राजा-रानियों की पहल और जरूरत के कारण बनने वाले इन जल स्रोतों के साथ-साथ समाज के कई हिस्सों, व्यक्तियों ने भी जलस्रोतों के निर्माण को अपने जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि माना था। बैतूल जिले के एक कस्बे मलाजपुर की नर्तकियों की कहानी भी उतनी ही प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने एक रात की समूची मेहनत और कमाई से एक सुन्दर बावड़ी बनवाई थी। कहा जाता है कि 1556 ई. के अकबर के जमाने में मलाजपुर में एक रात में 900 बारातें आई थीं जिनके मनोरंजन के लिए नर्तकियों ने नाचा-गाया था। इसमें मिले निछावर से इन नर्तकियों ने 75 फुट चौड़ी और 30 फुट गहरी एक सुन्दर बावड़ी बनवा दी थी। पुराने गजेटियर में भी इसका जिक्र मिलता है।
यह बावड़ी शंकु आकार की है जिन्हें ‘चकाभों’ (चका यानि गोल और भों यानी कुआँ) कहा जाता है। बावड़ी में सुन्दर पच्चीकारी वाली गोलाकार सीढ़ियाँ हैं। नर्तकियों ने शर्त लगाई थी कि यदि राजा घोड़े पर बैठकर बावड़ी को लाँघ जाएगा तो नर्तकी उसका हाथ पकड़ेगी और बावड़ी राजा को दे दी जाएगी। कइयों ने नर्तकियों और बावड़ी की सुन्दरता से प्रभावित होकर यह कोशिश की लेकिन अंततः राजाओं को भी हार माननी पड़ी। घोड़ों के कूदने से बने खुर के निशान इस लोककथा की सच्चाई बखानते हैं अलबत्ता नर्तकियों द्वारा समाज को समर्पित बावड़ी आज भी समाज के ही पास है।
कहा जाता है कि दियादेव और फातरदेव नाम की दो पहाड़ियों के पास बसा मलाजपुर एक बड़ा शहर हुआ करता था। लेकिन सन् 1914 से 18 के बीच पड़े प्लेग के कारण लोग इसे छोड़कर चले गए। इस कस्बे के आसपास 6-7 किलोमीटर के घेरे में आज भी मूर्तियाँ मिलती है। मलाजपुर के पास के जरीढाना गाँव में एक मंदिर और सिक्के के आकार का कुआँ है जिसमें अथाह पानी मिलता है। कस्बे में 17 एकड़ का एक विशाल तालाब भी है जिसे 1901 में अंग्रेजों के जमाने में बनाया गया था। आजकल यह तालाब 4-5 एकड़ तक सिमट गया है। इस तालाब से एक तगाड़ी मिट्टी फेंकने पर उस जमाने में एक कौड़ी दी जाती थी।
मलाजपुर में कबीर पंथियों का एक केन्द्र है, जहाँ आजकल देवजी साध महंत हैं। इनके पूर्वज राणाप्रताप की भूमि मेवाड़ से सात पीढ़ी पहले आए थे। ये घुमंतू जाति के थे और राजा की सेना में सिपाही थे। सबसे पहले ये कटकुई गाँव में आकर बसे थे और बालगंगा नदी के बंधारा घाट पर हरवाही करते खेलते रहते थे। कहा जाता है कि बचपन के उन्हीं दिनों में उनके चमत्कारों को किसी ने छिपकर देख लिया था। 16वीं शताब्दी में इस इलाके में आए इन देवजी के गुरू हरदा के पास के खिड़कीवाला गाँव के जैतासिंह थे जो कि खुद अँधे थे। देवजी ने अपने प्रताप से गुरू को आँखे वापस दिलवा दी थीं इसलिए वे गुरूसाहब कहलाते थे। 1707 ई. में इनकी समाधि का निर्माण हुआ था।
