमदान का महत्व समझ में आने के कारण ही इस क्षेत्र में पानी का काम इतना सहज हो सकता था। इनके श्रम व व्यवहार को गांव के लोग आज भी बड़ी श्रद्धा से याद रखे हुए हैं। इनके साथ बामनवास के गोपालदत्त जी ने भी प्रारंभिक दौर में बड़ी मेहनत व लगन से काम किया। गोपाल जी गांव की आंतरिक संरचना को समझ कर उसी अनुरूप संगठनात्मक कार्य करते थे। इससे बड़ी ताकत जुट गई।

मुझे याद है कि प्रसिद्ध सर्वोदयी विचारक श्री सिद्धराज जी ढड्ढा को लेकर तरुण भारत संघ के महामंत्री श्री राजेंद्र सिंह जी 11 मई, 1988 को देवरी में जंगलात- विभाग की जंगल विरोधी मुहिम को देखने-समझने के लिए पहुंचे थे। श्री सिद्धराज ढड्ढा बुजुर्ग आदमी थे। उन्हें पहाड़ी के ऊपर चढ़ाने के लिए भगवान सहाय मीणा व एक अन्य साथी ने अपने हाथों की जोड़ी बनाई। उस पर बैठाया और सहज ही पहाड़ के पार देवरी गांव में पहुंचा दिया। सिद्धराज जी देवरी गांव वालों से उनकी ग्राम निर्माण योजना को सुनकर बहुत खुश हुए। उन्होंने आगाह किया- जब तक भारत के ग्रामीण समाज के मन में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति जागरुकता नहीं आएगी, तब तक हमारा देश सही मायने में तरक्की नहीं कर सकेगा। देवरी गांव ने रिश्वत के खिलाफ जो आंदोलन शुरू किया है। यह बड़ा शुभ कार्य है। इसके साथ-साथ जंगल संरक्षण करना समझदारी का काम है। उन्होंने रिश्वतखोरी के खिलाफ आवाज को बुलंद करते हुए ग्रामीणों को अपना पूरा सहयोग देने की बात कहकर हिम्मत बंधाई। जैसे-जैसे गांव वालों की ताकत बढ़ रही थी, जंगलात वाले अधिक परेशान रहने लगे थे। उन्होंने स्थानीय खान मालिकों से मिलकर गांव के संगठन को तोड़ना चाहा। यद्यपि गांव का संगठन मजबूत था, फिर भी वे गांव में से एक-दो लोगों को प्रलोभन देकर तोड़ने में सफल हो गए थे। खान मालिक और वन विभाग वाले कैसे गांव के लोगों को बहकाते हैं? इसे समझने के लिए हंस और बगुले की इस कहानी से सीख लेनी चाहिए। यह स्थिति नेता, सरकार व समाज के बीच आज भी बरकरार है इसलिए इसका यहां ज्यादा महत्व है।

मत्स्यबाकुलीकरण


एक दिन राज्य संचालक वर्ग का एक हंस उड़ता-उड़ता ऐसे गांव में पहुंचा, जहां मछलियों से भरा सुंदर तालाब था। वहां का वातावरण उसे बहुत भाया। पानी में मछलियों की उछल-कूद देखर वह सोचने लगा-काश! ये मेरे सरोवर में भी होतीं। उसे लालच आया और वह मछलियों को साथ ले जाने का उपाय सोचने लगा। वहां का सहअस्तित्व, प्रेम और शांति देखकर वह अचम्भे में था। तुरंत उसे समझ में आ गया कि मछलियां तो केवल बगुले ही ले जा सकते हैं। अब कैसे तैयार करे? उसने सबसे पहले उनके नेता की तलाश की। उनका नेता दिखाई नदीं देने पर उसने एक जवान बगुले को एक तरफ बुलाकर उसके कान में मंत्र फूंका - मैं तुम्हें मेरे जैसा सुंदर हंस बना सकता हूं। तुम मेरे साथ मेरे सरोवर के राजा से मिलने चलो। बगुले ने एक क्षण कुछ सोचा, फिर बिना किसी को बताए वह हंस के साथ उड़ गया।

