टिकाऊ कृषि हेतु जल संचयन एवं सिंचाई प्रबंधन में संरक्षित कृषि का योगदान

भारत में खेत में काम करने वाली महिलाएँ (छवि: IWMI फ़्लिकर/हैमिश जॉन एप्पलबी; CC BY-NC-ND 2.0 DEED)
भारत में खेत में काम करने वाली महिलाएँ (छवि: IWMI फ़्लिकर/हैमिश जॉन एप्पलबी; CC BY-NC-ND 2.0 DEED)

वर्तमान में भारत की भौगोलिक स्थिति, परिस्थिति, जलवायु परिवर्तन के साथ जनसंख्या वृद्धि, बढ़ता हुआ औद्योगिकीकरण, शहरों का विस्तार, सड़कों का विकास, संस्थानों की संख्या में वृद्धि एवं बाजारों के प्रसार आदि के कारण कृषि-योग्य भूमि में दिन-प्रतिदिन कमी होती जा रही है। जिसके कारण पोषण सुरक्षा हेतु प्रति व्यक्ति जितना अनाज, सब्जी, फल एवं दूध, प्राप्त होना चाहिए उसकी मात्र अर्धपूर्ति ही हो पा रही है। इसके साथ-साथ कृषि जोत निरंतर कम होने के कारण किसानों का व्यवसाय भी प्रभावित हुआ है जिससे उनकी आय घटी है। परिणामतः ग्रामीण अंचल से लोगों का पलायन हो रहा है जिसके कारण वर्तमान में शहरी जनसंख्या 30% से बढ़कर 40%-45% प्रतिशत तक हो चुकी है और ग्रामीण • जनसंख्या घटकर अब 55%-60% प्रतिशत रह गई है। जबकि स्वतंत्रता के बाद शहरी एवं ग्रामीण आबादी का अनुपात 30%-70% प्रतिशत का था। उपरोक्त कारणों से परम्परागत कृषि, फसलों के उगाने का क्रम एवं फसल चक्रों के साथ-साथ जल संचयन एवं उचित सिंचाई तंत्र प्रभावित हुए हैं। 

परिणामतः तकनीकी युग के बाद भी अभी सिंचित कृषि का क्षेत्रफल 30% से बढ़कर लगभग 40% ही हो पाया है। यही कारण है कि कृषि-योग्य सम्पूर्ण जल के 50%-60% भाग का उपयोग शहरों, संस्थानों, कार्यालयों, एवं अन्य औद्योगिक इकाइयों में हो जाता है। देश के 3290 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल का लगभग 63 प्रतिशत भाग अभी भी वर्षा द्वारा सिंचित किया जाता है। जल संबंधित इन विषम परिस्थितियों में आयवर्धक, टिकाऊ, एवं समृद्ध कृषि तभी संभव होगी जब हम संरक्षित कृषि तकनीक को बढ़ावा दें अर्थात वर्तमान भारतीय परिस्थिति में संरक्षित कृषि ही एकमात्र ऐसी नूतन तकनीक-युक्त कृषि है, जो किसानों के व्यवसाय एवं आय में वृद्धि करने के साथ-साथ जल-संरक्षण एवं सिंचाई क्षमता, दोनों को बढ़ावा देकर हमारे देश के किसानों के टिकाऊ एवं समृद्ध कृषि के सपने को साकार बना सकती है क्योंकि अगर जल की उपयोगिता पर दृष्टि डालें तो जल की उपयोगिता में सतही सिंचाई द्वारा 30%-40%, फुहार सिंचाई द्वारा 40%-50% एवं टपक सिंचाई द्वारा 80%-90% की वृद्धि की जा सकती है और यह संरक्षित कृषि में प्रयोग होने वाला मुख्य घटक है एवं इसके ऊपर अधिक शोध अथवा व्यय की आवश्यकता भी नहीं है। सारणी-1 में भारत में जल संसाधनों की मांग व उपयोग को दर्शाया गया है।

संरक्षित कृषि क्या है और यह कैसे हमारे किसानों को लाभ पहुंचा सकती है? वास्तव में संरक्षित कृषि जल-संरक्षण एवं सिंचाई क्षमता तथा दक्षता दोनों में वृद्धि करती है और कृषि को टिकाऊ एवं समृद्ध बनाती है। जिसका वर्णन आगे किया जा रहा है। संरक्षित कृषि एक ऐसी नवीनतम तकनीक है जिसके अन्तर्गत विविध प्रकार की संरचनाएं एवं आच्छादित करने वाली सामग्रियां होती हैं। जिसके द्वारा कृषि करने पर सिंचाई हेतु फसलों के लिए न्यायपूर्ण, उचित एवं न्यूनतम जल की आवश्यकता होती है। तकनीक के प्रयोग से प्राकृतिक एवं जैविक दोनों प्रकार के प्रकोपों से संरक्षण प्राप्त होता है। इसलिए इसे हम वैज्ञानिक बोलचाल की भाषा में संरक्षित कृषि कहते हैं, क्योंकि यह फसलों एवं जल दोनों को संरक्षित करती है।

