जिस प्रकार किसी उद्योग में प्रक्रियाओं के क्रमों को निर्धारित करना आवश्यक है, उसी प्रकार सफाई के कार्यक्रमों को कई हिस्सों में विभाजित करना आवश्यक है। इसका क्रम निम्नांकित होगाः
1. औजार आदि साधनों का चुनाव तथा उनकी यथायोग्य व्यवस्था करना,
2. सफाई के काम की योजना बनाना,
3. काम का आसन
4. काम से निकले कच्चे माल को एकत्र करना,
5. कच्चे माल की किस्म के अनुसार छँटाई करना,
6. विभिन्न प्रकार के माल को अपनी उपयोगिता के स्थान पर पहुँचाना,
7. कच्चे माल से उपयोगी माल बनाना,
8. प्रक्रियाओं का लेखा तैयार करना और
9. काम की जाँच।
पहले कहा गया है कि सफाई एक उद्योग यानी कारीगरी है। और साथ ही कला भी। हर उद्योग और कला के लिए साधन इकट्ठा करना पड़ता है। कोई भी कारीगर या कलाकार काम करने के पहले अपने अनुकूल औजार देखता है। सोचता है कि जिनसे काम करना है, वे औजार बेकाम तो नहीं है। अगर ठीक नहीं होते हैं, तो वह उन्हें पहले तेज करता है तथा ठीक-ठाक कर अथवा धो-धाकर काम लायक बनाता है। फिर जब उसे संतोष हो जाता है कि उसका औजार काम करने लायक है, तब वह काम शुरू करता है। अतः सफाई करनेवालों के लिए औजार प्रथम महत्व की चीज है। यह ध्यान रखा जाय कि विभिन्न स्थानों और परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के औजार चुनना जरूरी होता है। हो सकता है कि किसी एक जगह कोई चीज अधिक उपलब्ध हो और दूसरी जगह दूसरी। वस्तुतः शिक्षक को इस विषय के सिद्धांत से परिचित होना चाहिए। प्रायः देखा गया है कि शिक्षक और विद्यार्थी ‘लकीर के फकीर’ होते हैं। मध्यप्रदेश के सीखे विद्यार्थी अपने विद्यालय में जिस औजार और साधन का प्रयोग करते रहे हों, कोई जरूरी नहीं है कि पर्वतीय प्रदेश में भी उसी से काम लिया जाय अथवा बंगाल में भी बाध्य किया जाय। कहीं नारियल के झाड़ू, कहीं खजूर के और कहीं काँस के मिलते हैं। अतः हर जगह के विद्यार्थी को अपने क्षेत्र का अध्ययन करके वहाँ की स्थिति के अनुसार साधन जुटाने की चेष्टा करनी चाहिए। मूल सिद्धान्त यह है कि साधन स्थानीय परिस्थिति में सुलभ हो। जहाँ तक हो सके, वह स्थानीय रूप से उपयोग में आनेवाला हो। उसके उपयोग से कार्य की पूर्णता के साथ-साथ श्रम और खर्च की बचत होनी चाहिए।
उक्त सिद्धान्त को सामने रखते हुए ही औजार आदि साधनों का प्रबन्ध करना चाहिए। औजार चुनने के बाद उसकी व्यवस्था का प्रश्न आता है। कई औजार ढंग से न रखने तथा इधर-उधर डाल देने से खराब हो जाते हैं। अतः जिस जगह औजार और साधन रखे जायँ, उस जगह का साज-सरंजाम भी उसी ढंग का होना चाहिए, जिससे वे ठीक ढंग से रखे जा सकें।
औजार रखने के ढंग भी निश्चित होने चाहिए। जैसे झाड़ुओं को दीवाल या और किसी स्थान पर अटकाकर या उसका निम्न भाग नीचे और सिरा ऊपर होना चाहिए, ताकि गिरकर टूटने का भय न हो। इस तरह सभी औजारों के रखने की जगह और विधि बैठा लेनी चाहिए। इसके अलावा उपयोग करते समय यह देख लेना चाहिए कि उसकी तैयारी ठीक है या नहीं। अगर न हो, तो ठीक करके ही उसका उपयोग करना चाहिए।
प्रायः देखा जाता है कि लोग जैसे-तैसे औजारों से सफाई करते हैं। फल यह होता है कि केवल सफाई का ही काम अधूरा नहीं रहता बल्कि श्रम और सम्पत्ति भी बरबाद होती है। कमरे साफ करने के लिए नरम और भरे हुए झाड़ू की आवश्यकता है। सड़कें और मैदान साफ करने के लिए सख्त और छिछले झाड़ू की आवश्यकता है। उसी प्रकार गली-सफाई के लिए पतले, सख्त और गुठे हुए झाड़ू की आवश्यकता है। लेकिन लोग इन चीजों पर ध्यान नहीं देते। अतः कमरे में झाड़ू देते समय ही धूल उड़कर साफ जगह जा बैठती है और कमरा फिर गन्दा हो जाता है। सड़कें और मैदान नरम झाड़ू से साफ करने से झाड़ू भी खराब हो जाती है, साथी ही बहुत कूड़ा जहाँ-का तहाँ ही रह जाता है। नालियों, को मामूली झाड़ू से साफ करना तो आम बात है। नतीजा यह होता है कि ऊपर का पानी और गन्दगी साफ हो जाने पर भी सतह की काई और कीचड़ पड़े ही रह जाते हैं। साफ करने में जो विशेष मेहनत लगती है, वह तो अलग से नुकसान की बात होती है।
औजार काम के लायक होने पर भी उसका ठीक से उपयोग न करने से हानि हो जाती है। प्रायः देखा जाता है कि झाड़ू घिसकर नाटी न होकर झड़कर पतली हो जाती है, क्योंकि इस्तेमाल से पहले लोग उसे ठीक से बाँध नहीं लेते हैं। उसी तरह मैदान और सड़क पर झाड़ू देते समय खड़े होकर झाड़ू न देकर श्रम, शक्ति, समय और स्वास्थ्य का नुकसान करते हैं। अक्सर आधे झुककर झाड़ू देकर स्वास्थ्य को बरबाद करते हैं। फिर हवा की विपरीत दिशा में चलकर सफाई करने वाले प्रायः धूल और मिट्टी के शिकार होते हैं। इस तह औजार के चुनाव, उसकी सजावट तथा व्यवस्था और प्रयोग करने के ढंग की ओर पूरा ध्यान न देने से काफी नुकसान उठाना पड़ता है। अतः सफाई करने- वालों को इन चीजों की ओर काफी ध्यान देना चाहिए। औजारों के अलावा दूसरे सामान भी महत्व के हैं। घर, द्वार, रसोईघर आदि लीपने के लिए गोबर, मिट्टी या दूसरे साधनों को किस अनुपात और किस परिमाण में प्रयोग करना है- इसका पूरा ज्ञान और ध्यान होना जरूरी है। अन्यथा सामान की बरबादी के साथ-साथ श्रम और समय का नुकसान होता है और सफाई का उद्देश्य भी पूरा नहीं हो पाता। अनुपात और परिमाण पर विचार करने के साथ-साथ मौसम आदि पर भी ध्यान न देने से नुकसान होता है। उसी प्रकार बरतन साफ करने के लिए राख, मिट्टी, बालू आदि साधनों का परिमाण और अनुपात आदि ऐसा होना चाहिए, जिससे बर्तनों की चिकनाहट तो दूर हो, लेकिन घिसाई कम हो, प्रायः यह देखा जाता है कि लोग इस दिशा में कुछ भी विचार नहीं करते और हानि उठाते हैं।
इसी तरह टट्टी और पेशाब के साधनों के बारे में लोग गलती करते है। यह गलती वैज्ञानिक और व्यावहारिक, दोनों ही दृष्टि से होती है। टट्टी पर सूखी और बारीक मिट्टी न डालकर ढेला ही डाल देने या गीली मिट्टी डाल देने से हानि होती है। बिना वनस्पति मिली मिट्टी डालना, पेशाब में बिना पानी मिलाये वैसे ही खेत में छोड़ देना या वनस्पति की मिश्रित खाद में पानी डालने की चेष्टा न करना इत्यादि वैज्ञानिक गलतियाँ हैं।
