शिक्षा, पारंपरिक ज्ञान और हमारा पर्यावरण

शिक्षा, पारंपरिक ज्ञान और हमारा पर्यावरण,Pc- Fii
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आज से करीब 30 वर्ष पहले पहाड़ के दूरदराज के गांवों में, गांव के लोगों के अनुरोध पर हमने स्कूल खोले। उस समय औसतन 7-10 गांवों के बीच एक सरकारी स्कूल हुआ करता था, पहाड़ के गांव छोटे- छोटे और बिखरे हुए होते हैं, एक गांव से दूसरे गांव की दूरी तय करने में घंटों लग सकते हैं, अब तो खैर स्थिति बदल गई है, सड़कें भी बन गई हैं और सरकारी स्कूलों की तादाद भी बढ़ी है।

शुरूआत के दिनों में हमारे स्कूल और सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम लगभग एक ही जैसा हुआ करता था। स्कूल खोलने के कुछ समय बाद जब गांव के लोगों से हमारी आत्मीयता बढ़ी तो उनसे धीरे-धीरे खुलकर बातें होने लगी। तो वहां की बुजुर्ग महिलाएं हमसे अपने अनूठे अंदाज में तरह-तरह की शिकायतें करने लगीं। कहने लगी- "पढ़-लिख कर आदमी, न घर का रहता है, न घाट का", "नौकरी की जड़ पत्थर पर होती है", "इन्हें होना सिखाओ दिखना / दिखाना नहीं, इत्यादि, इत्यादि ।

मेरा मानना है कि भारत के प्रायः हरेक गांव में बड़ी उम्र के बहुतेरे लोगों की उनके इलाके में जब आधुनिक शिक्षा ने पांव पसारने शुरू किए होंगे तो कुछ इसी प्रकार की शिकायतें और प्रतिक्रियाएं रही होंगी पर आधुनिकता की चकाचौंध में लगभग अंधे, हम जैसे आधुनिक लोगों ने उनकी बात को सुनकर अनसुना कर दिया होगा। बदलाव की एक आंधी सी आई देश में कहीं दो शताब्दी पहले (जैसे कलकत्ता या चेन्नई) और कहीं बाद में पर यह सिलसिला तो बहुत पहले से शुरू हो गया था। भारत आजाद होने के बाद भी वही दिशा जारी रही। हमने बड़े बांधों और बड़े उद्योगों को नए युग के मंदिर कहना शुरू किया।

हमारा नेतृत्व तो जैसे राजनीतिक आजादी प्राप्त करके संतुष्ट हो गया। जिसे महात्मा गांधी "भारत की आत्मा" कहते थे, उसका हमारे बड़े लोगों को कोई ज्ञान ही नही था। वे तो संभवतः उन मान्यताओं, उन तरीकों, उन आस्थाओं, उस ज्ञान को "पिछड़ापन" ही मानते रहे।

ईश्वर की कृपा ही कह सकते हैं कि जो हमारे बुजुर्गों ने कहा वह हमें सुनाई दे गया। हालांकि उन बातों को समझने में वक्त लगा। समझ तो पहले आदरणीय धरमपाल जी से चर्चा करके और फिर उनके कहे महात्मा गांधी को पढ़ने से बनी। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से विलायत होते हुए 1915 को भारत पहुंचे। 1915 / 16 से लेकर 1922 / 24 तक उन्होंने देश का खूब भ्रमण किया। हर प्रकार के लोगों से मिले। देश को, यहां के साधारण को यहां की शक्ति और यहां की कमजोरियों को समझने का भरपूर प्रयास किया।

हमें याद रखना होगा कि यहां आने से बहुत पहले ही 1909 में वे "हिंद स्वराज' लिख चुके थे। यह इस बात का प्रमाण है कि पश्चिम और आधुनिकता, वहां की सभ्यता, उसकी व्यवस्थाओं को वहां के स्वभाव को वे अपने विलायत और उसके बाद दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान अच्छी तरह समझ गए थे। पश्चिम को लेकर उनके अंदर किसी प्रकार की कोई शंका नहीं रह गई थी। न कोई भ्रम, न कोई मोह। भारत लौटने के बाद अब खुले मन और साफ दिमाग से वे इस देश यहां की सभ्यता, स्वभाव और इस देश के साधारण को समझना चाह रहे थे।

