मालवा की गंगा-शिप्रा

मालवा से प्रकट होकर मालवा में ही आत्मसमर्पित हो जाने वाली नदियों में शिप्रा का नाम अग्रणी है। मालवा के दणिक्ष में विन्ध्य की श्रेणियों के क्षेत्र से प्रकट होती है। शिप्रा और मालवा के मध्योत्तर में चम्बल में यह विलीन हो जाती है। यही नदीं वह तो प्राचीन पूर्व में कालीसिन्ध से उत्तर-पश्चिम में मन्दसौर और दक्षिण में नर्मदा तक व्यापक था। शिप्रा तो नर्मदा से पर्याप्त उत्तर में मालवा के पठार के दक्षिणी सिरे से प्रकट होती है। यह स्थान इन्दौर से कुछ पूर्व दक्षिण में है और विलीन होती है रतलाम जिले के उत्तरी छोर पर सिपावरा नामक स्थान पर चम्बल में सपावरा नाम ही यह बताता है कि यह शिप्रा के आत्मसमर्पण का स्थान है, विलीनीकरण का स्थान है।

शिप्रा कभी स्रोतस्विनी थी। आज के रूखे-सूखे वातावरण में उसका सही उद्गम खोजना भी एक समस्या है। मूंडला-दोस्तदार ग्राम के निकट की शिप्रा टेकरी से इस शिप्रा नदी का उद्गम बताया जाता है जो इन्दौर-कम्पेल सड़क पर रादरा से कुछ दूर है। कहते हैं पाँच सौ वर्ष पूर्व मूंडला के लक्खा पटेल को स्वप्न में आकर शिप्रा ने बताया कि खजूर के पास से मुझे मार्ग दो। प्रातः होने से पूर्व उन्होंने देखा कि वहाँ दूध की और जल की धारा बह रही है। नौकर के उस धारा में अशुद्ध हाथ धो लेने से वह लुप्त हो गयी। फिर स्वप्न में आकर कहा कि प्रायः 3-4 कोस पर जा रही हूं। वह जलधारा केवड़ेश्वर में प्रकट हुई। वहां से भी होकर वह शिप्रा इन्दौर-नेमावर पथ पर अरण्या ग्राम से प्रकट होकर आज भी बह रही है। यह बताया जाता है कि शिप्रा ककरी-बरड़ी की तलहटी में बने केवड़ेश्वर कुण्डों से प्रकट होती हैं। कहते हैं कि प्रायः 15-20 वर्ष पहले तक वहाँ के कुण्ड भरे रहते थे। अब तो ये शीतकाल में ही सूख जाते हैं। मूंडला दोस्तदार के निकट की शिप्रा टेकरी पर शिप्रा का मंदिर बना हुआ है। इसके पश्चिमी ढाल के नीचे उज्जैनी नाम का गाँव है। मंदिर लगभग आधी सदी पुराना है।

इस सिपरा के तीन नाम प्रचलित हैं। आजकल का शिप्रा, परम्परागत कतिपय ग्रन्थों में शिप्रा। शिप्रा को ही आजकल ग्रामीण मालवा ‘सपराजी’ कहता है। शिप्रा अर्थात् करधनी। उज्जयिनी को तीन ओर से होकर यह उस पुरातन उज्जयिनी नगरी की करधनी बन गयी।