देहाती जनता के लिए ग्राम्य-समस्याओं के निराकरण की दृष्टि से टट्टी में बाल्टियों के इस्तेमाल की चेष्टा न करना, शुरू से ही सम्मिलित टट्टी का प्रचलन न करना आदि बातें व्यावहारिक गलतियों के उदाहरण हैं। वस्तुत आज भारत में सफाई की समस्या टट्टी-पेशाब की ही समस्या है। सड़कों पर यदि आँख बन्द करके चला जाय, तो दूर से आती हुई बदबू से यह समझा जाता है कि कोई कोई बस्ती आनेवाली है। भारतवासियों पर यह एक भीषण अभिशाप है।
इससे स्वास्थ्य, संस्कृति और सम्पत्ति का महान अपव्यय होता है। हमारे देश में टट्टी-पेशाब की अव्यवस्था के कारण जितनी जान और माल की लगातार बरबादी होती है, उतनी कदाचित् किसी महायुद्ध में भी न होती होगी।
ऊपर कहा गया है कि सफाई एक कला भी है, इसलिए सजावट भी सफाई का एक अंग है। अतएव सजावट के साधनों पर भी विचार करना चाहिए। साधन ऐसे हों, जो स्थानीय श्रम और साधन से जुटाये जा सकें। साथ ही वे पास-पड़ोस में मिल सकें। क्योंकि खर्च करके दूर से सामान मँगाकर सजावट नहीं की जा सकती। ऐसी सजावट सार्वजनिक और सर्वांगीण न होकर केवल समर्थ लोगों के शौक की चीज बन जायेगी। सजावट सफाई का हिस्सा तभी हो सकता है, जब वह आम सफाई से सम्बन्धित हो। अतः कला को सफाई का अंग मानने में साधनों की सार्वजनिकता के प्रति खास ध्यान देना चाहिए। घरों में और अनुष्ठानादि प्रसंगों पर लोग अक्सर भारी भूल करते हैं। फलतः कला व्यावहारिक जीवन से उठकर अनुष्ठान और उत्सवों तथा धनियों के आडम्बर और प्रदर्शन की चीज बन जाती है। नयी तालीम की संस्था को तो इस दिशा में अत्यधिक सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि सदियों की अवहेलना के कारण लोगों की धारणाएं और संस्कार काफी दोषपूर्ण हो गये हैं। इन संस्कारों और धारणाओं को बदलने के लिए हमें पूर्ण प्रयत्न करना होगा। यह प्रयत्न सफाई के साधनों का सही चुनाव करने से ही सफल हो सकता है।
अतः आज शिक्षा और दूसरी रचनात्मक संस्थाओं को इसके औजार और साधन पर अधिक ध्यान देना होगा, नहीं तो सफाई का सारा आधार ही कमजोर हो जानेवाला है। हमें अपने चारों और सम्यक दृष्टि रखनी होगी। चाहे हम घर में हों या बाहर, खेत या खलिहान में हों और चाहे मवेशियों के बाँधने की जगह पर, जब तक हम अपना दृष्टिकोण ठीक न रखेंगे, तब तक देश की प्रचुर धनराशि विनष्ट होती रहेगी और मुल्क गरीबी और बेबसी में पड़ा रहेगा।
प्रायः देखा जाता है कि लोग बिना सोचे-समझे एकाएक सफाई में लग जाते हैं। उनको यह पता नहीं रहता कि क्या और कहाँ तक सफाई की जाय। फल यह होता है कि लोग सफाई के लिए अपना समय नियत कर रखते हैं। वे इधर-उधर झाड़ू देने के सिवा विशेष कुछ नहीं कर पाते। शिविर, विद्यालय, बुनियादी-शाला आदि स्थानों में संयोजित सफाई न करने से सफाई को वैज्ञानिक रूप से चलाने में प्रायः सफलता नहीं मिलती। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पूरी योजना बनाकर काम शुरू किया जाय।
यह योजना दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक भी हो सकती है। यदि बीच में आकस्मिक सफाई की जरूरत पड़ती हो, तो तत्सम्बन्धी योजनाएँ जोड़ देनी चाहिए। साप्ताहिक या उससे भी लम्बे अरसे की योजना को दैनिक कार्य के अनुपात से बाँटना चाहिए। साप्ताहिक या विशेष समय उस काम के लिए नियत करना चाहिए। ऐसा करने से ही राष्ट्रीय समय और श्रम को बचाकर संपत्ति की वृद्धि की जा सकती है। उदाहरण के लिए मान लिया जाय कि किसी विद्यालय में सफाई का काम चलता है। उसके लिए जो योजना बनायी जायेगी, उसकी एक रूपरेखा नीचे दी जाती है। सफाई के लिए विद्यालय के निम्नांकित विभाग हो सकते हैं:
a. छात्रावास
b. कुँआ
c. स्नानागार
d. टट्टी, पेशाब और थूकने का स्थान
e. रसोई-घर, बरतन-सफाई आदि
f. विभिन्न वर्गों का स्थान
g. सड़क तथा आम मैदान आदि
उपयुक्त विभागों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवेचन करना उचित होगा।
a. छात्रावास-
छात्रावास के कमरों की सफाई व्यक्तिगत सफाई है। फिर भी कमरों की जमीन का कोना, छत-छप्पर आदि का स्थान सामूहिक सफाई में आता है। इसके अलावा इमारत के आगे-पीछे का भी स्थान है। अगर कच्चा मकान है, तो भीतर-बाहर की टूटी-फूटी जगह की मरम्मत भी सामूहिक सफाई में रखी जा सकती है। इन सारे कामों में साधारण झाड़ू देने का काम ऐसा है कि उसे दैनिक कार्यक्रम में शुमार करना पड़ेगा। बाकी आगे-पीछे की झाड़ू, जंगल, मिट्टी, पत्थर, खपरैल आदि की सफाई साप्ताहिक योजना में आयेगी। मकान के टूट-फूट की मरम्मत सप्ताह से अधिक दिन की है, लेकिन समय के अनुपात से सप्ताहभर का काम निश्चित कर लेना चाहिए। काम की योजना बन जाने के बाद जितने आदमी जिस सफाई के लिए मुकर्रर होंगे, उनके काम के बँटवारे की योजना भी बना लेनी चाहिए। इस तरह योजना बनाकर काम करने पर ही हमारा काम वैज्ञानिक होगा, वरना जगह की तो सफाई हो जायेगी, मगर सफाई करनेवाले की प्रकृति जैसी की तैसी रह जायेगी।
b. कुएँ का स्थान-नयी तालीम की संस्थाएँ प्रायः देहाती वातावरण में होती हैं। अगर नहीं हैं, तो अवश्य होनी चाहिए। अतः कुएँ के पास की पक्की नाली न होने के कारण पानी के निकास की सहज व्यवस्था नहीं हो पाती। कुएँ के पास कहीं-कहीं स्नान-घर भी होता है। इन सबका पानी कच्ची नालियों से निकालना पड़ता है। कच्ची नाली से यदि पानी जोरों से निकल जाय तो ठीक है, लेकिन धीरे-धीरे निकलने से पानी आगे बढ़ने के बजाय नीचे जज्ब होता है। इसलिए नालियों की सड़ी मिट्टी निकालने की एक खास प्रक्रिया होती है। कितने दिन के अन्तर से मिट्टी निकाली जाय-यह स्थानीय मिट्टी की बनावट पर निर्भर करता है। मिट्टी के स्वरूप के अलावा परिमाण और स्थान के ढाल पर भी निर्भर करता है। कभी-कभी कच्ची नालियों को सूखने का मौका देना पड़ता है, अतः यह भी तय करना होगा कि कितने दिन बाद एक नाली को छोड़कर दूसरी नाली से पानी ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
कभी-कभी आसपास के खेतों की स्थिति देखते हुए साबुन तथा मामूली पानी को अलग रास्ते से निकालने की व्यवस्था करनी पड़ती है। अगर पानी खेत और बाग में जाय या अगर उसे सोख्ता के अन्दर ले जाना है, तो भिन्न किस्म की योजना बनानी पड़ेगी। इस तरह स्नान-घर के फर्श या किसी दीवार की गन्दगी या कोना, छप्पर आदि की सफाई-योजना अलग होती है। इन तमाम कामों में कुछ हिस्सा दैनिक करना होगा और कुछ साप्ताहिक तथा पाक्षिक और मासिक भी किया जा सकता है। जैसे नाली की दिशा बदलना, सोख्ता के रोड़े आदि साफ करना मासिक योजना में शामिल करना चाहिए।