आधुनिकता की गहरी समझ पहले से ही थी, उनके पास यहां का पढ़ा-लिखा वर्ग, जो भले ही अंग्रेजों का विरोध करता रहा हो, पर आधुनिकता की चकाचौंध से बुरी तरह प्रभावित था। इस वर्ग से जल्दी ही, शायद बंबई में जहाज से उतरने के कुछ ही दिनों में उनका मोह भंग हो गया।

उन शुरूवाती कुछ वर्षो में महात्मा गांधी ने जो कहा वह खुलकर कहा- जो कहा, समझा उसे वैसा ही कहा। बाद के दिनों में संभव है, उन्हें बहुत से राजनैतिक समीकरणों को ध्यान में रखकर संभलकर बात करनी पड़ी हो। इसलिए महात्मा गांधी को समझने और उनके जरिए भारत को समझने में उनके 1922 / 24 से पहले के वक्तव्य और लेख बहुत सहायक हैं।

उन शुरुआती दिनों में गांधी जी ने भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली का विनाश करके जो मैकालियन तर्ज पर अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की प्रणाली यहां लाई गई, उसका अच्छा विश्लेषण किया है। उनका मानना है कि इस नई अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे "घर और स्कूल के बीच की दूरी बढ़ा दी है"। अभिप्राय है कि हर सांस्कृतिक आयाम में घर के प्रतिमान अलग और स्कूल जिन प्रतिमानों का प्रतिनिधित्व करता है, वे अलग हो गए। भाषा, पोशाक, उठने-बैठने के तरीके इत्यादि सभी में, घर अलग और स्कूल अलग हो गया और बच्चे के मन में घर, गांव, समाज को लेकर एक हीन भावना व्याप्त होने लगी और वह स्वतः ही उन चीजों की उन प्रतिमानों की, नकल करने के लिए प्रवृत्त होने लगा जिसे वह स्कूल या शिक्षा से अनायास ही जोड़ने लगा।

अपने इतिहास में झांकने से हमें यह बात और भी अधिक स्पष्ट होती है। 1824 में कलकत्ता के नजदीक बैरकपुर की छावनी में एक बड़ा सिपाही विद्रोह हुआ था जिससे अंग्रेज बुरी तरह घबरा गए थे पर किसी तरह उन्होंने स्थिति को काबू में कर लिया था। 3 वर्ष बाद इस स्थिति के संदर्भ में विलियम बैंटिक, जो उस समय गवर्नर जनरल था, उसने लंदन के उच्च अधिकारियों को एक पत्र लिखा जिसमें ऐसा कुछ कहा कि - "अब स्थिति सामान्य हो रही है। भारत का (अंग्रेजी शिक्षा से) पढ़ा-लिखा वर्ग अब अपने तौर-तरीके छोड़कर हमारी नकल करने में लग गया है। आधुनिक शिक्षा का हीनता और उसके बाद नकल करने की प्रवृत्ति के गठजोड़ को या तो अंग्रेजों ने समझा या उसके बाद महात्मा गांधी ने गांधी जी के पीछे चलने का दावा करने वालों ने भी इसे नहीं समझा आजादी के पहले भी और उसके बाद भी ।