संरक्षित कृषि के अंतर्गत विविध प्रकार की संरचनाएंः जैसे ग्लासहाउस, पॉलीहाउस, नेटहाउस, प्लास्टिक मल्चिंग, लो-टनल आदि आती हैं। इन संरचनाओं का नाम उनके निर्माण में प्रयोग होने वाली या उन्हें आच्छादित करने वाली प्लास्टिक सामग्री के नाम पर रखा गया है, इन सभी संरचनाओं का अलग-2 कार्य सिद्धान्त है, जो कि अपनी आच्छादित सामग्री के अनुसार कार्य करते हैं। जिसका वर्णन आगे किया जा रहा है।


संरक्षित संरचनाओं में यदि पॉलीहाउस की बात करें तो पॉलीहाउस 200 माइक्रोन वाली पारदर्शी पॉलीथीन द्वारा बनाया जाता है। जिसकी पारदर्शिता प्रथम वर्ष में लगभग 90% तक होती है। फिर धीरे-2 घटकर 70%-80% हो जाती है। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि पॉलीहाउस के अंदर जो सूर्य का प्रकाश जाता है, वह पराबैंगनी किरणों के बगैर छन कर जाता है। जिसके कारण फसलों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। परन्तु सूर्य के प्रकाश की इस घटी मात्रा के कारण वाष्पीकरण, प्रकाश संश्लेषण एवं श्वसन क्रिया द्वारा उपयोग किये जाने वाले जल एवं आर्द्रता का हास बाहर की अपेक्षा लगभग 20%-25% कम होता है। दूसरे पॉलीहाउस संरचनाओं के चारों तरफ से बंद होने के कारण तेज हवाओं के आदान-प्रदान का प्रभाव आंतरिक भाग में बिलकुल नहीं पड़ता है। जिसके कारण भूमि की आर्द्रता का हास भी 15%-20% कम होता है। तीसरे पॉलीहाउस के अंदर होने वाली कृषि के अंतर्गत टपक सिंचाई एवं फुहार तंत्र दोनों लगे होते हैं जिसके माध्यम से औसतन 50%-60% जल की बचत हो सकती है। जबकि खुले खेतों में बहाव सिंचाई के कारण जल का अत्यधिक अपव्यय होता है। इसलिए पॉलीहाउस में भूमि-आर्द्रता संरक्षण एवं सिंचाई तकनीकों में सुधार करके सिंचाई की संख्या में कमी ला सकते हैं। इस प्रकार हम जल की बचत करते हुए कम जल द्वारा पूरे फसल जीवन काल में सिंचाई करके जल संचयन तथा जल गुणवत्ता एवं दक्षता में वृद्धि कर सकते हैं।

 नेट-हाउस 

यदि नेटहाउस की बात करें तो हमारे देश में दो रंगों एवं विविध क्षमता वाली छायादार जालियां बाजारों में उपलब्ध हैं। इन छायादार जालियों की यह भूमिका होती है कि इनका प्रयोग गर्मियों में, तेज धूप एवं लू आदि से बचाव हेतु किया जाता है। उसके साथ-2 जो फसल छाया में उत्पादित होने वाली होती है उनका उत्पादन किया जाता है। इस जाली की विशेषता यह होती है कि इसमें सूर्य की रोशनी को वापस करने या रोकने की क्षमता होती है। जैसे 30%, 50% या 75% क्षमता वाली जाली हर बाजार में उपलब्ध है। इस जाली में इस प्रकार की गुणवत्ता होती है कि इसमें जितने प्रतिशत क्षमता वाली जाली होती है। उतने प्रतिशत सूर्य की रोशनी को अन्दर नहीं आने देती और पराबैंगनी किरणों को भी रोकती है। जिसके कारण शीतलन और छाया का प्रभाव अन्दर लगाई गई फसलों में बना रहता है। परिणामतः भूमि की आर्द्रता लम्बे समय तक संरक्षित रहती है जिसके कारण जल संरक्षण में वृद्धि एवं सिंचाई की संख्या में कमी होती है। इसके साथ-साथ इस संरचना में टपक सिंचाई या फुहार सिंचाई तंत्र लगाया जाता है जिससे छायादार जालीघर के अंदर लगभग 50-60 प्रतिशत अतिरिक्त जल की बचत होती है। जबकि खुले खेतों में खेती करने पर अत्यधिक जल का हास होता है और सिंचाई बार-बार करनी पड़ती है। जिससे श्रमिकों का खर्च भी बढ़ जाता है।