c. स्नानागार-
स्नानागार की सफाई की योजना बनाते समय संस्थावासियों की गन्दगी की आदत का ख्याल भी करना होगा। प्रायः लोग स्नान-घर में टट्टी-पेशाब कर देते हैं। अतः इसके अन्दर बाहर की सफाई में दुर्गन्ध दूर करने की व्यवस्था होनी चाहिए। पक्की हौदी में फर्श तथा नाली की सफाई रोज होनी चाहिए। फर्श-सफाई के समय कोने के स्थान को प्रायः लोग भूल जाते हैं। फल यह होता है कि उन स्थानों में काई जम जाती है। अतः स्नानागार के लिए योजना बनाते समय मासिक सफाई का कार्यक्रम रखना जरूरी है।
d. टट्टी, पेशाब और थूक की सफाई-
इसके सम्बन्ध में शुरू से ही योजना बनानी पड़ती है। स्थानीय परिस्थिति और साधन के अनुसार यह विचार करना होगा कि योजना कैसी बनायी जाय। नाली, गड्ढे आदि कई प्रकार की टट्टी की योजना बनायी जा सकती है। उसी तरह पेशाब का गड्ढा साधारण सोख्ता, घड़ेवाला सोख्ता आदि कई प्रकार के बनते हैं। टट्टी-पेशाब के लिए बालटी का भी प्रयोग होता है। थूक के लिए तो किसी संस्था में कोई संयोजित व्यवस्था नहीं होती-ऐसा कहना भी अनुपयुक्त न होगा। प्रायः देखा जाता है कि संस्थावासी टट्टी-पेशाब का तो कुछ इन्तजाम करते हैं, मगर थूकने की कोई व्यवस्था नहीं करते। इन तीनों प्रकार के सफाई के साधन स्थाई न होने के कारण सफाई की प्रक्रिया में ट्टटी, पेशाब और थूकने की व्यवस्था एक में ही शामिल हो जाती है। इसलिए उसे साप्ताहिक या मासिक योजना में शामिल करना होगा। फिर सफाई की बात आती है। टट्टी पर वनस्पति और मिट्टी डालना, टट्टी-घर को हटाना, नया गड्ढा खोदना, बाल्टी की व्यवस्था होने पर मल-मूत्र व्यवस्थित ढंग से मिश्रित खाद के लिए डालना पेशाब-घर का स्थान-परिवर्तन करना, सोख्ते के रोड़े साफ करना, थूकने के गड्ढे में राख, मिट्टी डालना, गड्ढे बदलना आदि कई प्रकार के काम होते हैं। इसके लिए समय का बंटवारा करना होगा। दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक त्रैमासिक योजनाएँ बनानी पड़ेगी। वस्तुतः टट्टी, पेशाब और थूक की व्यवस्था ही सबसे महत्व की और सबसे अधिक विकास की है। अतः इस दिशा में खास ध्यान देना चाहिए। नागरिक-जीवन तथा समाज-शास्त्र के अभ्यास के लिए यही एक खास महत्वपूर्ण माध्यम है। कृषि और अर्थशास्त्र के शिक्षण के माध्यम के रूप में तो इसका महत्व है ही।
e. रसोईघर की सफाई-
जिस प्रकार कुएँ और स्नानागार की सफाई की योजना बनायी गयी है, उसी प्रकार रसोई-घर और बरतन साफ करने के स्थान की सफाई की योजना बनानी पड़ती है। फर्क इतना है कि नहाने में साबुन के जल और बरतन साफ करने के जल की व्यवस्था में अंतर होगा। इसके अलावा बरतन मलने के साधन, रसोईघर की लिपाई, साफ बरतनों का रखना, अनाज-सफाई, कोठार की सफाई आदि कई काम होते हैं। अतः इस मद की योजना बनाने में शिक्षकों को काफी मनोविज्ञान से काम लेना होगा। प्रायः देखा जाता है कि इस काम में ज्यादा असंतोष और मनोमालिन्य पैदा होता है, अतः इस दिशा में बड़ी सतर्कता और मानसिक वृत्तियों का ध्यान रखना होगा।
f. विभिन्न वर्गों की सफाई-
वर्ग की सफाई में कमरा, आसन, श्यामपट्ट शिक्षक के बैठने की जगह की सफाई, वर्ग लगाने का काम तथा सरंजाम दुरुस्त करना आदि आता है। विभिन्न प्रकार के विषय और उनके साधनों की समुचित तथा सुविधाजनक व्यवस्था, सांस्कृतिक साज और सरंजाम व्यवस्थित करना- इन सबको ध्यान में रखकर ही योजना बनाना अत्युत्तम होगा।
g. मैदान, सड़क आदि की सफाई-
यह कार्यक्रम प्रायः दैनिक योजना में नहीं आता। इसका साप्ताहिक और मासिक विभाजन करना चाहिए। इस मद में कूड़ा-करकट, घास, जंगल, खर-पत्ती आदि कई प्रकार की सफाई होती है। इसके अलावा ऊँच-नीच ठीक करना, सड़क-मेड़ आदि दुरुस्त करना तथा सजावट आदि कई प्रकार का काम होता है।
उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो गया होगा कि प्रत्येक काम योजनाबद्ध होना चाहिए। प्रत्येक योजना में नयी तालीम के अनुसार आँकन करने और जाँचने का सिद्धांत लागू करना चाहिए। काम पूर्ण तभी हो सकता है, जब किसी काम में ये तीनों सिद्धांत पूरे होते हैं। अन्यथा काम तो कुछ हो भी सकता है, किन्तु काम करने वाला अपने स्थान पर स्थित रहता है, उसकी प्रगति नहीं होती, क्योंकि इसके बिना सारा काम अचेतन और यंत्रवत् होता है।
औजार और साधन जुटाकर योजना बनाने के बाद काम के आसन के प्रति खास ध्यान देना चाहिए। किस आसन के काम करने में शक्ति का व्यय कम होगा, शरीर और कपड़े ज्यादा सँभलेंगे तथा काम की गति तेज होगी-इत्यादि बातों पर ध्यान रखना आवश्यक है। प्रायः बरतन साफ करने, झाड़ू देने, घास छीलने आदि काम में आसन ठीक न रखने के कारण लोग अपने शरीर को इस प्रकार गन्दा कर लेते हैं कि सफाई के बाद नहाना और कपड़ा बदलना आवश्यक हो जाता है। इस तरह समय, श्रम और स्वास्थ्य का हानि होती है। आसन और शरीर-विज्ञान का घनिष्ठ सम्बन्ध होने का कारण, कमर झुकाकर काम करने और सीधे करने में स्वास्थ्य तथा आयु में बड़ा अन्तर पड़ा जाता है। अतः यह आवश्यक है कि सफाई के हर काम के पहले आसन और उसकी क्रिया की जानकारी अवश्य कर ली जाय। अन्यथा काम का परिणाम काम करने वालों पर बुरा पड़ेगा। काम की गति पर भी आसन का प्रभाव पड़ता है।
4. सफाई के निकले कच्चे माल को एकत्रित करना-
पहले बताया गया है कि सफाई का कूड़ा सफाई-उद्योग का कच्चा माल है। अतः इसे सावधानी से इकट्ठा करना चाहिए। इस दिशा में सभी संस्थाओं और परिवारों में लापरवाही होती है। इस लापरवाही के कारण हमारे देश में करोड़ों रुपयों की हानि होती है। देश के प्रत्येक वर्ग, जाति और समाज का कहना है कि भारत सबसे गरीब मुल्क है। लेकिन यदि गौर से देखा जाय, तो मालूम होगा कि मुल्क आर्थिक दृष्टि से चाहे कितना ही गरीब हो, मगर यहाँ के निवासियों की प्रवृत्ति में अमीरी कूट-कूटकर भरी है। समय, श्रम और साधन को लापरवाही से बरबाद करते हुए जितने लोग यहाँ पाये जाते हैं, उतने किसी भी देश में नहीं। यही कारण है कि हमारा मुल्क गरीब है। लक्ष्मी का अनादर करने वाला कभी सम्पत्तिशाली नहीं हो सकता। अतः हर मनुष्य और संस्था को चाहिए कि वह सफाई से निकले कूड़े को समय और श्रमपूर्वक सम्पत्ति का साधन बनाये। नयी तालीम के शिक्षण में तो इसका स्थान प्रथम है ही। प्रायः लोग झाड़ू देकर कूड़े-कचरे को यत्र-तत्र फेंक देते हैं। कमरे में झाड़ू देकर दरवाजे के सामने कूड़ा इकट्ठा कर ऊपर का मोटा-मोटा हिस्सा दरवाजे के बाहर गिराते हैं, पिर बारी क धूल को उसी जगह दोनों तरफ फैलाते हैं। बाकी कचरा भी झाड़ू से बरामदे में कचरे के साथ उसी बरामदे के नीचे फैला देते हैं, यह आम रिवाज है। इस प्रकार लापरवाही करते हिचक तो होती नहीं बल्कि इस दिशा में गम्भीरता से चर्चा करनेवाली की हँसी की जाती है।
