सूखे में मुकाबला कर फिर से शुरू की खेती

सूखे ने किसानों के समक्ष भुखमरी की स्थिति पैदा की और लोगों को पलायन हेतु मजबूर किया, पर यह भी समस्या का स्थाई समाधान नहीं था, तब लोगों ने पुनः अपनी परंपरागत खेती की और वापसी की।

संदर्भ


बुंदेलखंड क्षेत्र में पिछले 5 वर्षों से पड़ रहे सूखे की वजह से सबसे बड़ा संकट खेती किसानी के समक्ष खड़ा हुआ है। फसल की बुवाई के पश्चात् उसकी लागत भी वापस मिलने की गारंटी नहीं है। वर्षा की कमी, सिंचाई के लिए पानी की अनुपलब्धता एवं परिणाम के तौर पर पशुचारे व पीने के पानी का अभाव इन सबने मिलकर बुंदेलखंड के किसानों के सामने आजीविका का गहरा संकट उत्पन्न कर दिया है। ऐसे में परिवार के भरण-पोषण हेतु इन्हें अन्य शहरों की ओर पलायन भी करना पड़ा

। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों से लड़ने हेतु लोगों ने अपनी परंपरागत खेती तकनीक एवं खेती की जैविक विधि को अपनाना प्रारम्भ किया, जिसने बहुत हद तक समस्याओं को कम करने में मदद की। इस पूरी प्रक्रिया को ग्राम तजपुरा के किसान श्री अजानसिंह की ज़ुबानी बेहतर ढंग से सुनी जा सकती है।

पारिवारिक पृष्ठभूमि


ग्राम तजपुरा, विकास खंड माधोगढ़ के रहने वाले 43 वर्षीय श्री अजानसिंह पुत्र श्री दीनदयाल सिंह के परिवार में 7 सदस्य हैं। इनके पास ढाई बीघा सिंचित ज़मीन है। परिवार की आजीविका का मुख्य स्रोत खेती किसानी ही है। समस्याओं से जूझते श्री सिंह ने बताया कि वर्ष 2004 में मैंने पहली बार अपने खेत में सब्जी की खेती प्रारम्भ की, जिसके लिए गांव के ही साहूकार से 5 प्रतिशत मासिक ब्याज की दर से रु. 15,000.00 कर्ज लिया। रासायनिक खाद, बीज, कीटनाशक तथा सिंचाई के तौर पर खेती में लागत आयी रु. 20,000.00। परंतु सूखे के कारण पूरी खेती बर्बाद हो गई। मुनाफ़ा को कौन कहे, लागत भी डूब गई, कर्ज व ब्याज चढ़ा सो अलग। इन विकट स्थितियों से जूझने के दौरान मुझे सर्वाधिक उपयुक्त विकल्प पलायन ही लगा, पर वह भी मुझे स्थितियों से उबार नहीं सका। तब मैंने जैविक खेती अर्थात् अपनी परंपरागत खेती पर ध्यान दिया और तदनुरूप खेती प्रारम्भ की। खेती में बदलाव की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार है-

नर्सरी


सबसे पहले हमने सब्जियों की नर्सरी तैयार की, जिसके लिए 6 मीटर लम्बाई व 3 मीटर चौड़ाई के बेड पर नर्सरी डालते हैं, जो 21 दिनों में रोपाई हेतु तैयार हो जाती है। नर्सरी में हम मूली, मेथी, पालक, आलू, प्याज, फूलगोभी, मिर्च, बैगन, धनिया, टमाटर, गाजर, बंदगोभी आदि पौधों को तैयार करते हैं।

वर्मी कम्पोस्ट पिट


तत्पश्चात् खेती में लागत कम करने के उद्देश्य से हमने जैविक खाद बनाने की शुरुआत की। इसके लिए हमने अपने खेत के पास पड़ी बेकार भूमि में वर्मी कम्पोस्ट पिट बनाया और उसमें तैयार हुई खाद को अपने खेत में प्रयोग किया। इससे एक तो हमारी लागत बहुत कम हुई, दूसरे हमारी फसल का उत्पादन भी दुगुना हुआ। वर्मी कम्पोस्ट पिट का आकार निम्नवत् है – 3 मीटर लम्बाई व 1 मीटर चौड़ाई।

वर्मी कम्पोस्ट बनाने में कुल लागत रु. 1800.00 आई, जिसमें से रु. 800.00 संस्था की तरफ से अनुदान मिला तथा रु. 1000.00 हमने स्वयं का लगाया। शुरू में हमने 50.00 रु. की दर से आधा किग्रा. केंचुआ डाला था। अब हमारे पास 10 किग्रा. केंचुए तैयार हो गए हैं।

एक बार डाली गई खाद तैयार होने में 2 माह का समय लेती है। ऐसी परिस्थिति में हमारे खेतों को नियमित रूप से खाद मिलती रहे, इसके लिए हमने पिट को दो भागों में बांट दिया है। जिससे एक भाग में तैयार खाद का जब तक इस्तेमाल करते हैं, तब तक दूसरे भाग में डाली गई सामग्रियों से खाद तैयार हो जाती है।

लाभ


सबसे पहला और बड़ा लाभ तो यह हुआ कि खेती की लागत कम हुई है। पहले समान क्षेत्रफल वाले खेत में जहां हमारी लागत रु. 20,000.00 लगती थी, वहीं जैविक खाद का प्रयोग करने के उपरांत लागत आधा हो गयी अर्थात् रु. 11,750.00 ही लागत के तौर पर लगता है।

30 से 40 दिन में एक फसल तैयार हो जाती है।
साल भर में 20 हजार रुपये कमा लेते हैं।
एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) तकनीक से सुग्गा, रो व मकड़ी कीट खत्म हो जाते हैं।
जैविक खाद द्वारा भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ी है, फ़सलों का रंग-रूप बेहतर हुआ है व स्वाद बढ़ा है।
मटका खाद (मट्ठा, नीम की पत्ती सड़ा कर) इनका इस्तेमाल करने से फ़सलों में रोग का प्रकोप कम हुआ है।



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