हमारी ग्रामीण महिलाएं इसी बीमारी को या इसी दोष को अपने अंदाज में हमें बता रही थीं। जब उन्होंने कहा- "उन्हें होना सिखाओ दिखना / दिखाना नहीं। हमारे लिए तो यह एक मंत्र भी है और सूत्र भी, जैसा बन गया जिसने आगे की हर दिशा का मार्गदर्शन किया। इस एक सूत्र ने बहुत सी परतें खोलने का काम किया। हमने देश में अलग-अलग शिक्षा व्यवस्थाओं के अंतर्गत चलने वाली पाठ्यपुस्तकों का बारीकी से अध्ययन किया और पाया कि अनजाने ही उनमें ऐसी बातें भरी पड़ी हैं जिनसे हीनता और नकल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे किताबें एनसीईआरटी की हैं या आईसीएससी या शिशु मंदिर की। मसलन कक्षा 3 की हिंदी की पाठ्य पुस्तक में एक पाठ सरोजिनी नायडू पर था जिसमें शुरू की ही पंक्तियों में कुछ ऐसा लिखा था- "सरोजिनी नायडू बहुत होशियार थीं। पाँच वर्ष की उम्र में वे अंग्रेजी में सुंदर कविता लिखती थीं। इसे उदाहरण के तौर पर दे रहा हूं। यह उत्तर प्रदेश के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताब की बात है। उत्तर प्रदेश में बच्चा घर पर अवधी, भोजपुरी, ब्रज, कौरवी, इत्यादि अपनी बोली बोलते होंगे। कक्षा तीन में आमतौर पर बच्चे की उम्र लगभग 8 से 9 वर्ष की होती है। इन बच्चों ने पहले से ही अंग्रेजी को लेकर पता नहीं क्या-क्या सुन रखा होगा। पता नहीं इस भाषा से वह कितना आतंकित होंगे, कितनी दूर की कौड़ी उसे समझते होंगे ? इसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर वह मुश्किल नहीं। जब 8 / 9 साल का बच्चा हिन्दी की पुस्तक में पढ़ता है कि सरोजिनी नायडू बड़ी होशियार थीं तो उसको उनके अंग्रेजी ज्ञान से जरूर जोड़ता होगा। और फिर यह कि सरोजिनी जी तो पाँच वर्ष में ही अंग्रेजी में कविता लिख लेती थी और यह बच्चा तो अभी a, b, c, भी ठीक से नहीं जानता, तो यह तो अपना पूरा आत्मविश्वास ही खो देता होगा। इस बात को समझने के लिए कोई बड़ा मनोवैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं। इस तरह की तमाम बातें जो अनजाने ही बच्चे का मनोबल जोड़ देती हैं हमारी पाठ्यपुस्तकों में भरी पड़ी हैं।

धीरे-धीरे यह बात समझ आने लगी कि हमारी किताबें मनोबल तोड़ने के काम के साथ साथ, गाँव और गांवों से, भारत (इंडिया से अलग) से जुड़ी, साधारण आदमी की मान्यताएँ, स्थानीय भाषाएँ, उनकी पोशाक, उठने-बैठने के तरीके, काम करने के तरीके, उनकी पारंपरिक ज्ञान पद्धतियाँ सभी को "पिछड़ेपन" की कोटि में डालने का काम और शहर, शहरीकरण, आधुनिकता, अंग्रेजी भाषा पश्चिमी संस्कृति को ("विकास" या "विकसित") ऊंचा दर्जा देने का काम कर रही हैं।

इसी क्रम में हमने गांधी जी की "बुनियादी शिक्षा को समझने का प्रयास किया। और समझ बनी कि गांधी जी वस्तु (object) और वास्तविकता (reality) को विषय (subject) से अलग रखते थे और उनकी प्राथमिकता में वस्तु और वास्तविकता का स्थान विषय से ऊंचा था। आज की शिक्षा में, ठीक इसके विपरीत, विषयों का अधिमूल्यन किया गया है और स्वतः ही वस्तु / वास्तविकता का महत्व गिर गया है, वे पीछे धकेल दिये गये। इसका एक परिणाम शिक्षा का पूरी तरह अव्यावहारिक हो जाना है।

सही मायने में शिक्षा का उदेश्य वस्तु (जो कुछ भी हमारे अंदर और बाहर के संसार में है) और उसकी वास्तविकता को समझना ही तो है वस्तु और वास्तविकता नौसर्गिक है। धरती, धरती में पाये जाने वाले भौतिक पदार्थ, सूरज, चांद, सितारे, अंतरिक्ष, पेड़-पौधे, हरियाली, पशु-पक्षी मनुष्य और उसके अंदर का संसार (ये सारे वस्तु की कोटि में आते हैं) और जिन नियमों के अंतर्गत ये कार्यरत हैं, जिस परस्परता में यह रहते हैं, इसे वास्तविकता कहा जा रहा है। इन्हें समझने के उद्देश्य से मनुष्य ने विभिन्न कोटियां बनाई विषयों का तरीका निकाला और वर्गीकरण किया। यही बात पाठ्य पुस्तकों के ऊपर भी लागू होती है। विषय और पुस्तकें मनुष्य ने बनाई अपनी सुविधा के लिए। वे एक प्रकार से माध्यम या साधन हैं, लक्ष्य तो वस्तु और वास्तविकता को समझना ही होता है।