कूड़े को यदि सम्पत्तिरूप में परिणत करना है, तो कचरे को एक जगह इस प्रकार इकट्ठा करना चाहिए, जिससे उसकी छँटाई करने में सहूलियत हो। धूल, मिट्टी, घास-फूस, सभी को एक जगह न बटोरकर सफाई के समय ही सामान्य वर्गीकरण कर देना चाहिए। ऐसा करने से बाद में होनेवाले श्रम और समय की बचत होगी। कूड़ा इकट्ठा करने के लिए विभिन्न प्रकार की चीजों के लिए विभिन्न प्रकार का स्थान भी निश्चित होना चाहिए। ईंट-पत्थर रखने की जगह, मवेशियों के खिलाने लायक घास का स्थान, खाद बनाने लायक कचरे का गड्ढा कागज, रूई, सूत आदि के टुकड़े रखने का स्थान, जूठन रखने और कूड़ा बटोरने का स्थान आदि भी विभिन्न प्रकार का होता है। शिक्षक को ख्याल रखना चाहिए कि इन चीजों की समुचित रक्षा हो, क्योंकि इस प्रकार वैज्ञानिक ढंग से कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने से ही उन्हें सरलता से काम में लाया जा सकता है।
पहले कहा जा चुका है कूड़े में दो प्रकार का माल होता है। पहला वह जो अपनी मूल हालत में ही प्रयोग किया जाता है। दूसरा वह, जिसे उपयोग में लेने लायक बनाया जाता है। ईंट, पत्थर, लकड़ी के टुकड़े आदि पहले और कागज रूई, कपड़े के टुकड़े आदि दूसरे प्रकार के सामान हैं। कूड़े की सही तरीके से बटोरने के बाद उसका ऊपर के काम के लिए चुनाव करना चाहिए। उनमें से जिन्हें मूल रूप में प्रयोग करना है, उसे पूर्वनिश्चित स्थान में पहुँचा देना चाहिए। बाकि को निर्दिष्ट स्थान पर एकत्र करके, अगर उसके लायक संस्था या परिवार में काम चलता हो, तो उसे अनुयायी विभागों में पहुँचा देना चाहिए। खाद बनाने वाली चीजों के अलावा शेष चीजों को उपयोगी स्थान पर ले जाकर बेच देना चाहिए। खाद बनाने का काम तो स्वयं परिवार में करना होगा। खाद बनाने वाली चीजों में भी विभाग करना होगा। जल्दी और देर में गलनेवाली चीजों को अलग-अलग रखना होगा। इस प्रकार शिक्षार्थी को गलने की अवधि का अनुभव होगा और उसके ज्ञान की वृद्धि होगी। वस्तुतः नयी तालीम की नजर में इस प्रकार माल की छँटाई का काम बड़े महत्व का है, क्योंकि इस प्रक्रिया के माध्यम से गणित, अर्थशास्त्र, कृषि-विज्ञान, भू-तत्व, कीटाणु-तत्व आदि के ज्ञान का विकास होता है। खास तौर से गणित और अर्थशास्त्र का बहुत बड़ा भाग इस छँटाई में है।
कूड़े को संपत्ति बनाने की प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है। उसके द्वारा कई ग्रामोद्योगों की शिक्षा मिलती है। कागज को किस प्रकार गलाकर खिलौने बनाये जाते हैं, कपड़े के चिथड़े से दरी, बटन आदि, रस्सी के टुकड़ों से छोटी-छोटी जाली, सिकहर-छींका आदि बनाये जाते हैं, छीजन से तकिए भरने का काम होता है।–इन बातों की जानकारी से गृह-उद्योग का प्रचुर ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार पेशाब, टट्टी आदि की खाद कैसे बनती है? खाद बनाने में जंगल-झाड़ आदि का उपयोग कैसे होगा, उनमें रासायनिक प्रक्रिया, जीवाणु-प्रगति कैसे होती है- इत्यादि बातों की वैज्ञानिक जानकारी होती है। इसलिए पक्के माल की प्रक्रिया का औद्योगिक दृष्टि से पूर्णरूपेण विकास करना होगा। इस दिशा में प्रयोग की बड़ी गुंजाइश है। शिक्षण-संस्थआओं को इस ओर बारीकी से ध्यान देना चाहिए, ताकि प्रत्येक प्रक्रिया पर स्वतंत्र प्रयोग होकर उसका सम्पूर्ण शास्त्र बन सके।
ऊपर बतायी गयी प्रक्रियाओं के साथ सफाई का दैनिक साप्ताहिक तथा मासिक लेखा तैयार करना चाहिए। लेखे में औजार की हालत तथा दुरुस्ती का समय, विविध कूड़े का परिचय और तादाद तथा उसकी उपयोगिता का ब्योरा बताना चाहिए, सफाई के साथ लेखे के अलावा सफाई द्वारा प्राप्त संपत्ति का ब्योरेवार लेखा तैयार करना चाहिए। इस तरह श्रम और समय के हिसाब से आमदनी और खर्च का हिसाब भी रखना आवश्यक है। वस्तुतः लेखे का दायरा बहुत विस्तृत है। हर प्रकार की सफाई का लेखा रखने पर इस चीज का भी हिसाब रखना आसान हो जायेगा कि सफाई के नतीजे से बीमारी तथा मृत्यु-संख्या पर क्या असर पड़ा। हमने कहा है कि सफाई-विज्ञान से विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अगर लेखा ठीक-ठाक और ब्योरेवार न रखा जाय, तो हर वस्तु का ज्ञान आनुमानिक होने के कारण अधूरा रह जायेगा। इससे कुछ धूमिल धारणा भले ही बन जाय, लेकिन शास्त्र नहीं बन पायेगा। काम करनेवालों के लिए जितना भी अधिक ब्योरे से इसका लेखा लिखा जायेगा उतना ही इस शास्त्र का अधिक विकास हो सकेगा।
जैसा कि पहले कहा गया है कि नयी तालीम की दृष्टि से हर उद्योग के तीन हिस्से हैं: आँकना, करना और जाँचना। इनमें आँकने और करने के बारे में सामान्य चर्चा ऊपर आ गयी है। आखिरी बात जाँचने की होती है। और इसी जाँचने की प्रक्रिया में विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी छिपी है।
काम करने के बाद हम इस बात की जाँच करते हैं कि हमने उसमें कितना समय और श्रम लगाया है, कच्चे माल से पक्का माल बनाने तक का क्या रूपान्तर हुआ और इन रूपान्तरों के क्या कारण हैं- इन सभी बातों को भलीभाँति जाँचना चाहिए और फिर बाद में देखना चाहिए कि सारे काम के नतीजे से व्यक्ति और समाज को कितना आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक और स्वास्थ्य, सम्बन्धी लाभ हुआ। ये लाभ क्यों और कैसे हुए-इसकी भी जाँच करनी होगी। फिर कुछ बातों में हानी भी होती है-उसे ठीक-ठीक देखना होगा। इस प्रकार जब हम हर पहलू से काम के नतीजों को जाँचेगे, तब हमारा ज्ञान-भंडार हर दृष्टि से पूर्ण होगा। इस ज्ञानार्जन की क्रिया को नयी तालीम की भाषा में समवाय-ज्ञान कहते हैं। शिक्षक और शिक्षार्थी इस जाँच के काम को जितनी ही बारीकी से करेंगे, उतनी ही विशुद्ध ज्ञान की वृद्धि होगी।
1. औजार आदि साधनों का चुनाव तथा उनकी यथायोग्य व्यवस्था करना,
