झाबुआ, 1980 के दशक का उत्तरार्द्ध। मध्य प्रदेश के इस आदिवासी, पहाड़ी जिले की सतह चंद्रमा जैसी चट्टानी और बंजर नजर आती थी। मेरे चारों तरफ सिर्फ भूरे रंग की पहाड़ियाँ ही थीं। दूर-दूर तक पानी का कोई नामो-निशान नहीं था। किसी के पास कोई काम नहीं था। हर तरफ सिर्फ निराशा का वातावरण था। मुझे अभी तक धूल भरे सड़कों के किनारे, दुबक कर बैठे, पत्थर तोड़ते लोगों के दृश्य याद हैं।
चिलचिलाती धूप में हर साल क्षतिग्रस्त होने वाली सड़कों की मरम्मत का काम। पेड़ों के लिये ऐसे गड्ढों की खुदाई, जो कभी बचते नहीं थे। दीवारों का निर्माण जिनके ओर-छोर का कुछ पता नहीं था। यही थी सूखा राहत की असलियत। ये सब अनुत्पादक काम थे, लेकिन ऐसे संकट के समय में लोगों को जिंदा रहने के लिये यही सब करना पड़ता था।
यह भी स्पष्ट था कि सूखे का प्रभाव व्यापक और दीर्घकालिक होता है। उसने मवेशियों की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी थी और लोगों को कर्ज के बोझ तले दबा दिया। एक गम्भीर सूखा बरसों तक विकास के काम को बाधित कर देता था।
देश एक बार फिर गम्भीर सूखे की समस्या से जूझ रहा है। लेकिन यह सूखा कुछ अलग है। 1990 के दशक में जो सूखा पड़ा था, तब भारत एक गरीब देश था।
2016 का यह सूखा समृद्ध और पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाले भारत का है। यह वर्गहीन सूखा एक ऐसा संकट है जो अधिक गंभीर है और इससे निपटने के लिये ऐसे समाधानों की जरूरत है जो अधिक जटिल और प्रभावकारी हों।
सूखे की गंभीरता और तीव्रता का सम्बन्ध वर्षा की कमी से नहीं, बल्कि यह योजना तथा दूरदर्शिता की कमी और आपराधिक उपेक्षा से है। सूखा मानव-निर्मित है। इस बात को स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है।
जून 1992 में, डाउन टू अर्थ ने सूखे की स्थिति पर संपादक अनिल अग्रवाल और सहयोगियों का एक लेख प्रकाशित किया था। उनके विश्लेषण के अनुसार जब भारत का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में था, मौसम सम्बन्धी सरकारी लेखे-जोखे के अनुसार वह लगभग सामान्य वर्ष था। उन्होंने तर्क दिया कि जब तक हम फिर से वर्षा बूँदों के प्रबंधन की सहस्रों वर्ष पुरानी कला नहीं सीख लेते, सूखा यहाँ हमेशा के लिये रहने वाला है।
जल संचयन और भूजल पुनर्भरण के लिये लाखों जल निकायों का प्रयोग करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में, जब सूखे ने फिर से अपना विकराल रूप धारण किया, तो डाउन टू अर्थ ने पता लगाया कि किस प्रकार कुछ गाँवों ने समझदारी से जल प्रबंधन करते हुए इस मुश्किल वक्त का सामना किया। यह ऐसी सीख थी जिसने राजनेताओं को अपने राज्यों में जल संग्रहण कार्यक्रमों की शुरूआत करने को प्रेरित किया।
हालाँकि, जल संरक्षण के पुनर्निर्माण का यह प्रयास इसे दुरुस्त करने के अवसर के बावजूद अगले दशकों में बर्बाद कर दिया गया। बारिश हो रही थी, पानी की कमी के बरस घट गए थे और जल सम्बन्धी ढाँचों के निर्माण के लिये सरकारी कार्यक्रम बना लिये गए थे।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत लाखों रोधक बाँध, तालाब और अन्य संरचनाओं का निर्माण किया गया। लेकिन इसका इरादा सूखे से उबरने का नहीं, बल्कि केवल रोजगार प्रदान करना होने के कारण इस श्रम का प्रभाव देश के जल संचय में नजर नहीं आया।
संरचनाओं को इस तरह से डिजाइन नहीं किया गया जिससे कि वह जल संधारण के लिये उपयुक्त हों। ज्यादातर मामलों में जमीन के वे गड्ढे अगले मौसम तक मिट्टी से भर गए।
लेकिन आज पानी के लिये निराशा का यह एकमात्र कारण नहीं है। भारत इन दशकों में समृद्ध हुआ है। इसका मतलब है कि आज पानी के लिये माँग अधिक और बचत के लिये उपलब्धता कम है।