शिप्र कुण्ड से प्रकट होने के कारण इस नदी का नाम शिप्रा हुआ। इसे पापनाशिनी, त्रैलोक्य पावनी तथा अस्रग्- धारसम्भवा भी कहते हैं। बैकुण्ठ में इसे शिप्रा कहते हैं। इसे कामधेनु समुद्भवा अर्थात कामधेनु से उत्पन्न भी कहा गया है। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में शिप्रा सम्बंधी कुछ आख्यान दिये हैं। एक बार शिवजी ब्रह्मकपाल लेकर भिक्षा के लिए समस्त लोकों में विचरते रहे। परन्तु कहीं भी भिक्षा नहीं मिली। अन्ततः वे बैकुण्ठ पहुंचे और भगवान विष्णु से भिक्षा माँगी। विष्णु ने तर्जनी अँगुली दिखाते हुए भिक्षा दी। शिवाजी ने त्रिशुल से विष्णु की तर्जनी पर आघात किया जिससे रक्तधारा बह चली। शिवजी के हाथ का कपाल भर गया और वह धारा पृथ्वी पर गिरकर बहने लगी। वही रक्तधारा शिप्रा के नाम से प्रवाहित हो रही।

एक अन्य आख्यान के अनुसार विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी का उद्धार किया। उन भगवान् वराह के हृदय से शिप्रा का उद्गम हुआ। शिप्रा को ब्रह्म समुद्भवा भी कहा गया।

बाणासुर से श्रीकृष्ण के युद्ध के अवसर पर माहेश्वर ज्वर वैष्णव ज्वर से पराजित होकर भागा तो शिप्रा नदी में डूबकि लगाने से शान्त हो गया। अर्थात् निष्ठा से इस शिप्रा में स्नान और निवास से व्यक्ति को ज्वर बाधा नहीं होती। इसलिए इस नदी को ज्वरघ्नि कहते हैं।

शिप्रा पापघ्नी भी कही जाती है। एक कथा के अनुसार कीहट देश का राजा दमनक पापी औऱ दुराचारी था। जब वह शिकार पर था तब वह वन में भटक गया और साथी शिकारियों से साथ भी छूट गया। तब वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। उसके सिर पर वृक्ष से एक सर्प गिर पड़ा उसने उसे अँगूठे में डस लिया और वह राजा मर गया। यमदूत कठोर दण्ड देने लगे। उस राजा के शव को जानवर नोचने लगे। एक कौआ भी माँस का टुकड़ा चोंच में लेकर उड़ गया। दूसरे कौए भी उससे छीनने को झपटे। इस छीनी-झपटी में वह माँस पिंड शिप्रा नदी में गिर पड़ा। विष्णु की अँगुली से प्रकट इस नदी का स्पर्श पाते ही राजा शिवरूप हो गया। यमदूत चकित हो गये। स्पर्शमात्र से प्राणी पापमुक्त हो जाता है। यहाँ तक कि शिप्रा के नामोच्चरण से भी पाप नष्ठ हो जाते हैं। इसीलिए यह पापघ्नी नाम से प्रचलित है।

शिप्रा का अमृतोद्भवा नाम भी है। पाताल तथा नागलोक में इसे इसी नाम से पुकारा जाता है। एक बार शिवजी भिक्षा के लिए नागलोक की भोगवती नगरी में भ्रमण कर रहे थे। भिक्षा नहीं मिलने पर नगरी से बाहर वहाँ गये जहाँ नागों से संरक्षित अमृत के इक्कीस कुंड थे। शिवजी ने अपने अपने तृतीय नेत्र से अमृत का पान कर उन सभी कुण्डों को खाली कर दिया। नागगण ने आतंकित होकरभय से विष्णु का ध्यान किया। आकाशवाणी द्वारा भगवान विष्णु ने पूरी घटना बताकर कहा कि आप सब महाकालवन में शिप्रा में स्नान करें। शिप्रा की महत्ता और शिवजी की कृपा से ये अमृत कुण्ड फिर भर जाएँगे। नागों ने शिप्रा के दर्शन कर महाकाल की पूजा स्तुति की। नागगण की भावना पूरी हुई। महाकाल ने प्रसन्न होकर कहा था कि अपने पुण्यों से यहाँ तक पहुंचे हो। शिप्रा का दर्शन, स्नानादि से शिवपद प्राप्त होता है। वे शिप्रा का जल ले गये और कुण्डों में छिड़का ते वे कुंड फिर अमृत से भर गये। अतः यह नदी अमृतोद्भवा कहलाती है।