2. सफाई के काम की योजना बनाना,
3. काम का आसन
4. काम से निकले कच्चे माल को एकत्र करना,
5. कच्चे माल की किस्म के अनुसार छँटाई करना,
6. विभिन्न प्रकार के माल को अपनी उपयोगिता के स्थान पर पहुँचाना,
7. कच्चे माल से उपयोगी माल बनाना,
8. प्रक्रियाओं का लेखा तैयार करना और
9. काम की जाँच।
1- औजार और साधन का चुनाव
पहले कहा गया है कि सफाई एक उद्योग यानी कारीगरी है। और साथ ही कला भी। हर उद्योग और कला के लिए साधन इकट्ठा करना पड़ता है। कोई भी कारीगर या कलाकार काम करने के पहले अपने अनुकूल औजार देखता है। सोचता है कि जिनसे काम करना है, वे औजार बेकाम तो नहीं है। अगर ठीक नहीं होते हैं, तो वह उन्हें पहले तेज करता है तथा ठीक-ठाक कर अथवा धो-धाकर काम लायक बनाता है। फिर जब उसे संतोष हो जाता है कि उसका औजार काम करने लायक है, तब वह काम शुरू करता है। अतः सफाई करनेवालों के लिए औजार प्रथम महत्व की चीज है। यह ध्यान रखा जाय कि विभिन्न स्थानों और परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के औजार चुनना जरूरी होता है। हो सकता है कि किसी एक जगह कोई चीज अधिक उपलब्ध हो और दूसरी जगह दूसरी। वस्तुतः शिक्षक को इस विषय के सिद्धांत से परिचित होना चाहिए। प्रायः देखा गया है कि शिक्षक और विद्यार्थी ‘लकीर के फकीर’ होते हैं। मध्यप्रदेश के सीखे विद्यार्थी अपने विद्यालय में जिस औजार और साधन का प्रयोग करते रहे हों, कोई जरूरी नहीं है कि पर्वतीय प्रदेश में भी उसी से काम लिया जाय अथवा बंगाल में भी बाध्य किया जाय। कहीं नारियल के झाड़ू, कहीं खजूर के और कहीं काँस के मिलते हैं। अतः हर जगह के विद्यार्थी को अपने क्षेत्र का अध्ययन करके वहाँ की स्थिति के अनुसार साधन जुटाने की चेष्टा करनी चाहिए। मूल सिद्धान्त यह है कि साधन स्थानीय परिस्थिति में सुलभ हो। जहाँ तक हो सके, वह स्थानीय रूप से उपयोग में आनेवाला हो। उसके उपयोग से कार्य की पूर्णता के साथ-साथ श्रम और खर्च की बचत होनी चाहिए।
उक्त सिद्धान्त को सामने रखते हुए ही औजार आदि साधनों का प्रबन्ध करना चाहिए। औजार चुनने के बाद उसकी व्यवस्था का प्रश्न आता है। कई औजार ढंग से न रखने तथा इधर-उधर डाल देने से खराब हो जाते हैं। अतः जिस जगह औजार और साधन रखे जायँ, उस जगह का साज-सरंजाम भी उसी ढंग का होना चाहिए, जिससे वे ठीक ढंग से रखे जा सकें।
औजार रखने के ढंग भी निश्चित होने चाहिए। जैसे झाड़ुओं को दीवाल या और किसी स्थान पर अटकाकर या उसका निम्न भाग नीचे और सिरा ऊपर होना चाहिए, ताकि गिरकर टूटने का भय न हो। इस तरह सभी औजारों के रखने की जगह और विधि बैठा लेनी चाहिए। इसके अलावा उपयोग करते समय यह देख लेना चाहिए कि उसकी तैयारी ठीक है या नहीं। अगर न हो, तो ठीक करके ही उसका उपयोग करना चाहिए।
प्रायः देखा जाता है कि लोग जैसे-तैसे औजारों से सफाई करते हैं। फल यह होता है कि केवल सफाई का ही काम अधूरा नहीं रहता बल्कि श्रम और सम्पत्ति भी बरबाद होती है। कमरे साफ करने के लिए नरम और भरे हुए झाड़ू की आवश्यकता है। सड़कें और मैदान साफ करने के लिए सख्त और छिछले झाड़ू की आवश्यकता है। उसी प्रकार गली-सफाई के लिए पतले, सख्त और गुठे हुए झाड़ू की आवश्यकता है। लेकिन लोग इन चीजों पर ध्यान नहीं देते। अतः कमरे में झाड़ू देते समय ही धूल उड़कर साफ जगह जा बैठती है और कमरा फिर गन्दा हो जाता है। सड़कें और मैदान नरम झाड़ू से साफ करने से झाड़ू भी खराब हो जाती है, साथी ही बहुत कूड़ा जहाँ-का तहाँ ही रह जाता है। नालियों, को मामूली झाड़ू से साफ करना तो आम बात है। नतीजा यह होता है कि ऊपर का पानी और गन्दगी साफ हो जाने पर भी सतह की काई और कीचड़ पड़े ही रह जाते हैं। साफ करने में जो विशेष मेहनत लगती है, वह तो अलग से नुकसान की बात होती है।
औजार काम के लायक होने पर भी उसका ठीक से उपयोग न करने से हानि हो जाती है। प्रायः देखा जाता है कि झाड़ू घिसकर नाटी न होकर झड़कर पतली हो जाती है, क्योंकि इस्तेमाल से पहले लोग उसे ठीक से बाँध नहीं लेते हैं। उसी तरह मैदान और सड़क पर झाड़ू देते समय खड़े होकर झाड़ू न देकर श्रम, शक्ति, समय और स्वास्थ्य का नुकसान करते हैं। अक्सर आधे झुककर झाड़ू देकर स्वास्थ्य को बरबाद करते हैं। फिर हवा की विपरीत दिशा में चलकर सफाई करने वाले प्रायः धूल और मिट्टी के शिकार होते हैं। इस तह औजार के चुनाव, उसकी सजावट तथा व्यवस्था और प्रयोग करने के ढंग की ओर पूरा ध्यान न देने से काफी नुकसान उठाना पड़ता है। अतः सफाई करने- वालों को इन चीजों की ओर काफी ध्यान देना चाहिए। औजारों के अलावा दूसरे सामान भी महत्व के हैं। घर, द्वार, रसोईघर आदि लीपने के लिए गोबर, मिट्टी या दूसरे साधनों को किस अनुपात और किस परिमाण में प्रयोग करना है- इसका पूरा ज्ञान और ध्यान होना जरूरी है। अन्यथा सामान की बरबादी के साथ-साथ श्रम और समय का नुकसान होता है और सफाई का उद्देश्य भी पूरा नहीं हो पाता। अनुपात और परिमाण पर विचार करने के साथ-साथ मौसम आदि पर भी ध्यान न देने से नुकसान होता है। उसी प्रकार बरतन साफ करने के लिए राख, मिट्टी, बालू आदि साधनों का परिमाण और अनुपात आदि ऐसा होना चाहिए, जिससे बर्तनों की चिकनाहट तो दूर हो, लेकिन घिसाई कम हो, प्रायः यह देखा जाता है कि लोग इस दिशा में कुछ भी विचार नहीं करते और हानि उठाते हैं।
इसी तरह टट्टी और पेशाब के साधनों के बारे में लोग गलती करते है। यह गलती वैज्ञानिक और व्यावहारिक, दोनों ही दृष्टि से होती है। टट्टी पर सूखी और बारीक मिट्टी न डालकर ढेला ही डाल देने या गीली मिट्टी डाल देने से हानि होती है। बिना वनस्पति मिली मिट्टी डालना, पेशाब में बिना पानी मिलाये वैसे ही खेत में छोड़ देना या वनस्पति की मिश्रित खाद में पानी डालने की चेष्टा न करना इत्यादि वैज्ञानिक गलतियाँ हैं।
देहाती जनता के लिए ग्राम्य-समस्याओं के निराकरण की दृष्टि से टट्टी में बाल्टियों के इस्तेमाल की चेष्टा न करना, शुरू से ही सम्मिलित टट्टी का प्रचलन न करना आदि बातें व्यावहारिक गलतियों के उदाहरण हैं। वस्तुत आज भारत में सफाई की समस्या टट्टी-पेशाब की ही समस्या है। सड़कों पर यदि आँख बन्द करके चला जाय, तो दूर से आती हुई बदबू से यह समझा जाता है कि कोई कोई बस्ती आनेवाली है। भारतवासियों पर यह एक भीषण अभिशाप है।