सरोवर में पहुंचने पर हंस ने बगुले को अपने राजा से मिलाया। हंस ने बगुले से तालाब पर हुई सारी बातें पहले ही राजा के कान में कह दी थी। राजा भी बगुले को प्रलोभन देने लगा- तुम्हें हम हंस बना देंगे। तुम वहां की सारी मछलियां अपने खाने के लिए यहां ले आओ। बगुले ने कहां-मैं अकेला मछलियां नहीं ला सकता। दूसरों को कहना पड़ेगा। राजहंस ने कहा-हम उन्हें भी हंस बना देंगे। तुम मछलियों को ले आओ। जल्दी करो। तीन माह के अंदर-अंदर सब मछलियां ले आओ। तो ही तु सब हंस बन पाओगे।

बगुला वापस आया और उसने हंसों के राजा का प्रस्ताव दूसरे बगुलों के सामने रखा। बगुलों ने भी सोचा कि यहां के तालाब में रह-रहकर ऊब रहे हैं। हंस बन जाएंगे, तो उनके साथ रहने को मिलेगा। उन सभी ने अपने तालाब की मछलियां हंसों के तालाब में ले जानी शुरू कर दी। हंसों का तालाब मछलियों से भरने लगा और बगुलों का तालाब खाली होने लगा। यह काम बगुलों ने बड़े उत्साह में एक माह में ही कर दिया। तब एक नौजवान बगुले ने उन हंसों से कहा-हमारे तालाब की सभी मछलियां आपके तालाब में पहुंच चुकी हैं। अब हंस बनाओं। उन्होंने हंसों के राजा से मिलने के लिए कहा। राजा ने पहले तो मिलने में आनाकानी की, लेकिन बाद में मिला। बोला-मैंने तो केवल एक बुगले को हंस बनाने की बात कही थी। आप सबको हंस बनाने की मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है। जिसे मैंने कहा था, वह एक रुक जाए। बाकी बगुले जा सकते हैं। एक को छोड़ सब बगुले मुंह लटकाए अपने तालाब पर वापस आ गए।

तालाब में मछलियां थी नहीं। वापस लौटे बगुलों में बहुत निराशा फैली। उनमें इतना गुस्सा व तनाव था कि एक दिन जबर्दस्त धमाका हुआ और बगुले ही मछलियां बनने लग गए। जैसे ही बगुले मछलियां बने, प्रलय आई और सब ध्वस्त हो गया।

जंगलात हंस, समाज बगुला : कब तक ?


आज के गरीब इस कहानी के बगुले जैसे ही हैं। यहां के गरीबों ने भी कभी राज्य संचालक वर्ग के इशारे पर अपने पेड़ स्वयं ही काटकर उनके पास पहुंचाए थे। अपने पहाड़ों को भी ये खोद-खोद कर उन्हें दे रहे थे। अपने जंगलों के मृत जानवरों की खाल-सींग तक इन्होंने ही उनके घर पहुंचाए थे। दूध, फल, सब्जियां, अनाज… आदि खाने की किसी भी वस्तु की हंस कहलाने वाले राज्य संचालक वर्ग के पास आज कमी नहीं है। पैदा करने वाला प्रायः भूखा ही मर रहा है। लेकिन बगुलों में आज भी हंस बनने का लालच है। इनमें बहुत बहुत ही कम हंसों के वर्ग में पहुंच पाए हैं। अधिकतर मछलियां ही बन रहे हैं या प्रलय इनकी प्रतीक्षा में हैं। ‘मत्स्यबाकुलीकरण कथा’ से कितने लोग सीख पाए हैं?

