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पृथ्वी की सजीव सृष्टि का मूलाधार पर्यावरण में सन्निहित है तथा पर्यावरण का अर्थ प्राकृतिक रूप से सुस्थापित अद्यतन पारिस्थितिकी में सामंजस्य स्थापना से संबद्ध है। पर्यावरण में होने वाला सूक्ष्मतर परिवर्तन भी भविष्य के बहुआयामी दूरगामी दुष्परिणामों का वाहक होता है तथा पर्यावरण में पाई जाने वाली अप्राकृतिक तथा असंतुलित असामान्यता ही प्रदूषण कहलाती है। वस्तुत:, मनुष्य प्रकृति के समस्त घटकों में से परमात्मा द्वारा सृजित सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि तथा सर्वोत्तम कृति है पर वह अपनी बौद्धिक उन्नतावस्था एवं श्रेष्ठता के दम्भ में अपनी छोटी-छोटी तथाकथित सुविधाओं की खोज व होड़ में विभिन्न भस्मासुरों को जन्म देता तथा पालता-पोसता रहता है।
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इसके अतिरिक्त इसमें पॉलीविनायल क्लोराइड (पी वी सी) भी पाया जाता है। प्लास्टिक अथवा पॉलीथीन में पाये जाने वाले इन रसायनों को किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक अथवा पॉलीथीन को जमीन में दबाने, आग में जलाने और पानी में बहाने से रसायन का प्रभाव समाप्त नहीं होता है। प्लास्टिक को जलाने से रसायन का प्रभाव समाप्त नहीं होता है। प्लास्टिक को जलाने से रसायन के तत्व वायुमंडल में मिलकर उसे प्रदूषित करते हैं। प्लास्टिक अथवा पॉलीथीन को जमीन के अंदर दबाने से गर्मी पाकर विषाक्त रसायन जहरीली गैसें पैदा कर देते हैं। जमीन के अंदर गर्मी पाकर यह गैस विस्फोट भी कर सकती है। प्लास्टिक बैग अत्यधिक टिकाऊ होते हैं और इसकी यह विशेषता पर्यावरणविदों के माथे पर परेशानियों की लकीरें खींच दे रही हैं। दरअसल, बहुसंख्य प्लास्टिक बैग इतने अधिक टिकाऊ होते हैं कि उन्हें नष्ट होने में लगभग सवा लाख साल तक भी लग सकते हैं।
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प्लास्टिक के कचरे को पूर्णतया नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसीलिये वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि इसे कुछ तकनीकों से गला कर फिर से उपयोग में लाया जा सके। पुन: उपयोग की यह क्रिया पुनर्चक्रण कहलाती है। वस्तुत: यह क्रिया कठिन भी है और इसमें धन भी बहुत व्यय होता है। इसके अतिरिक्त इस क्रिया से भी प्रदूषण बढ़ता है। जर्मनी के पर्यावरण वैज्ञानिक के अनुसार यदि 50,000 पॉलीथीन बैग्स तैयार किये जाते हैं तो लगभग 17 किलो सल्फर डाइऑक्साइड गैस वायुमंडल में घुल जाती है। इसके अतिरिक्त मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन और हाइड्रोकार्बन्स का वायु में रिसाव होता है और पानी में कुछ जहरीले पदार्थ भी आकर मिलते हैं। इसी प्रकार जब प्लास्टिक फाइबर बनाये जाते हैं तो उसमें से न्यूनतम 13 किलो नाइट्रोजन ऑक्साइड और 12 किलो सल्फर डाइऑक्साइड निकलकर वायुमंडल में मिलती है जो पेड़ पौधों एवं फसलों को नुकसान पहुँचाती हैं।
आज हमारे देश के विभिन्न भागों में प्लास्टिक कचरे के दुष्प्रभावों के प्रति नागरिक जागृत होकर इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने हेतु आंदोलनरत हैं। भारत में केंद्रीय सरकार ने रिसाइकल्ड, प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एंड यूजेज रूल्स के अंतर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा विनिर्माण पर प्रतिबंध लगाया गया है। इसके बावजूद विभिन्न राज्यों द्वारा छ: माह की कड़ी सजा के प्रावधान किये जाने, उद्योगों की बिजली काट दिये जाने और पालन न किये जाने की स्थिति में प्रतिष्ठान को बंद किये जाने जैसे प्रावधानों के होने के बावजूद, महीन प्लास्टिक बैग अभी भी परिचालन