तालाब निर्माण के दौर में गोंड राजाओं ने प्रशासन की पद्धति भी विकसित की थी। वे मालगुजार की नियुक्ति करते थे जिसका काम राजस्व की वसूली करना और पूरे इलाके का सामान्य प्रशासन देखना था। मालगुजार को निर्धारित राजस्व राज्य के खजाने में देना पड़ता था अब यदि मालगुजार अधिक राजस्व उगाह लेता था तो उसे लाभ होता था लेकिन कम राजस्व उगाहने पर उसे अपनी तरफ से भरपाई करनी होती थी। इसलिए बेहतर उत्पादन की खातिर मालगुजार खुद तालाब बनवाते और उनके रख-रखाव की व्यवस्था करवाते थे ताकि नुकसान न उठाना पड़े। तालाब, नहर या किसी ढाँचे के टूटने-फूटने पर मालगुजार की निगरानी में ग्रामीण उसे ठीक करते थे।
पानी के वितरण के लिए मालगुजार और गाँव के चार-पाँच सम्मानित व्यक्तियों की एक समिति होती थी। यह समिति पानी की उपलब्धता आदि को देखकर उसके हिसाब से वितरण की व्यवस्था करती थी जिसे सभी किसान मानते थे। यह समिति ‘पानकर’ की नियुक्ति करती थी जो आमतौर पर ऐसा भूमिहीन मजदूर होता था जिसकी सिंचाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती। ‘पानकर’ तालाबों से पानी खोलने और समिति के निर्देशों का पालन करवाने का काम करता था। बदले में गाँव भर के किसान ‘पानकर’ के लिए अनाज और कपड़ों की व्यवस्था करते थे। किसी वजह से कोई किसान ‘पानकर’ का हिस्सा देने से चूक जाता था तो वह खुद जाकर ले लेता था। यदि ‘पानकर’ किसी को स्वार्थवश ज्यादा लाभ देता था तो समिति उसे उसके तमाम अधिकार और लाभ छीनकर निकाल देती थी। तालाब या नहर को तोड़ने वालों को उसके हिस्से का पानी नहीं दिया जाता था। यदि ऐसे आदमी ने पहले ही पानी ले लिया है तो उस पर अर्थदण्ड लगाया जाता था और इसे भी न देने पर अगले साल ऐसे व्यक्ति को पानी नहीं दिया जाता था।
तालाब निर्माण में काम करने वाले किसानों को बिना मूल्य के पानी दिया जाता था। तालाब की देखभाल व मरम्मत करने वालों को भी मुफ्त पानी देने की व्यस्था थी। तालाब के रख-रखाव की जिम्मेदारी उसके आस-पास के किसानों की होती थी और उसके लिए बाकायदा कानून बने थे।
तीन-चार सालों में एक बार तालाब की सफाई की जाती थी और इससे निकलने वाली बेहद उपजाऊ गाद, जिसे ‘पाकन’ कहा जाता था, को मालगुजार किसानों में बँटवा देता था। वैसे मालगुजार से पूछकर कोई भी किसान तालाब की गाद ले सकता था। रख-रखाव, सफाई, निर्माण और टूट-फूट के सुधार के लिए पैसा देने के बजाय मुफ्त में तालाब से पानी और गाद लेने का प्रावधान था।
गोंड़ों के चाँदा राज्य में बने तालाब की यह प्रथा मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, बालाघाट, मंडला आदि जिलों समेत महाराष्ट्र के कई इलाकों में आज भी दिखाई देती है। यह तालाब आज भी समाज की पानी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं।
पानी के वितरण के लिए मालगुजार और गाँव के चार-पाँच सम्मानित व्यक्तियों की एक समिति होती थी। यह समिति पानी की उपलब्धता आदि को देखकर उसके हिसाब से वितरण की व्यवस्था करती थी जिसे सभी किसान मानते थे। यह समिति ‘पानकर’ की नियुक्ति करती थी जो आमतौर पर ऐसा भूमिहीन मजदूर होता था जिसकी सिंचाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती। ‘पानकर’ तालाबों से पानी खोलने और समिति के निर्देशों का पालन करवाने का काम करता था। बदले में गाँव भर के किसान ‘पानकर’ के लिए अनाज और कपड़ों की व्यवस्था करते थे। किसी वजह से कोई किसान ‘पानकर’ का हिस्सा देने से चूक जाता था तो वह खुद जाकर ले लेता था। यदि ‘पानकर’ किसी को स्वार्थवश ज्यादा लाभ देता था तो समिति उसे उसके तमाम अधिकार और लाभ छीनकर निकाल देती थी। तालाब या नहर को तोड़ने वालों को उसके हिस्से का पानी नहीं दिया जाता था। यदि ऐसे आदमी ने पहले ही पानी ले लिया है तो उस पर अर्थदण्ड लगाया जाता था और इसे भी न देने पर अगले साल ऐसे व्यक्ति को पानी नहीं दिया जाता था।
तालाब निर्माण में काम करने वाले किसानों को बिना मूल्य के पानी दिया जाता था। तालाब की देखभाल व मरम्मत करने वालों को भी मुफ्त पानी देने की व्यस्था थी। तालाब के रख-रखाव की जिम्मेदारी उसके आस-पास के किसानों की होती थी और उसके लिए बाकायदा कानून बने थे।
तीन-चार सालों में एक बार तालाब की सफाई की जाती थी और इससे निकलने वाली बेहद उपजाऊ गाद, जिसे ‘पाकन’ कहा जाता था, को मालगुजार किसानों में बँटवा देता था। वैसे मालगुजार से पूछकर कोई भी किसान तालाब की गाद ले सकता था। रख-रखाव, सफाई, निर्माण और टूट-फूट के सुधार के लिए पैसा देने के बजाय मुफ्त में तालाब से पानी और गाद लेने का प्रावधान था।
गोंड़ों के चाँदा राज्य में बने तालाब की यह प्रथा मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, बालाघाट, मंडला आदि जिलों समेत महाराष्ट्र के कई इलाकों में आज भी दिखाई देती है। यह तालाब आज भी समाज की पानी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं।
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