प्रलय रोकने के नाम पर बनाई गई समितियां आज जो रास्ते खोजती हैं, वे वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखते हुए गरीबों के प्राकृतिक संसाधनों को अपने नियंत्रण में लेने के रास्ते बनाते हैं। अरावली की वनस्पति पहले ही लूटी जा चुकी है। अब केवल कुछ पहाड़ शेष हैं। इन्हें भी गरीबों को रोजगार देने के नाम पर इन्हीं से खुदवा कर लूट रहे हैं। अरावली के पास अभी प्रलय से बचने का समय है। बशर्ते हम वर्तमान राज्य संचालक वर्ग को कह दें-हमें हंस नहीं बनना है। हम जैसे हैं, हमें हमारे हाल पर वैसे ही छोड़ दो। हमारे संसाधनों की लूट बंद कर दो। हम अपने पहाड़ों व जंगलों को खुद बचाकर अपना जीवन जी लेंगे।

जहाजवाली नदी क्षेत्र के लोगों ने एक वक्त यही बात शासन से कह दी थी। सिर्फ कही नहीं, बल्कि अपने संसाधन बचाने में भी लगे रहे। आस-पास के गांवों में भी यह चर्चा जोरों से फैली। ग्रामीणों ने जंगल संरक्षण के इस कार्य के साथ-साथ जल संरक्षण का कार्य भी शुरू कर दिया। गुवाड़ा में सेढ़वाला व देवरी में कारोजवाला जोहड़ - ये दो जोहड़ गांव के श्रमदान व तरुण भारत संघ के आंशिक आर्थिक सहयोग से बनकर तैयार हो गए।

इसी बीच वन विभाग की तरफ से गढ़े गए झूठे मुकदमों का उत्तर देने का समय आ गया। पेशी-तारीखों का दुश्चक्र शुरू हो गया था। भोले-भाले ग्रामीण इजलास के खेल से परेशान हो उठे। वन विभाग ग्रामीणों को उनके सत्य आचरण का मजा चखाने को एकजुट हो गया था। सरिस्का वन विभाग में कार्यरत तत्कालीन रेंजर श्री भोजराज सिंह जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो अपने वनकर्मियों के षडंयंत्र के खिलाफ थे। वह लोगों की मदद करना अपना कर्तव्य समझते थे। उन्होंने षडयंत्रकारी वनकर्मियों द्वारा गांव वालों पर लगाए गए झूठे मुकदमों से गांवों को छुटकारा दिलाकर न्याय का पक्ष लिया था। लोग उन्हें आज भी श्रद्धा से याद करते हैं। कुछ भी हो, वन विभाग के दुश्चक्र से अंततः जहाजवाली नदी क्षेत्र के गांव मजबूत होकर ही निकले।

ऐसे ही कई छोटे-बड़े वाक्यात जहाजवाली नदी को पुनर्जीवित करने की यात्रा कथा में शामिल रहे। अच्छी बात यही रही कि ऐसे कठिन मौकों पर जहाज के गांव न रोये… न चिल्लाए, बल्कि एकजुट होकर दीप जलाने में लग गए।

आज अच्छी - खासी प्राकृतिक समृद्धि हासिल करने के बाद भी जहाज के लोग अपनी टेक भूले नहीं हैं. अब इनकी नदी, जोहड़, धरती, चारागाह, जंगल...इनके प्राण हैं। इनकी रक्षा के लिए ये प्राण-प्रण से ही जुटे हैं। राड़ा गांव का सत्याग्रह इस दिशा में ताजा उदाहरण है।

राड़ा गावं का सत्याग्रह


राड़ा गांव की उत्तर दिशा में शताब्दियों पुरानी एक जोहड़ी है। गांडरवाली जोहड़ी। इस जोहड़ी के आसपास हमारे पूर्वजों ने बहुत सारे पीपल के पेड़ लगाए थे। जब पेड़ बड़े हो गए, तो इस पूरे क्षेत्र को ‘पीपलवनी’ के नाम से जाना जाने लगा। गांव के लोग हमेशा से ही इस पीपलवनी की सुरक्षा करते आ रहे हैं। इस क्षेत्र में पीपल ही नहीं, बल्कि किसी भी किस्म का पेड़ काटने की मनाही है। यह एक तरह से समाज द्वारा संरक्षित वन क्षेत्र है।

इस पीपलवनी और गांडरवाली जोहड़ी की जमीन सरकारी रिकॉर्ड में ‘सिवाए चक’ के रूप में दर्ज थी। आजादी के बाद 60 के दशक में भूमिहीन लोगों को सिवाय चक जमीनों में से आवंटन किया गया। उस समय भी गांव के लोगों ने गांडरवाली जोहड़ी और पीपलवनी की जमीन को किसी के नाम आवंटित नहीं होने दिया था। गांव के लिए उनकी पीपलवनी आस्था के स्थान है।