लो-टनल

संरक्षित कृषि के अंतर्गत आने वाली लो-टनल, हाईटनल, संरचना द्वारा भी उपरोक्त संरचनाओं की तरह सिंचाई संख्या में कमी, भूमि की आर्द्रता को लम्बे समय तक बनाए रखने तथा इसके अन्दर लगे टपक सिंचाई संयंत्र द्वारा भी 50-60 प्रतिशत से ज्यादा जल की बचत की जा सकती है। लो-टनल का मुख्य उपयोग, फसलों को अगेती खेती द्वारा किसानों को अधिक लाभ प्रदान करना है साथ ही कम सिंचाई एवं लागत में इसका उत्पादन किया जा सकता हैं। टपक सिंचाई के साथ इसमें सिंचित जल व भूमि आर्द्रता में 60%-70% तक की बचत की जा सकती है। किसान इसको कम लागत व समय में जी.आई. तार व बांस की खपचियों की सहायता से सहज ही लगा सकते हैं। इसमें 20-30 माइक्रोन वाली पारदर्शी पॉलीथीन का उपयोग किया जाता है।

मल्चिंग

संरक्षित कृषि के अंतर्गत आने वाली प्लास्टिक पलवार (मल्चिंग) का उपयोग जब फसलों को उगाने हेतु किया जाता है तो इस तकनीक के द्वारा भी लगभग 30%-40% जल की बचत होती है क्योंकि प्लास्टिक मल्च भूमि की सतह पर जब बिछा दी जाती है और वर्षा जल या टपक सिंचाई का जल इसके अन्दर एक बार चला जाता है तो भूमि के अन्दर संरक्षित कृषि के अन्तर्गत आर्द्रता लम्बे समय तक बनी रहती है जिससे पौधे अपना भोजन भूमि की आर्द्रता की उपस्थिति में लगातार बनाते रहते हैं। इसके साथ-साथ प्लास्टिक मल्व लगाने के बाद खेतों एवं क्यारियों में खरपतवार नहीं उगते हैं जिसके कारण फसलों एवं खरपतवारों दोनों के बीच जल, नमी एवं पोषक तत्वों के प्रति जो प्रतिस्पर्धा होती है वह बहुत ही कम हो जाती है क्योंकि प्लास्टिक मल्च सामान्यतः काले रंगों वाली होती हैं और प्रायः 30-50 माइक्रोन मोटाई वाली पॉलीथिन, कृषि हेतु उपयोग में लाई जाती है। काले रंगों के कारण भूमि की सतह पर सूर्य की किरणें नहीं पहुंच पाती हैं जिसके कारण भूमि सतह से वाष्पीकरण क्रिया नहीं हो पाती है जिससे भूमि की आर्द्रता लम्बे समय तक बनी रहती है। परिणामतः सिंचाई जल की बचत एवं जल संरक्षण दोनों संभव होते हैं। मल्चिंग के कारण भूमि सतह पर वायु का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जिसके कारण भी भूमि की आर्द्रता लम्बे समय तक बनी रहती है। परम्परागत कृषि में भूमि सतह के खुले रहने पर प्रत्यक्ष रूप से सूर्य का प्रकाश एवं वायु दोनों मिलकर, संग्रहित सिंचाई युक्त जल को एवं सिंचाई के बाद भूमि की आर्द्रता दोनों को वाष्पीकरण क्रिया के कारण हानि पहुंचाती रहती हैं। जिसके कारण सिंचाई जल व भूमि आर्द्रता की पर्याप्त बचत नहीं होती है।

सामान्यतः मल्चिंग तकनीक के साथ टपक सिंचाई का संयुक्त रूप से उपयोग किया जाता है तथा दोनों के मिश्रित संयोजन से लगभग 60%-70% सिंचाई जल की बचत की जा सकती है।