में हैं। नियमों को प्रभावी रूप से लागू करने के लिये कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिए जाने तथा ‘रिसाइकल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एंड यूजेज रूल्स’ में संशोधन किया जाना आवश्यक है। इनके अतिरिक्त उद्योगों के लिये उचित पैकेजिंग नीति तथा पैकेजिंग दिशा-निर्देश जारी किये जाने की आवश्यकता है। संपूर्ण प्लास्टिक कचरा प्रबंधन ही इस समस्या का सर्वोत्तम विकल्प है। औसतन हमारे देश का प्रत्येक परिवार हर साल तीन से चार किलो प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल करता है। बाद में यही प्लास्टिक के थैले कूड़े के रूप में पर्यावरण के लिये मुसीबत बनते हैं।
विगत वर्षों में देश में करीब 15 लाख टन तक वार्षिक कचरा सिर्फ प्लास्टिक का ही हो रहा था। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक उत्पादन किया जाता है। इसमें से करीब आधा यानी 20 लाख टन प्लास्टिक रिसाइक्लिंग के लिये मुहैया होता है, हालाँकि हर साल करीब साढ़े सात लाख टन कूड़े की रिसाइक्लिंग की जाती है। कूड़े की रिसाइक्लिंग को उद्योगों का दर्जा हासिल है और यह सालाना करीब-करीब 25 अरब रुपये का कारोबार है। हमारे देश में प्लास्टिक की रिसाइक्लिंग करने वाली छोटी-बड़ी 20 हजार इकाइयां हैं तथा करीब 10 लाख लोग प्लास्टिक संग्रह के काम में लगे हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी बड़ी तादाद में शामिल हैं। दरअसल, प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याएं ज्यादातर कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पैदा हुई हैं। प्लास्टिक का यह कचरा नालियों और सीवेज व्यवस्था को ठप कर देता है। नदियों में भी इनकी वजह से बहाव पर असर पड़ता है और पानी के दूषित होने में मछलियों की मौत तक हो जाती है।
इतना ही नहीं, कूड़े के ढेर पर पड़ी प्लास्टिक की थैलियों को खाकर बहुसंख्य छुट्टा पशुओं की मृत्यु हो रही है। रिसाइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो जमीन में पहुँच जाते हैं और इससे मिट्टी एवं भूजल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रिसाइक्लिंग इकाइयाँ नहीं लगी होती उनमें रिसाइक्लिंग के दौरन पैदा होने वाले जहरीले धुएँ से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए तो यह भूजल के स्रावण को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिये और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक मूल रूप से नुकसानदायक नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक के थैले अनेक हानिकारक रंगो/रंजक और अन्य तमाम प्रकार के अकार्बनिक रसायनों को मिलाकर बनाए जाते हैं। रंग और रंजक एक प्रकार के औद्योगिक उत्पाद होते हैं जिनका इस्तेमाल प्लास्टिक थैलों को चमकीला रंग देने के लिये किया जाता है।
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पॉलीथीन बैग निगलने से गाय-भैंस पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव
1. जुगाली करने वाले पशुओं के पाचन तंत्र में चार प्रमुख उपभाग क्रमश: रूमेन, रेटिकुलम, ओमेसम तथा एबोमेसम होते हैं। इन उपभागों में से रूमेन आकार में सबसे बड़ा (व्यस्क गाय में लगभग 200 लीटर क्षमता का) होता है। वैसे तो रूमेन में सामान्य रूप में भी थोड़ी बहुत गैस बनती रहती है परंतु जब पॉलीथीन की थैलियाँ पशु की ग्रसनलिका (इसोफेगस) में फँस जाती हैं तो पशु के ग्रास-नलिका का मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण पशु की पाचन प्रणाली में गंभीर रुकावट पैदा हो जाती है। इस दशा में रोमंथी पशुओं के पाचन तंत्र के अंदर का दबाव 6-7 गुणा तक बढ़ जाता है, डायफ्राम एवं फेफड़ों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है, श्वांस गति तीव्र हो जाती है, फेफड़े संकुचित हो जाते हैं तथा शरीर के विभिन्न हिस्सों में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है। अविलम्ब समुचित उपचार न मिलने की दशा में बहुतेरे पशु असमय मर जाते हैं।