मुनष्य एक सुंदर जीवन जी सके। उसका मनोबल, सामर्थ्य, अस्मिता का भाव और आत्म-विश्वास ऊंचा रहे और वह अपनी जीविका ठीक से चला सके। बगैर दुनिया की चूहा-दौड़ में शामिल हुए, यही ध्येय उत्कृष्ट ध्येय है। भारत की महानता तो इसी बात में रही है कि यहां का साधारण ही श्रेष्ठ था। हमने पाया कि आधुनिक शिक्षा का इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है। इसलिए हमने अपने स्कूलों में पाठ्यपुस्तकों को एक किनारे किया। पाठ्यपुस्तकें भी तो विषय की ही तरह माध्यम ही हैं. लक्ष्य नहीं। विषयवस्तु को हमने स्थानीय (भोगौलिक एवं सांस्कृतिक) परिवेश से जोड़ा। आस-पास के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-नाले, पर्वत, खेती के तरीके, आस-पास की वस्तु और शिल्प कला, स्थानीय त्यौहार, स्थानीय पकवान, अनाज, उनके संरक्षण के तरीके, पन-चक्की, स्थानीय ज्ञान परम्पराएँ, वहां की बोली-भाषा, मुहावरे, कहावतें, किंवदंतियों, इत्यादि हमारी विषय-वस्तु बने। इन्हें केंद्र में रख कर न सिर्फ हम विभिन्न विषयों की व्यावहारिक जानकारी दे पाए पर साथ ही दो महत्वपूर्ण काम भी सहज ही हो गए। एक तो हमने ढेर सारे पारंपरिक ज्ञान व परम्पराओं का पता चला। भोजन, अनाज और स्वास्थ्य का संबंध, पशु-पक्षियों के व्यवहार, बादलों और आसमान की छटा, हवा की गति और दिशा का मौसम, खेती से संबंध, तिथियों और चंद्रमा की कलाओं, पश्चिमी आकाश का सूर्यास्त के समय के रंग का खेती और मौसम की भविष्यवाणियों से संबंध, अच्छे और बुरे व्यवहार की सामान्य बातें ये सब स्थानीय बोली-भाषा की कहावतों, दोहों, मुहावरों और कहानियों में भरा पड़ा है। यह एक अनूठा और गज़ब का संसार है, जो पूरे भारत के लोक जीवन में घुला मिला है। आधुनिक शिक्षा की आंधी में तेजी से लुप्त होते जा रहा है। हमने इस ज्ञान को बच्चों को प्रत्यक्ष जाँचने के लिए प्रेरित किया। मसलन अगर यह मान्यता है कि फागुन के महीने में जब कौवा अपना घोंसला बनाता है और वह पेड़ के बीच में यानी पत्तों के बीच में (न बहुत ऊपर, न बहुत नीचे) बनाता है तो मान्यता है कि उस वर्ष अच्छी बारिश होगी और अगर घोंसला पेड़ के ऊपरी हिस्से में किसी साल बनाता है तो उस वर्ष बारिश बहुत कम होगी। ध्यान रखने की बात है कि फागुन में घोंसला बनता है और बारिश आषाढ़ से शुरू होती है। बीच में 3-4 महीनों का फासला है। हमने इस मान्यता पर अपने स्कूलों में प्रोजेक्ट बना कर इस बात को जाँचने की कोशिश की एक नहीं लगातार कई वर्षों तक और हमें इसके सुखद परिणाम मिले। इसी प्रकार मान्यता है कि अगर पश्चिमी आकाश का रंग सूर्यास्त के वक्त रक्तिम होगा तो ठीक नौ माह के बाद (हमारी तिथि की गणना के अनुसार, जो चंद्रमा से संचालित है, न कि सूरज से), तो उस दिन जहाँ, जिस गाँव में सूर्यास्त देखा गया है वहाँ, बारिश ज़रूर होगी। इसे भी हमने जांचा और पाया कि यह ज्ञान कारगर है। इससे हमें यह समझ आया कि हमारा पारंपरिक ज्ञान सदियों के गहरे और बारीक अवलोकन (observation) पर आधारित है और उसमें नैसर्गिक अवयवों के आपसी संबंध देखे गए हैं। ऐसा- ऐसा होता है तो ऐसे-ऐसे परिणाम देखने को मिलते हैं। इसमें आज के आधुनिक विज्ञान की तरह जिरह सिर्फ "क्यों" तक नहीं सिमटती वरन यहाँ हमारी लोक परम्पराओं में "क्या" को समझने का प्रयास है। लोक ज्ञान परम्पराएँ अनुभवजन्य ज्ञान (empirical) होती हैं, जिन्हें हमने आधुनिकता की चकाचौंध में रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। पर हमारा अनुभव है इसे अनुभव के आधार पर जाँचने की जरूरत है और सही हों तो सम्मानित करने की ज़रूरत है।

