अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी के सबसे चहेते नेता राहुल गांधी ने चेन्नई में एक प्रेस सम्मेलन में कहा कि नदी जोड़ योजना भारत के पर्यावरण के लिए बहुत ही विनाशकारी है। राहुल गांधी के बयान के अगले ही दिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री के करूणनिधि ने इस परियोजना के पक्ष में दलील दी। इस तरह यह मुद्दा एक बार फिर जीवंत हो गया है। अब यदि प्रमुख सत्ताधारी दल के एक प्रमुख नेता की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं तो इसका निहितार्थ जानना भी जरूरी है। यह तो जानी हुई बात है कि नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना भारत में जल संसाधन क्षेत्र में अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना है। सन 2001 के कीमत स्तर पर इस पूरी परियोजना की प्रस्तावित लागत ‘पांच लाख साठ हजार करोड़’ आंकी गई थी।हालांकि वास्तविक लागत इससे कई गुना ज्यादा होने की संभावना है। परियोजना के अंतर्गत कुल 30 नदी जोड़ प्रस्तावित हैं, जिनमें से 14 हिमालयी भाग के और 16 प्रायद्वीपीय भाग के हैं। इस प्रस्तावित परियोजना पर तमाम विशेषज्ञ पहले से ही अपनी आपत्ति जाहिर करते रहे हैं। यह अजीब विरोधाभास है कि एक तरफ तो भारत सरकार की केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय इस परियोजना पर आगे बढ़ने की बात कहती है तो दूसरी तरफ सत्ताधारी दल के ही राहुल गांधी एवं जयराम रमेश सरीखे प्रमुख नेता इसे विनाशकारी बताते हैं। चाहे जो भी हो, जब प्रस्तावित 30 जोड़ों में से एक की भी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार न हो तो इस परियोजना के पक्ष में दावे खोखले नजर आते हैं।
पूरी परियोजना का मूल आधार है कि जल आधिक्य वाली नदियों का पानी जलाभाव वाली नदियों में डाला जाएगा। लेकिन सच यह है कि भारत में अभी तक किसी भी अधिकृत एजेंसी ने इस तथ्य का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया है। यह बात साफ है कि ये परियोजनाएं विभिन्न राज्य सरकारों के आपसी समझौते से ही आगे बढ़ सकती हैं। तो फिर राज्यों के आपसी खीचातान की वजह से सरकारों का निहित स्वार्थ भी शामिल हो जाता है। राज्य सरकारों के ऐसे ही मोलभाव का उदाहरण है ‘केन-बेतवा नदी जोड़’। इसी परियोजना पर सबसे पहले आगे बढ़ने का सरकार का इरादा है। ‘केन-बेतवा नदी जोड़’ उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बीच का मामला है और इस पर डीपीआर बनाने का काम जारी है। मध्य प्रदेश में छतरपुर व पन्ना जिलों के सीमा पर केन नदी पर मौजूदा गंगऊ बैराज के अपस्ट्रीम में 73.2 मीटर ऊंचा बांध प्रस्तावित है। इस बांध से रोके जाने वाले पानी को 231 किमी लम्बी नहर के माध्यम से बेतवा नदी में डाले जाने का प्रस्ताव है। परियोजना में सिर्फ एक बांध से करीब 10 हजार हेक्टेअर से भी ज्यादा जमीन डूब में आएगी जबकि परियोजना में कुल 7 बांध बनने वाले हैं। परियोजना से 6.5 लाख हेक्टेअर जमीन में सिंचाई एवं 72 मेगावाट बिजली उत्पादन का प्रस्ताव है। कथित तौर पर इससे मध्य प्रदेश को ज्यादा लाभ होने वाला है, लेकिन उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से डूब में आएंगे। लेकिन यदि यहां पर उत्तर प्रदेश सरकार समझौता करती है तो दूसरी तरफ से उसे लाभ भी चाहिए।
दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश सरकार एक महत्वाकांक्षी परियोजना ‘पंचनंदा बांध’ के माध्यम से लाभ लेना चाहती है। इस परियोजना को उत्तर प्रदेश की पिछली मुलायम सिंह सरकार ने आगे बढ़ाने की भरसक कोशिश की थी। इस परियोजना के तहत यमुना, चंबल, क्वारी, सिंध और पाहुज नदियों के संगम के नीचे यमुना नदी पर 25 मीटर ऊंचा हाई ग्रेविटी बांध बनाए जाने का प्रस्ताव है। परियोजना से उत्तर प्रदेश की 33,812 हेक्टेअर एवं मध्य प्रदेश की 17,201 हेक्टेअर जमीन डूब में आएगी। इस परियोजना से 4.42 लाख हेक्टेअर जमीन की सिंचाई एवं 20 मेगावाट बिजली उत्पादन का प्रस्ताव है। हालांकि मध्य प्रदेश का दावा है कि केन्द्रीय जल आयोग के दावे के विपरीत इस परियोजना से 15 के बजाय 21 गांव डूब में आएंगे।
जिस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार एवं मध्य प्रदेश में बाबूलाल गौड़ की सरकार थी उस समय दोनों ने पंचनंदा बांध पर आगे बढ़ने की सैद्धांतिक सहमति दी थी। लेन-देन का मामला साफ था कि केन-बेतवा नदी जोड़ में थोड़ा नुकसान उत्तर प्रदेश को तो पंचनंदा बांध में मध्य प्रदेश सरकार को नुकसान हो रहा था। लेकिन सोचने बाली बात तो यह है कि ‘केन-बेतवा’ परियोजना से उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों के लोगों का नुकसान होने वाला है उन्हें तो ‘पंचनंदा’ बाध से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। इसी तरह ‘पंचनंदा’ बांध से मध्य प्रदेश के जिन इलाकों का नुकसान हो रहा है उन्हें तो ‘केन-बेतवा’ परियोजना से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। हां, एक बात साफ है कि इन दोनो परियोजनाओं से मुलायम सिंह एवं बाबूलाल गौड़ के चहेते इलाकों को जरूर फायदा होने वाला है। लेकिन अब दोनों ही मुख्यमंत्री की सीट पर काबिज नहीं हैं। बदली हुई परिस्थितियों में अब मध्य प्रदेश सरकार की आपत्ति के कारण केन्द्र सरकार ने फिलहाल इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है।
हालांकि दोनों ही परियोजनाएं राज्यों के आपसी विवादों से घिरी हुई हैं। इतना ही नहीं इस मामले में एक तीसरी नदीजोड़ परियोजना ‘पार्बती-कालीसिंध-चंबल’ का विवाद भी जुड़ा हुआ है। एक परियोजना से होने वाली पानी की कमी को दूसरी परियोजना के मोलभाव से पूरा करने का निहित स्वार्थ तो जागजाहिर हो ही रहा है। अब कोई परियोजना आगे बढ़े या स्थगित हो, एक बात तो साफ है कि इससे सरकारों के निहित स्वार्थ का उदाहरण तो जगजाहिर होता ही है।
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