शिप्रा की पन्द्रह बहनें

अवन्तीखण्ड में उज्जयिनी के परिसर में बहती प्रायः पन्द्रह नदियाँ बतायी गयी हैं। जो शिप्रा से मिलती थीं और जिनका पौराणिक महत्व था। उसमें से कुछ तो साहित्य में भी याद की गयी हैं। ऐसी नदियों में गन्धवती सर्वप्रमुख है। कालिदास के मेघदूत, कथासारित्सागर और जैन साहित्य में इसका स्मरण किया गया है। कालिदास का कहना है कि वर्षा आने तक भी यह बहती रहती थी और इसमें नारियाँ स्नान करती थीं, आज उसके दर्शन नहीं होते।

नीला कमल की परमलगंद खेले गोर्या करे सनान।
बास गन्दवती का जल से हवाबाग वी झूमे मान।।


ऐसी ही एक और नदी थी नवनदी। राजशेखर की काव्यमीमांसा (अध्याय 14) में उसका वर्णन है। ऐसी अन्य नदियाँ रहीं- खगर्ता, पिंगला, गोमती, सरस्वती, नीलगंगा, फाल्गु, मंदाकिनी, गंगा, सरयू, पयस्विनी, कौशिकी, महासुर, महानदी, इत्यादी। महाकाल सहस्त्रनाम माहात्म्य में शिप्रा, गोमती, खगर्ता, नवनदी आदि का उल्लेख पाया जाता है। ये सभी स्थानीय छोटी-छोटी नदियाँ थीं जिनका पौराणिक तीर्थ की दृष्टि से महत्व था। अब उनमें से कोई भी नदी नहीं बची। यद्यपि नीलगंगा खगर्ता आदि स्थान तो आज भी प्रचलित हैं। गंधवती के संगम को गंधर्वघाट बताया जाता है। खगर्ता संगम आज भी है। गोमती कुंड आज की सन्दीपानि आश्रम में है। शिप्रा का वर्णन करते हुए कालिदास ने बताया है कि शिप्रा का स्पर्श कर बहता पवन सारस के बोल को दूर तक ले जाता है।

सुनजो सफा परोड़े दूरा मदमाता सारस का बोल।
खिल्या कमल का परमल संगे गंद कसीलो पवन अमोल।।
अरे थकेलो गारे सुवाणो नारी को मीठो सुखधाम।
नोरां करता नाम सरीखो सिपरा को वयरो इन ठाम।।


तटवर्ती उद्यानों को शिप्रा की तरंगों को छूता पवन कंपित करता रहता है, उन उपवनों में विहार की लालसा-जगाता हुआ महाकवि कालिदास अपने रघुवंश में कहते हैं-

सिप्रातरङ्गनिलकम्पितासु
विहर्तुमुद्यान परम्परासु।।6/35


दो सौ किलोमीटर बहकर शिप्रा आलोटी तहसील में चम्बल में मिल जाती है। यह स्थान सिपावरा कहलाता है। वहाँ पर घाट, मन्दिर हैं औऱ यह स्थानीय तीर्थ है। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड के अनुसार यह नदी पचास योजन यात्रा करती है जो प्रायः 640 कि.मी. और वर्तमान से तीन गुना यात्रा पथ होता है। इतनी छोटी नदी होने पर भी इसका पौराणिक और तीर्थ की दृष्टि से महत्त्व अधिक है और इसे गंगा के समान या कभी कभी उससे बढ़कर पवित्र माना गया है। क्योंकि गंगा भगवान् विष्णु के पैर के अंगूठे से प्रकट हुई है तो शिप्रा उनके हाथ की तर्जनी अंगुली से निकली है। अतः ये दोनों ही नदियाँ विष्णु दोहोद्भवा हैं। शिप्रा महापापों को भी नष्ट कर देती है। इसीलिए कहा गया है-

शिप्रापि में प्रिया महापातकनाशिनी।

क्योंकि नर्मदा से गंगा पवित्र है तो गंगा से शिप्रा दस गुना अधिक पवित्र मानी जाती है-

तस्माद्दशगुणा रेवा गङ्गा पुण्या ततोSधिका।
तस्माद्दशगुणा शिप्रा पवि पापनाशिनी।।


शिप्रालहरी सतोत्र में वि.ग. भागवत ने शिप्रा का वाहन श्वेत कछुआ बताया है-

सितकमलपृष्ठस्थितिपराम्। श्री शिप्रालहरी सतोत्रम्।

ये सफेद कछुए इसमें पर्याप्त मात्रा में होते थे जिन्हें उज्जैन में लोग सूंस कहते थे। अब तो जल के साथ वे सूंसें भी दुर्लभ हो गयी हैं। शिप्रा अर्थात तेज बहने वाली नदी। वह तेज तो क्या अब धीमें भी नही बहती। आज सिपरा बरसात में ठीक से पूर नहीं पाती, शीत में उसकी धारा टूट जाती है औऱ ग्रीष्म में बूँद-बूँद के लिए तरसती है।
 

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Post By: tridmin
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