यह तकनीक हमारे देश में टिकाऊ खेती के लिए मील का पत्थर साबित हो रही है और इस तकनीक के सहयोग से देश के सिंचित क्षेत्रफल में लगभग 10%-15% तक की वृद्धि की जा सकती है। जिससे हमारी कृषि को टिकाऊ, आयवर्धक, व्यवसायिक एवं समृद्ध बनाने के साथ-साथ "पर ड्राप मोर क्रॉप" का जो नारा प्रधानमन्त्री सिंचाई योजना के अन्तर्गत दिया गया है, उसको साकार बनाने में संरक्षित कृषि एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान कर सकती है। वर्तमान में किसानों द्वारा लगभग सम्पूर्ण देश में 50-60 हजार हैक्टेयर भूमि में संरक्षित कृषि को अपनाकर जल संरक्षण के साथ-साथ, किसानों के लिए माननीय प्रधानमंत्री जी के दोगुना आय के सपने को साकार करने का कार्य भी किया जा रहा है। यदि हम संरक्षित कृषि का आंकलन करें तो सामान्य कृषि की तुलना में फसलों के उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता तीनों में लगभग 3-4 गुना अधिक वृद्धि होती है। संरक्षित कृषि में मूल्यवान फसलों, उदाहरणार्थ, लता स्वभावी टमाटर, चैरी टमाटर, अंग्रेजी खीरा, करेला, खरबूजा, ककड़ी, कट्टू व शिमला मिर्च के अतिरिक्त, फलों जैसे; स्ट्राबेरी व पपीता तथा फूलों जैसे; गुलाब, जर्बेरा, इत्यादि की खेती की जाती है। संरक्षित कृषि में स्वस्थ नर्सरी उत्पादन की बहुत अधिक महत्ता है, एवं इसका उपयोग छोटे आयवर्गीय किसानों के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकता है। संरक्षित कृषि के अंतर्गत जैविक व अजैविक कारकों से होने वाली हानि से संरक्षण व फसल की आवश्यकतानुसार परिस्थितियां प्राप्त होने के कारण उच्च उत्पादन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त जल में घुलनशील पोषक तत्वों व अन्य स्रोतों का न्यायोचित प्रयोग इस तकनीक को खेती के संबंध में परिशुद्ध, टिकाऊ व किसानों के लिए उपयोगी बनाता है।

संरक्षित कृषि तकनीक के अंतर्गत टपक सिंचाई तकनीक एवं फुहार तकनीक का सम्मिश्रण होता है। जिसके कारण संरक्षित कृषि के माध्यम से जल-संचयन को प्रोत्साहन देते हुए 100% जल के स्थान पर 30%-40% जल द्वारा ही लम्बे समय तक टिकाऊ एवं समृद्ध कृषि को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। इस समय देश में लगभग 695 लाख हेक्टेयर क्षेत्र सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के अंतर्गत आच्छादित है जिसमें से 270 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र टपक सिंचाई पद्धति के अंतर्गत आता है।

भारत में अभी भी 60% कृषि वर्षा पर आधारित होती है। अतः वर्षा पर आश्रित कृषि क्षेत्रों में टिकाऊ एवं समृद्ध खेती करना, किसानों की आय तथा संरक्षित खेती को बढ़ावा देना, वास्तव में असंभव तथा सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। इसलिए ऐसे क्षेत्रों में पॉलिथीन लाइनिंग के जल संरक्षण टैंकों को निर्मित कर वर्षा के जल को इन टैकों में भंडारित करके जल संचय किया जाये और इस जल की उपयोग क्षमता को और अधिक बढ़ाने हेतु टपक सिंचाई एवं फुहार सिंचाई का उपयोग करें, तो हम असिंचित क्षेत्रों को भी सिंचित क्षेत्र में परिवर्तित करके किसानों की आय को दुगना कर सकते हैं। 

पॉलीथिन लाईनिंग वाला जल संचयन टैंक बनाने में औसतन कुल व्यय 125-150 रू. प्रति वर्ग मीटर आता है। अर्थात यदि आप 50,000 घन लीटर पानी संचयन करने वाली क्षमता का टैंक बनाना चाहते हैं तो उसकी कुल लागत रू. 6250-7500 तक आ सकती है जो कि किसानों के लिए बहुत सस्ती एवं टिकाऊ है क्योंकि इन्हें सीमेंट से बनाने पर ये बहुत महंगे पड़ते हैं और यह टैंक लगभग 2-3 वर्षों के अन्दर ही वायुमंडलीय दबाव व भूकम्प के कारण टूट या फटकर खराब हो जाते हैं जिसके कारण किसानों का बहुत अधिक नुकसान होता है।

भारतीय जलवायु में संरक्षित कृषि की अपार संभावनाएं हैं, जो कि हमारे देश के किसानों को विश्व के अन्य देशों में व्यवसाय का अवसर प्रदान करके उनके सम्मान में वृद्धि कर सकती हैं। संरक्षित कृषि तकनीक के प्रोत्साहन हेतु, किसानों को राहत प्रदान करने के लिए, केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से 50%-80% तक का अनुदान भी प्रदान किया जाता है। इस प्रकार जल-संचयन एवं आय दोनों में वृद्धि हेतु संरक्षित कृषि, कृषि क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम है।


सम्पर्क करेंः डॉ. अवनि कुमार सिंह एवं भावना सिहं संरक्षित कृषि प्रौद्योगिकी केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (पूसा),
नई दिल्ली-110 0012
ई-मेल: singhawani5@gmail.com


 

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Post By: Kesar Singh
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