उन्हीं दिनों सरकार ने यह जमीन भारतीय सेना से सेवानिवृत एक सैनिक के नाम कर दी। वह यहां से सौ किलोमीटर दूर अलवर जिले के ही तसिंग गांव का रहने वाला था। उसका नाम प्रताप सिंह पुत्र श्री दीपसिंह था। चूंकि आवंटन करते समय इस खसरा नम्बर की जमीन को मौके पर जाकर नहीं देखा गया, इसलिए जोहड़ी व पीपलवनी की जमीन आवंटित हो गई। गांव वालों को इस आवंटन की जानकारी नहीं हुई। कुछ वर्षों बाद तसिंग का प्रताप सिंह पुत्र श्री दीपसिंह, अपने नाम आवंटित जमीन को तलाश करता वहां आया। तब गांव वालों को पता चला। गांव वालों ने उसे कब्जा देने से मना कर दिया। कहा कि वह भविष्य में भी कब्जा लेने न आए। इसके बाद वह व्यक्ति वहां कभी नहीं आया। उसने गांव का मान रखा।

करीब 30-40 वर्ष बाद 2006-07 में तसिंग गांव का ही एक और व्यक्ति आया। उसका नाम प्रताप सिंह पुत्र श्री जनक सिंह था। उसने यहां के भू-राजस्व अधिकारी और प्रशासनिक लोगों से सांठ-गांठ करके अपने आप को ही प्रताप सिंह पुत्र श्री दीपसिंह प्रमाणित करा लिया। यह प्रमाणित हो जाने के बाद उसने अधिकारियों से मिलकर किसी बादामी देवी पत्नी श्री राधेश्याम के नाम रजिस्ट्री करा दी। ताकि जब उस जमीन को सच में बेचा जाए, तो किसी प्रकार की कानूनी अड़चन नहीं आए। इस साजिश में यहां के संबंधित अधिकारी भी शामिल थे। गांव वालों ने विरोध किया, तो तहसील के अधिकारी बौखला गए। चूंकि इस साजिश और घपले में ये अधिकारी स्पष्ट रूप से सहभागी थे। उन्होंने गांडरवाली जोहड़ी व पीपलवनी को नष्ट करने व कब्जा करने की धमकी दी। अब तक गांव में संघर्ष की लौ जग चुकी थी। वह घबराया नहीं। यह देखकर प्रताप सिंह ने नया दांव खेला।

उन्होंने बादामी देवी पत्नी श्री राधेश्याम के नाम से बदलकर एक पूंजीपति नीलम सिंह ठाकुर के नाम रजिस्ट्री कर दी। इस सौदे में लाखों का घालमेल हुआ। गांव वालों ने स्थानीय जिला कलेक्टर मुख्यमंत्री तथा प्रधानमंत्री तक इस मसले के हल के लिए गुहार की। कोई संतोषप्रद जवाब नहीं मिला। शायद उन्होंने पहले से ही सब रास्ते साफ कर रखे थे। गांव ने अदालत की भी शरण ली। गांव सत्याग्रह के रास्ते पर भी उतर आया। गांव वालों ने कई दिन तक दिन-रात धरना दिया। इस धरने को वैचारिक समर्थन देने हेतु देशभर के पर्यावरणविद, बुद्धिजीवी तथा आई.ए.एस. प्रशिक्षणार्थी भी यहां आ चुके हैं। अब गांव ने पक्का निश्चय कर लिया है कि वे गांडरवाली जोहड़ी और पीपलवनी को किसी भी प्रकार से उजड़ने नहीं देंगे। यह सत्याग्रह पुस्तक छपने के समय भी जारी है। गांडरवाली जोहरी और पीपलवनी को बचाने के लिए तो गांव प्राण तक न्योछावर करने को आमादा है। गांव को पूरा विश्वास है कि ईश्वर उसके संकल्प को अवश्य पूरा करेगा। काश! शासन को सदबुद्धि आए और सत्याग्रह सफल हो।

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