2. जब छुट्टा पशु सड़कों, गलियों और मुहल्लों में यत्र-तत्र फेंका हुआ कचरा, फल, सब्ज़ियाँ तथा उनके छिलके आदि खाते हैं तो वे इनके साथ पॉलीथीन की थैलियाँ भी निगल लेते हैं। इन थैलियों के पशु की जीभ के पिछले हिस्से तक पहुँच जाने की दशा में पशु इन्हें बाहर निकालने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में पशु को ‘ट्रामेटिक रेटिकुलाइटिस’ हो जाता है तथा पशु बुखार, उत्पादन में कमी, पेट में दर्द, धनुष की तरह की दर्दयुक्त कमर, कब्ज तथा बार-बार हल्के अफारे का शिकार होने जैसी समस्याओं से प्राय: ग्रस्त होता रहता है।
3. मनुष्य के उपभोग के पश्चात पॉलीथीन थैले में शेष बचे खाद्य अवशेष समय बीतने के साथ सड़ते-गलते रहते हैं। जब इन सड़े-गले खाद्य पदार्थों को जानवर पॉलीथीन थैलियों के साथ जाने-अनजाने में निगल लेते हैं तो एक तो वे गंभीर विषाक्तता तथा पाचन तंत्र की विभिन्न समस्याओं जैसे दस्त, पेचिश, तथा कृमि संक्रमण से ग्रस्त हो जाते हैं। दूसरी ओर पॉलीथीन थैलियों का कचरा उनके रेटिकुलम में उत्तरोत्तर एकत्र होकर गंभीर अवरोध की स्थिति पैदा कर देता है। इस दशा में हमारे पशु में अति तीव्र अफारा रोग की स्थिति पैदा हो जाती है तथा सड़े-गले खाद्य पदार्थों के विघटन के कारण अधिक मात्रा में उत्पन्न हुई गैसे के कारण पशु के फेफड़ों, डायफ्राम तथा हृदय पर अत्यधिक दबाव की स्थिति बन जाती है। फलस्वरूप, निरीह पशु अत्यधिक पीड़ा, रूमेन में दबाव की स्थिति श्वासावरोध तथा हृदयाघात के कारण असमय ही काल के गाल में समा जाता है।
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हमारे देश में प्लास्टिक उद्योग की वृद्धि दर विश्व के अनेक देशों से बहुत अधिक है। भारत में पॉलीथीन तथा प्लास्टिक कचरे का पर्यावरणसम्मत निस्तारण, पुनर्चक्रण तथा प्रबंधन असंगठित एवं अत्यल्प प्रभावशाली होने के कारण हम अपने पर्यावरण, अपनी पृथ्वी, अपने भूजल व अन्य जलस्रोतों, शहरी तथा ग्रामीण जल निकास प्रणाली को, स्वयं अपने आप को, अपनी संततियों को तथा अपने पशुधन को निरंतर अपूरणीय दीर्घकालिक क्षति पहुँचाने के कुप्रयास में संलग्न हैं। इसके पीछे हमारे पास अपनी सुविधाभोगी तथा आलस्यवृत्ति में लगे रहने के अतिरिक्त कोई भी कारण नहीं है।
हम सबने संभवत: यह शपथ खा रखी है कि हम अपने साथ बाजार से सामान क्रय करने के लिये कतई जूट, कपड़े या कागज का झोला लेकर कभी भी नहीं चलेंगे, चाहे हमारी अपनी ही आश्रयदाता धरती, हमारा पर्यावरण, जल संसाधन, पशुधन हम सब का तथा हमारी भविष्य की संतानों का चाहे जितना भी अहित क्यों न हो जाये। वस्तुत:, इस समस्या का निदान संयमित व प्रकृति हितकारी संरक्षण जीवन पद्धति को अपनाकर ही किया जा सकता है। राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक तथा पॉलीथीन के न्यूनतम उपयोग, संगठित पुनर्चक्रण तथा पुनर्उपयोग जैसे महत्त्वपूर्ण घटकों को अपनाने, सामूहिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर पर्यावरणीय जागरूकता को बढ़ावा देने, स्वयं के स्तर पर पॉलीथीन की थैलियों का कतई उपयोग न करने के संकल्प तथा शासकीय स्तर पर इस समस्या को हल करने के लिये कठोर विधायी प्राविधान व दृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा ही इस समस्या का प्रभावी निस्तारण संभव है।
।।प्लास्टिक को कहें - नहीं।।
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