उस समय के बड़े शहर मलाजपुर को पानी देने के लिए, चूना, गुड़, बेल के फल और रेत को मिलाकर बनाए गए मसाले से एक पुलनुमा बाँध बनाया गया था। ऐसे छोटे बाँधों को यहाँ ‘रख्खन’ कहा जाता है। मसाले को पीसने और मिलाने के लिए इस्तेमाल किए गए तब के चाक या चका आज भी मौजूद हैं। मलाजपुर नदी पर बनाए गए घाट भी इसी मसाले से बनाए गए हैं। इस इलाके की खुदाई में आज भी बेहतरीन कटे हुए पत्थर, औजार और राख आदि मिलते हैं।
यह बावड़ी शंकु आकार की है जिन्हें ‘चकाभों’ (चका यानि गोल और भों यानी कुआँ) कहा जाता है। बावड़ी में सुन्दर पच्चीकारी वाली गोलाकार सीढ़ियाँ हैं। नर्तकियों ने शर्त लगाई थी कि यदि राजा घोड़े पर बैठकर बावड़ी को लाँघ जाएगा तो नर्तकी उसका हाथ पकड़ेगी और बावड़ी राजा को दे दी जाएगी। कइयों ने नर्तकियों और बावड़ी की सुन्दरता से प्रभावित होकर यह कोशिश की लेकिन अंततः राजाओं को भी हार माननी पड़ी। घोड़ों के कूदने से बने खुर के निशान इस लोककथा की सच्चाई बखानते हैं अलबत्ता नर्तकियों द्वारा समाज को समर्पित बावड़ी आज भी समाज के ही पास है।
कहा जाता है कि दियादेव और फातरदेव नाम की दो पहाड़ियों के पास बसा मलाजपुर एक बड़ा शहर हुआ करता था। लेकिन सन् 1914 से 18 के बीच पड़े प्लेग के कारण लोग इसे छोड़कर चले गए। इस कस्बे के आसपास 6-7 किलोमीटर के घेरे में आज भी मूर्तियाँ मिलती है। मलाजपुर के पास के जरीढाना गाँव में एक मंदिर और सिक्के के आकार का कुआँ है जिसमें अथाह पानी मिलता है। कस्बे में 17 एकड़ का एक विशाल तालाब भी है जिसे 1901 में अंग्रेजों के जमाने में बनाया गया था। आजकल यह तालाब 4-5 एकड़ तक सिमट गया है। इस तालाब से एक तगाड़ी मिट्टी फेंकने पर उस जमाने में एक कौड़ी दी जाती थी।
मलाजपुर में कबीर पंथियों का एक केन्द्र है, जहाँ आजकल देवजी साध महंत हैं। इनके पूर्वज राणाप्रताप की भूमि मेवाड़ से सात पीढ़ी पहले आए थे। ये घुमंतू जाति के थे और राजा की सेना में सिपाही थे। सबसे पहले ये कटकुई गाँव में आकर बसे थे और बालगंगा नदी के बंधारा घाट पर हरवाही करते खेलते रहते थे। कहा जाता है कि बचपन के उन्हीं दिनों में उनके चमत्कारों को किसी ने छिपकर देख लिया था। 16वीं शताब्दी में इस इलाके में आए इन देवजी के गुरू हरदा के पास के खिड़कीवाला गाँव के जैतासिंह थे जो कि खुद अँधे थे। देवजी ने अपने प्रताप से गुरू को आँखे वापस दिलवा दी थीं इसलिए वे गुरूसाहब कहलाते थे। 1707 ई. में इनकी समाधि का निर्माण हुआ था।
उस समय के बड़े शहर मलाजपुर को पानी देने के लिए, चूना, गुड़, बेल के फल और रेत को मिलाकर बनाए गए मसाले से एक पुलनुमा बाँध बनाया गया था। ऐसे छोटे बाँधों को यहाँ ‘रख्खन’ कहा जाता है। मसाले को पीसने और मिलाने के लिए इस्तेमाल किए गए तब के चाक या चका आज भी मौजूद हैं। मलाजपुर नदी पर बनाए गए घाट भी इसी मसाले से बनाए गए हैं। इस इलाके की खुदाई में आज भी बेहतरीन कटे हुए पत्थर, औजार और राख आदि मिलते हैं।
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