स्थानीय परिवेश से शिक्षण के हमारे प्रयोग से हमने पाया कि बच्चे पढ़ा-लिखा होने और शिक्षित होने के भेद को समझ पाये। उनके बुजुर्ग जिनको वे अनपढ़ होने की वजह से एक तरफ उन्हें तिरस्कार की नज़र से देखते थे और दूसरी तरफ अपने में हीनभावना महसूस करते थे, को वे धीरे धीरे सम्मान की नज़र से देखने लगे और उनमें अस्मिता के भाव की भी वृद्धि हुई। अब वे समझ पाये कि जो ज्ञान उनकी किताबों में नहीं था, उनके बुजुर्गों के पास था और वह कारगर था, व्यावहारिक था जिसे वे अपने स्कूलों में प्रयोग कर के सिद्ध कर पाये।

इस क्रम में हमने अपने पढ़ाने के तरीके में तब्दीली करनी पड़ी। ज्ञान को अस्तित्व या प्रकृति सहज बनाने के प्रयास हुए। उदाहरण के लिए, हमारी तिथि की गणना अस्तित्व सहज है। चांद को देखकर आप तिथि का अंदाजा लगा सकते हैं (प्रथमा, दूज, अमावस्या, पूर्णिमा इत्यादि) । जबकि अंग्रेजी तारीखें आपको याद रखनी पड़ती हैं। दूसरा उदाहरणतः किताबों में लिखा होता है, "सूरज पूरब से उगता है। इस विधि को हमने ठीक किया। हम पढ़ाते थे- "सूरज जिस दिशा से उगता है, उसे हम पूरब कहते हैं"। कहने का मतलब शब्द और अर्थ या वस्तु / वास्तविकता में भेद करना हमने सहज ही प्राप्त किया। शब्द सिर्फ एक नाम है। नामकरण मनुष्य ने किया है। अस्तित्व में घटनाएं, वस्तुएं पहले से हो रही हैं। इनमें नाम और वास्तविकता में भेद करना आवश्यक है। नहीं तो प्रतीक, नाम, झंडे, शब्द असली वस्तु पर भारी पड़ने लगते हैं और हम असलियत से दूर होते चले जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।

स्थानीय परिवेश (भौगोलिक एवं सांस्कृतिक) से शिक्षण का सहज परिणाम यह भी होने लगा कि पढ़ाई वस्तु केंद्रित (विषय केंद्रित नहीं होने की वजह से स्वतः ही समन्वित (integrated) ढंग से होने लगी । वस्तु / वास्तविकता को समझने के लिए एक नहीं, अनेक विषयों की आवश्यकता होती है। वे सहज ही जुड़ने लगे । विषयों के बीच जो एक (अस्वाभाविक) लकीर हमने खींच दी है, वह टूटने लगी। जैसे, खेती की बात के साथ गणित, स्वास्थ्य, लोक ज्ञान, भोजन, पाकशास्त्र सहज ही समन्वित होने लगे।

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Post By: Kesar Singh
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