इससे स्वास्थ्य, संस्कृति और सम्पत्ति का महान अपव्यय होता है। हमारे देश में टट्टी-पेशाब की अव्यवस्था के कारण जितनी जान और माल की लगातार बरबादी होती है, उतनी कदाचित् किसी महायुद्ध में भी न होती होगी।
ऊपर कहा गया है कि सफाई एक कला भी है, इसलिए सजावट भी सफाई का एक अंग है। अतएव सजावट के साधनों पर भी विचार करना चाहिए। साधन ऐसे हों, जो स्थानीय श्रम और साधन से जुटाये जा सकें। साथ ही वे पास-पड़ोस में मिल सकें। क्योंकि खर्च करके दूर से सामान मँगाकर सजावट नहीं की जा सकती। ऐसी सजावट सार्वजनिक और सर्वांगीण न होकर केवल समर्थ लोगों के शौक की चीज बन जायेगी। सजावट सफाई का हिस्सा तभी हो सकता है, जब वह आम सफाई से सम्बन्धित हो। अतः कला को सफाई का अंग मानने में साधनों की सार्वजनिकता के प्रति खास ध्यान देना चाहिए। घरों में और अनुष्ठानादि प्रसंगों पर लोग अक्सर भारी भूल करते हैं। फलतः कला व्यावहारिक जीवन से उठकर अनुष्ठान और उत्सवों तथा धनियों के आडम्बर और प्रदर्शन की चीज बन जाती है। नयी तालीम की संस्था को तो इस दिशा में अत्यधिक सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि सदियों की अवहेलना के कारण लोगों की धारणाएं और संस्कार काफी दोषपूर्ण हो गये हैं। इन संस्कारों और धारणाओं को बदलने के लिए हमें पूर्ण प्रयत्न करना होगा। यह प्रयत्न सफाई के साधनों का सही चुनाव करने से ही सफल हो सकता है।
अतः आज शिक्षा और दूसरी रचनात्मक संस्थाओं को इसके औजार और साधन पर अधिक ध्यान देना होगा, नहीं तो सफाई का सारा आधार ही कमजोर हो जानेवाला है। हमें अपने चारों और सम्यक दृष्टि रखनी होगी। चाहे हम घर में हों या बाहर, खेत या खलिहान में हों और चाहे मवेशियों के बाँधने की जगह पर, जब तक हम अपना दृष्टिकोण ठीक न रखेंगे, तब तक देश की प्रचुर धनराशि विनष्ट होती रहेगी और मुल्क गरीबी और बेबसी में पड़ा रहेगा।
2- सफाई के काम की योजना
प्रायः देखा जाता है कि लोग बिना सोचे-समझे एकाएक सफाई में लग जाते हैं। उनको यह पता नहीं रहता कि क्या और कहाँ तक सफाई की जाय। फल यह होता है कि लोग सफाई के लिए अपना समय नियत कर रखते हैं। वे इधर-उधर झाड़ू देने के सिवा विशेष कुछ नहीं कर पाते। शिविर, विद्यालय, बुनियादी-शाला आदि स्थानों में संयोजित सफाई न करने से सफाई को वैज्ञानिक रूप से चलाने में प्रायः सफलता नहीं मिलती। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पूरी योजना बनाकर काम शुरू किया जाय।
यह योजना दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक भी हो सकती है। यदि बीच में आकस्मिक सफाई की जरूरत पड़ती हो, तो तत्सम्बन्धी योजनाएँ जोड़ देनी चाहिए। साप्ताहिक या उससे भी लम्बे अरसे की योजना को दैनिक कार्य के अनुपात से बाँटना चाहिए। साप्ताहिक या विशेष समय उस काम के लिए नियत करना चाहिए। ऐसा करने से ही राष्ट्रीय समय और श्रम को बचाकर संपत्ति की वृद्धि की जा सकती है। उदाहरण के लिए मान लिया जाय कि किसी विद्यालय में सफाई का काम चलता है। उसके लिए जो योजना बनायी जायेगी, उसकी एक रूपरेखा नीचे दी जाती है। सफाई के लिए विद्यालय के निम्नांकित विभाग हो सकते हैं:
a. छात्रावास
b. कुँआ
c. स्नानागार
d. टट्टी, पेशाब और थूकने का स्थान
e. रसोई-घर, बरतन-सफाई आदि
f. विभिन्न वर्गों का स्थान
g. सड़क तथा आम मैदान आदि
उपयुक्त विभागों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवेचन करना उचित होगा।
a. छात्रावास-
छात्रावास के कमरों की सफाई व्यक्तिगत सफाई है। फिर भी कमरों की जमीन का कोना, छत-छप्पर आदि का स्थान सामूहिक सफाई में आता है। इसके अलावा इमारत के आगे-पीछे का भी स्थान है। अगर कच्चा मकान है, तो भीतर-बाहर की टूटी-फूटी जगह की मरम्मत भी सामूहिक सफाई में रखी जा सकती है। इन सारे कामों में साधारण झाड़ू देने का काम ऐसा है कि उसे दैनिक कार्यक्रम में शुमार करना पड़ेगा। बाकी आगे-पीछे की झाड़ू, जंगल, मिट्टी, पत्थर, खपरैल आदि की सफाई साप्ताहिक योजना में आयेगी। मकान के टूट-फूट की मरम्मत सप्ताह से अधिक दिन की है, लेकिन समय के अनुपात से सप्ताहभर का काम निश्चित कर लेना चाहिए। काम की योजना बन जाने के बाद जितने आदमी जिस सफाई के लिए मुकर्रर होंगे, उनके काम के बँटवारे की योजना भी बना लेनी चाहिए। इस तरह योजना बनाकर काम करने पर ही हमारा काम वैज्ञानिक होगा, वरना जगह की तो सफाई हो जायेगी, मगर सफाई करनेवाले की प्रकृति जैसी की तैसी रह जायेगी।
b. कुएँ का स्थान-नयी तालीम की संस्थाएँ प्रायः देहाती वातावरण में होती हैं। अगर नहीं हैं, तो अवश्य होनी चाहिए। अतः कुएँ के पास की पक्की नाली न होने के कारण पानी के निकास की सहज व्यवस्था नहीं हो पाती। कुएँ के पास कहीं-कहीं स्नान-घर भी होता है। इन सबका पानी कच्ची नालियों से निकालना पड़ता है। कच्ची नाली से यदि पानी जोरों से निकल जाय तो ठीक है, लेकिन धीरे-धीरे निकलने से पानी आगे बढ़ने के बजाय नीचे जज्ब होता है। इसलिए नालियों की सड़ी मिट्टी निकालने की एक खास प्रक्रिया होती है। कितने दिन के अन्तर से मिट्टी निकाली जाय-यह स्थानीय मिट्टी की बनावट पर निर्भर करता है। मिट्टी के स्वरूप के अलावा परिमाण और स्थान के ढाल पर भी निर्भर करता है। कभी-कभी कच्ची नालियों को सूखने का मौका देना पड़ता है, अतः यह भी तय करना होगा कि कितने दिन बाद एक नाली को छोड़कर दूसरी नाली से पानी ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
कभी-कभी आसपास के खेतों की स्थिति देखते हुए साबुन तथा मामूली पानी को अलग रास्ते से निकालने की व्यवस्था करनी पड़ती है। अगर पानी खेत और बाग में जाय या अगर उसे सोख्ता के अन्दर ले जाना है, तो भिन्न किस्म की योजना बनानी पड़ेगी। इस तरह स्नान-घर के फर्श या किसी दीवार की गन्दगी या कोना, छप्पर आदि की सफाई-योजना अलग होती है। इन तमाम कामों में कुछ हिस्सा दैनिक करना होगा और कुछ साप्ताहिक तथा पाक्षिक और मासिक भी किया जा सकता है। जैसे नाली की दिशा बदलना, सोख्ता के रोड़े आदि साफ करना मासिक योजना में शामिल करना चाहिए।
c. स्नानागार-