फिर भी सरकार के पास सूखे से निपटने के लिये ऐसी कोई संहिता नहीं है जो इस स्थिति को संभाल सके। पहले जमाने में, जब सूखा पड़ता था, तो ब्रिटिश शासन द्वारा डिजाइन की गई सूखे की संहिता लागू होती थी।
इसका मतलब यह है कि स्थानीय प्रशासन पीने के पानी के लिये माँग करेगा; जानवरों के लिये चारा लम्बी दूरी से प्राप्त किया जाएगा, पशुधन शिविर खोले जाएंगे और भोजन के लिये काम कार्यक्रम शुरू किए जाएँगे। इसका उद्देश्य विपदा की रोकथाम और जहाँ तक संभव हो, संकट के समय में शहरों की ओर पलायन को रोकना था।
लेकिन यह संहिता पुरानी हो चुकी है। पानी की माँग कई गुना बढ़ गई है। आज, शहरी उपभोग के लिये मीलों दूर से पानी खींचकर लाया जाता है। बिजली संयंत्रों सहित उद्योग, जहाँ से भी हो और जितना हो सके, पानी ले लेते हैं।
उनके द्वारा इस्तेमाल किया गया पानी मल-जल या अपशिष्ट के रूप में वापस आता है। फिर किसान गन्ने से लेकर केले तक वाणिज्यिक फसलें उगाने लगे हैं। वे सिंचाई के लिये पानी निकालने को जमीन में गहरी से गहरी खुदाई करते हैं। उनके पास यह बताने का कोई तरीका नहीं होता कि कब इन सबका अंत होगा। जब ट्यूबवेल सूख जाते हैं, तभी उनको अपनी गलतियों का अहसास होता है।
समृद्ध भारत के इस आधुनिक सूखे को, एक और परिणाम से जोड़ना होगाः जलवायु परिवर्तन। तथ्यों पर गौर करें तो, इन दिनों बारिश अधिक अस्थिर, बेमौसम और भीषण हो गई है। केवल यही इस संकट को और भी गंभीर बना देगा। वक्त आ गया है कि अब हम समझने की कोशिश करें कि यह सूखा मानव-निर्मित है, इसलिए हम उसे पलट सकते हैं। ऐसा करने के लिये हमें निश्चित तौर पर अपने प्रयासों को सुदृढ़ करना होगाः
सबसे पहले, हमें जल संसाधनों के संवर्द्धन के लिये वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं। जैसे कि पानी की हर बूँद को संभालना, उसे संचित करना और भूजल का पुनर्भरण करना। ऐसा करने के लिये हमें लाखों और संरचनाओं के निर्माण की जरूरत पड़ेगी। लेकिन इस बार यह न सिर्फ रोजगार के लिये, बल्कि जल योजना पर आधारित हो।
मतलब यह है कि इसे सोच समझकर और उद्देश्यपूर्ण तरीके से करना होगा। इसका मतलब यह भी है कि लोगों को जलाशयों का स्थान तय करने और उसे उनकी जरूरतों के हिसाब से संचालित करने का अधिकार देना होगा। आज, जाहिर है, भूमि जिस पर जलाशय का निर्माण किया गया है।
वह एक विभाग के अंतर्गत आता है और वह भूमि जहाँ से पानी की उत्पत्ति होगी, किसी अन्य विभाग के अंतर्गत आता है। इस योजना में कोई ताल-मेल नहीं है। फिलहाल एकत्रित करने के लिये पानी नहीं है। इस सूखे के दौरान जो रोजगार दिए जाएंगे, उसका उपयोग अगले सूखे को ध्यान में रखते हुए जल संभरण इकाइयों के निर्माण के लिये होना चाहिए।
दूसरे, सूखे की संहिता को संशोधित और अप टू डेट करना होगा। ऐसा नहीं है कि दुनिया के समृद्ध भू-भागों में सूखा नहीं पड़ता है। ऑस्ट्रेलिया और कैलिफोर्निया बरसों पानी की कमी से गुजर चुके हैं। लेकिन उनकी सरकारें लॉन में पानी देने से लेकर कार धोने तक, सभी गैर जरूरी उपयोग को प्रतिबंधित कर देती हैं। भारत में भी इसी तरह के कदम उठाने की जरूरत है।
तीसरे, हर समय जल संरक्षण के लिये जुनून के साथ काम करना होगा। इसका मतलब है रोजमर्रा के उपयोग के लिये जल संहिताओं पर जोर देना। हमें उद्योग से लेकर कृषि तक सभी क्षेत्रों में पानी के उपयोग को कम करने की जरूरत है।
यानि पानी के उपयोग की बेंचमार्किंग और प्रतिवर्ष खपत कम करने के लिये लक्ष्य निर्धारित करना होगा। अर्थात जल-कुशल उपकरणों के प्रवर्तन से लेकर जल-मितव्ययी खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने तक हर संभव प्रयास करना होगा। सूखे के खिलाफ हमारे संघर्ष को स्थायी बनाना होगा, तभी सूखे को स्थायी होने से रोका जा सकेगा।
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