स्नानागार की सफाई की योजना बनाते समय संस्थावासियों की गन्दगी की आदत का ख्याल भी करना होगा। प्रायः लोग स्नान-घर में टट्टी-पेशाब कर देते हैं। अतः इसके अन्दर बाहर की सफाई में दुर्गन्ध दूर करने की व्यवस्था होनी चाहिए। पक्की हौदी में फर्श तथा नाली की सफाई रोज होनी चाहिए। फर्श-सफाई के समय कोने के स्थान को प्रायः लोग भूल जाते हैं। फल यह होता है कि उन स्थानों में काई जम जाती है। अतः स्नानागार के लिए योजना बनाते समय मासिक सफाई का कार्यक्रम रखना जरूरी है।
d. टट्टी, पेशाब और थूक की सफाई-
इसके सम्बन्ध में शुरू से ही योजना बनानी पड़ती है। स्थानीय परिस्थिति और साधन के अनुसार यह विचार करना होगा कि योजना कैसी बनायी जाय। नाली, गड्ढे आदि कई प्रकार की टट्टी की योजना बनायी जा सकती है। उसी तरह पेशाब का गड्ढा साधारण सोख्ता, घड़ेवाला सोख्ता आदि कई प्रकार के बनते हैं। टट्टी-पेशाब के लिए बालटी का भी प्रयोग होता है। थूक के लिए तो किसी संस्था में कोई संयोजित व्यवस्था नहीं होती-ऐसा कहना भी अनुपयुक्त न होगा। प्रायः देखा जाता है कि संस्थावासी टट्टी-पेशाब का तो कुछ इन्तजाम करते हैं, मगर थूकने की कोई व्यवस्था नहीं करते। इन तीनों प्रकार के सफाई के साधन स्थाई न होने के कारण सफाई की प्रक्रिया में ट्टटी, पेशाब और थूकने की व्यवस्था एक में ही शामिल हो जाती है। इसलिए उसे साप्ताहिक या मासिक योजना में शामिल करना होगा। फिर सफाई की बात आती है। टट्टी पर वनस्पति और मिट्टी डालना, टट्टी-घर को हटाना, नया गड्ढा खोदना, बाल्टी की व्यवस्था होने पर मल-मूत्र व्यवस्थित ढंग से मिश्रित खाद के लिए डालना पेशाब-घर का स्थान-परिवर्तन करना, सोख्ते के रोड़े साफ करना, थूकने के गड्ढे में राख, मिट्टी डालना, गड्ढे बदलना आदि कई प्रकार के काम होते हैं। इसके लिए समय का बंटवारा करना होगा। दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक त्रैमासिक योजनाएँ बनानी पड़ेगी। वस्तुतः टट्टी, पेशाब और थूक की व्यवस्था ही सबसे महत्व की और सबसे अधिक विकास की है। अतः इस दिशा में खास ध्यान देना चाहिए। नागरिक-जीवन तथा समाज-शास्त्र के अभ्यास के लिए यही एक खास महत्वपूर्ण माध्यम है। कृषि और अर्थशास्त्र के शिक्षण के माध्यम के रूप में तो इसका महत्व है ही।
e. रसोईघर की सफाई-
जिस प्रकार कुएँ और स्नानागार की सफाई की योजना बनायी गयी है, उसी प्रकार रसोई-घर और बरतन साफ करने के स्थान की सफाई की योजना बनानी पड़ती है। फर्क इतना है कि नहाने में साबुन के जल और बरतन साफ करने के जल की व्यवस्था में अंतर होगा। इसके अलावा बरतन मलने के साधन, रसोईघर की लिपाई, साफ बरतनों का रखना, अनाज-सफाई, कोठार की सफाई आदि कई काम होते हैं। अतः इस मद की योजना बनाने में शिक्षकों को काफी मनोविज्ञान से काम लेना होगा। प्रायः देखा जाता है कि इस काम में ज्यादा असंतोष और मनोमालिन्य पैदा होता है, अतः इस दिशा में बड़ी सतर्कता और मानसिक वृत्तियों का ध्यान रखना होगा।
f. विभिन्न वर्गों की सफाई-
वर्ग की सफाई में कमरा, आसन, श्यामपट्ट शिक्षक के बैठने की जगह की सफाई, वर्ग लगाने का काम तथा सरंजाम दुरुस्त करना आदि आता है। विभिन्न प्रकार के विषय और उनके साधनों की समुचित तथा सुविधाजनक व्यवस्था, सांस्कृतिक साज और सरंजाम व्यवस्थित करना- इन सबको ध्यान में रखकर ही योजना बनाना अत्युत्तम होगा।
g. मैदान, सड़क आदि की सफाई-
यह कार्यक्रम प्रायः दैनिक योजना में नहीं आता। इसका साप्ताहिक और मासिक विभाजन करना चाहिए। इस मद में कूड़ा-करकट, घास, जंगल, खर-पत्ती आदि कई प्रकार की सफाई होती है। इसके अलावा ऊँच-नीच ठीक करना, सड़क-मेड़ आदि दुरुस्त करना तथा सजावट आदि कई प्रकार का काम होता है।
उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो गया होगा कि प्रत्येक काम योजनाबद्ध होना चाहिए। प्रत्येक योजना में नयी तालीम के अनुसार आँकन करने और जाँचने का सिद्धांत लागू करना चाहिए। काम पूर्ण तभी हो सकता है, जब किसी काम में ये तीनों सिद्धांत पूरे होते हैं। अन्यथा काम तो कुछ हो भी सकता है, किन्तु काम करने वाला अपने स्थान पर स्थित रहता है, उसकी प्रगति नहीं होती, क्योंकि इसके बिना सारा काम अचेतन और यंत्रवत् होता है।
3. काम के आसन-
औजार और साधन जुटाकर योजना बनाने के बाद काम के आसन के प्रति खास ध्यान देना चाहिए। किस आसन के काम करने में शक्ति का व्यय कम होगा, शरीर और कपड़े ज्यादा सँभलेंगे तथा काम की गति तेज होगी-इत्यादि बातों पर ध्यान रखना आवश्यक है। प्रायः बरतन साफ करने, झाड़ू देने, घास छीलने आदि काम में आसन ठीक न रखने के कारण लोग अपने शरीर को इस प्रकार गन्दा कर लेते हैं कि सफाई के बाद नहाना और कपड़ा बदलना आवश्यक हो जाता है। इस तरह समय, श्रम और स्वास्थ्य का हानि होती है। आसन और शरीर-विज्ञान का घनिष्ठ सम्बन्ध होने का कारण, कमर झुकाकर काम करने और सीधे करने में स्वास्थ्य तथा आयु में बड़ा अन्तर पड़ा जाता है। अतः यह आवश्यक है कि सफाई के हर काम के पहले आसन और उसकी क्रिया की जानकारी अवश्य कर ली जाय। अन्यथा काम का परिणाम काम करने वालों पर बुरा पड़ेगा। काम की गति पर भी आसन का प्रभाव पड़ता है।
4. सफाई के निकले कच्चे माल को एकत्रित करना-
पहले बताया गया है कि सफाई का कूड़ा सफाई-उद्योग का कच्चा माल है। अतः इसे सावधानी से इकट्ठा करना चाहिए। इस दिशा में सभी संस्थाओं और परिवारों में लापरवाही होती है। इस लापरवाही के कारण हमारे देश में करोड़ों रुपयों की हानि होती है। देश के प्रत्येक वर्ग, जाति और समाज का कहना है कि भारत सबसे गरीब मुल्क है। लेकिन यदि गौर से देखा जाय, तो मालूम होगा कि मुल्क आर्थिक दृष्टि से चाहे कितना ही गरीब हो, मगर यहाँ के निवासियों की प्रवृत्ति में अमीरी कूट-कूटकर भरी है। समय, श्रम और साधन को लापरवाही से बरबाद करते हुए जितने लोग यहाँ पाये जाते हैं, उतने किसी भी देश में नहीं। यही कारण है कि हमारा मुल्क गरीब है। लक्ष्मी का अनादर करने वाला कभी सम्पत्तिशाली नहीं हो सकता। अतः हर मनुष्य और संस्था को चाहिए कि वह सफाई से निकले कूड़े को समय और श्रमपूर्वक सम्पत्ति का साधन बनाये। नयी तालीम के शिक्षण में तो इसका स्थान प्रथम है ही। प्रायः लोग झाड़ू देकर कूड़े-कचरे को यत्र-तत्र फेंक देते हैं। कमरे में झाड़ू देकर दरवाजे के सामने कूड़ा इकट्ठा कर ऊपर का मोटा-मोटा हिस्सा दरवाजे के बाहर गिराते हैं, पिर बारी क धूल को उसी जगह दोनों तरफ फैलाते हैं। बाकी कचरा भी झाड़ू से बरामदे में कचरे के साथ उसी बरामदे के नीचे फैला देते हैं, यह आम रिवाज है। इस प्रकार लापरवाही करते हिचक तो होती नहीं बल्कि इस दिशा में गम्भीरता से चर्चा करनेवाली की हँसी की जाती है।
कूड़े को यदि सम्पत्तिरूप में परिणत करना है, तो कचरे को एक जगह इस प्रकार इकट्ठा करना चाहिए, जिससे उसकी छँटाई करने में सहूलियत हो। धूल, मिट्टी, घास-फूस, सभी को एक जगह न बटोरकर सफाई के समय ही सामान्य वर्गीकरण कर देना चाहिए। ऐसा करने से बाद में होनेवाले श्रम और समय की बचत होगी। कूड़ा इकट्ठा करने के लिए विभिन्न प्रकार की चीजों के लिए विभिन्न प्रकार का स्थान भी निश्चित होना चाहिए। ईंट-पत्थर रखने की जगह, मवेशियों के खिलाने लायक घास का स्थान, खाद बनाने लायक कचरे का गड्ढा कागज, रूई, सूत आदि के टुकड़े रखने का स्थान, जूठन रखने और कूड़ा बटोरने का स्थान आदि भी विभिन्न प्रकार का होता है। शिक्षक को ख्याल रखना चाहिए कि इन चीजों की समुचित रक्षा हो, क्योंकि इस प्रकार वैज्ञानिक ढंग से कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने से ही उन्हें सरलता से काम में लाया जा सकता है।
5-6. कच्चे माल की छँटाई और उपयोगिता के स्थान पर पहुँचाना -
पहले कहा जा चुका है कूड़े में दो प्रकार का माल होता है। पहला वह जो अपनी मूल हालत में ही प्रयोग किया जाता है। दूसरा वह, जिसे उपयोग में लेने लायक बनाया जाता है। ईंट, पत्थर, लकड़ी के टुकड़े आदि पहले और कागज रूई, कपड़े के टुकड़े आदि दूसरे प्रकार के सामान हैं। कूड़े की सही तरीके से बटोरने के बाद उसका ऊपर के काम के लिए चुनाव करना चाहिए। उनमें से जिन्हें मूल रूप में प्रयोग करना है, उसे पूर्वनिश्चित स्थान में पहुँचा देना चाहिए। बाकि को निर्दिष्ट स्थान पर एकत्र करके, अगर उसके लायक संस्था या परिवार में काम चलता हो, तो उसे अनुयायी विभागों में पहुँचा देना चाहिए। खाद बनाने वाली चीजों के अलावा शेष चीजों को उपयोगी स्थान पर ले जाकर बेच देना चाहिए। खाद बनाने का काम तो स्वयं परिवार में करना होगा। खाद बनाने वाली चीजों में भी विभाग करना होगा। जल्दी और देर में गलनेवाली चीजों को अलग-अलग रखना होगा। इस प्रकार शिक्षार्थी को गलने की अवधि का अनुभव होगा और उसके ज्ञान की वृद्धि होगी। वस्तुतः नयी तालीम की नजर में इस प्रकार माल की छँटाई का काम बड़े महत्व का है, क्योंकि इस प्रक्रिया के माध्यम से गणित, अर्थशास्त्र, कृषि-विज्ञान, भू-तत्व, कीटाणु-तत्व आदि के ज्ञान का विकास होता है। खास तौर से गणित और अर्थशास्त्र का बहुत बड़ा भाग इस छँटाई में है।
7. पक्का माल बनाने की प्रक्रिया-
कूड़े को संपत्ति बनाने की प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है। उसके द्वारा कई ग्रामोद्योगों की शिक्षा मिलती है। कागज को किस प्रकार गलाकर खिलौने बनाये जाते हैं, कपड़े के चिथड़े से दरी, बटन आदि, रस्सी के टुकड़ों से छोटी-छोटी जाली, सिकहर-छींका आदि बनाये जाते हैं, छीजन से तकिए भरने का काम होता है।–इन बातों की जानकारी से गृह-उद्योग का प्रचुर ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार पेशाब, टट्टी आदि की खाद कैसे बनती है? खाद बनाने में जंगल-झाड़ आदि का उपयोग कैसे होगा, उनमें रासायनिक प्रक्रिया, जीवाणु-प्रगति कैसे होती है- इत्यादि बातों की वैज्ञानिक जानकारी होती है। इसलिए पक्के माल की प्रक्रिया का औद्योगिक दृष्टि से पूर्णरूपेण विकास करना होगा। इस दिशा में प्रयोग की बड़ी गुंजाइश है। शिक्षण-संस्थआओं को इस ओर बारीकी से ध्यान देना चाहिए, ताकि प्रत्येक प्रक्रिया पर स्वतंत्र प्रयोग होकर उसका सम्पूर्ण शास्त्र बन सके।
8. प्रक्रियाओं का लेखा तैयार करना-
ऊपर बतायी गयी प्रक्रियाओं के साथ सफाई का दैनिक साप्ताहिक तथा मासिक लेखा तैयार करना चाहिए। लेखे में औजार की हालत तथा दुरुस्ती का समय, विविध कूड़े का परिचय और तादाद तथा उसकी उपयोगिता का ब्योरा बताना चाहिए, सफाई के साथ लेखे के अलावा सफाई द्वारा प्राप्त संपत्ति का ब्योरेवार लेखा तैयार करना चाहिए। इस तरह श्रम और समय के हिसाब से आमदनी और खर्च का हिसाब भी रखना आवश्यक है। वस्तुतः लेखे का दायरा बहुत विस्तृत है। हर प्रकार की सफाई का लेखा रखने पर इस चीज का भी हिसाब रखना आसान हो जायेगा कि सफाई के नतीजे से बीमारी तथा मृत्यु-संख्या पर क्या असर पड़ा। हमने कहा है कि सफाई-विज्ञान से विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अगर लेखा ठीक-ठाक और ब्योरेवार न रखा जाय, तो हर वस्तु का ज्ञान आनुमानिक होने के कारण अधूरा रह जायेगा। इससे कुछ धूमिल धारणा भले ही बन जाय, लेकिन शास्त्र नहीं बन पायेगा। काम करनेवालों के लिए जितना भी अधिक ब्योरे से इसका लेखा लिखा जायेगा उतना ही इस शास्त्र का अधिक विकास हो सकेगा।
9. काम की जाँच-
जैसा कि पहले कहा गया है कि नयी तालीम की दृष्टि से हर उद्योग के तीन हिस्से हैं: आँकना, करना और जाँचना। इनमें आँकने और करने के बारे में सामान्य चर्चा ऊपर आ गयी है। आखिरी बात जाँचने की होती है। और इसी जाँचने की प्रक्रिया में विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी छिपी है।
काम करने के बाद हम इस बात की जाँच करते हैं कि हमने उसमें कितना समय और श्रम लगाया है, कच्चे माल से पक्का माल बनाने तक का क्या रूपान्तर हुआ और इन रूपान्तरों के क्या कारण हैं- इन सभी बातों को भलीभाँति जाँचना चाहिए और फिर बाद में देखना चाहिए कि सारे काम के नतीजे से व्यक्ति और समाज को कितना आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक और स्वास्थ्य, सम्बन्धी लाभ हुआ। ये लाभ क्यों और कैसे हुए-इसकी भी जाँच करनी होगी। फिर कुछ बातों में हानी भी होती है-उसे ठीक-ठीक देखना होगा। इस प्रकार जब हम हर पहलू से काम के नतीजों को जाँचेगे, तब हमारा ज्ञान-भंडार हर दृष्टि से पूर्ण होगा। इस ज्ञानार्जन की क्रिया को नयी तालीम की भाषा में समवाय-ज्ञान कहते हैं। शिक्षक और शिक्षार्थी इस जाँच के काम को जितनी ही बारीकी से करेंगे, उतनी ही विशुद्ध ज्ञान की वृद्धि होगी।
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