इन विभिन्न नामों में से पूर्वोक्त शिप्रा नाम परम्परागत शिक्षित वर्ग में अधिक प्रचलित है। आजकल उसे क्षिप्रा कहा जाता है। क्षिप्रा अर्थात तेज गति की नदी। यह नाम मार्कण्डेय, मत्स्य आदि पुराणों में भी प्राप्त होता है। इस नदी के जो आजकल नामपट्ट हैं उन पर बहुधा क्षिप्रा, कहीं शिप्रा और कहीं सिप्रा नाम लिखा मिलता है। मालवी जनता इसे सपराजी ही कहती है जो शिप्रा का ही तद्भव है। कालिदास ने मेघदूत में इस नदी को शिप्रा कहा है और रघुवंश में सिप्रा।

उद्गम से सिपावरा में चम्बल नदी में विलीन होने तक शिप्रा का प्रवाह प्रायः दो सौ किलोमीटर है। शिप्रा चम्बल की सहायक नदी है। चम्बल यमुना में मिलती है और यमुना नदी गंगा में विलीन होती है। इस प्रकार शिप्रा तत्त्वतः गंगाक्षेत्र की ही नदी है। इसकी यों तो पाँच सहायक नदियाँ हैं- खान, गंभीर, गाँगी, ऐन और लूनी। परन्तु उनमें से खान औऱ गंभीर विशेष उल्लेखनीय हैं। खान इन्दौर से ग्यारह किलोमीटर दक्षिण की उमरिया ग्राम की निकटवर्ती पहाड़ी से प्रकट होकर इन्दौर, साँवेर के निकट से बहती उज्जैन के पास शिप्रा में मिल जाती है। 74 किलोमीटर लम्बी इस नदी के शिप्रा संगम पर त्रिवेणी का महत्वपूर्ण तीर्थ है। यहाँ प्रति शनिचरी अमावस्या को मेला लगता है। खान नदी का प्राचीन नाम क्षाता या ख्याता है। भारतीय परम्परा में नदी देवियों की अर्चना वैदिककाल में भी प्रचलित थी। वहाँ नदी सूक्त है। भारत की कुछ प्रमुख नदियों को विवाह के अवसर पर साक्षी के लिए याद किया जाता है उनमें शिप्रा के साथ ही यह उसकी सहायक नदी महासुर और क्षाता (खान) नदी भी है-

शिप्रा वेत्रवती महासरनदी क्षाता गया गण्डकी। इतनी महत्वपूर्ण नदी आज इन्दौर की गटर बनकर उसका गंदा पानी बहने का जरिया बन गयी है। फलतः वह शिप्रा को भी प्रदूषित करती है। इस प्रकार शिप्रा और खान दोनों ही प्रदूषण की वाहिकाएँ बन गयी हैं।

खान से कुछ बड़ी गम्भीर नदी है जो शिप्रा की सहायक है। यह आज इन्दौर और उज्जैन की प्यास बुझाती है। दोनों नगरों से कुछ दूर से बहने से यह प्रायः नागर प्रदूषण से मुक्त है। इस नदी के उल्लेख पुराणों और प्राचीन साहित्य में हुए हैं। इस नदी का प्राचीन नाम गम्भीरा है। राजा भोज ने विरोधाभास में लिखा है- गम्भीरापि सम्भ्रमवती। अर्थात् गम्भीरा होते हुए भी सम्भ्रमवती (साबरमती) है क्योंकि उसमें भँवरे (सम्भ्रम) पड़ते रहते हैं। और नायिका गम्भीर प्रकृति की होने पर भी चकित-चकित सी रहती है। महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत में नदियों का वर्णन अत्यन्त संक्षेप में किया है। एक या आधा श्लोक एक नदी के लिए सर्वाधिक दो-दो श्लोक या तो गंगावर्णन में हैं अथवा गम्भीरा वर्णन में गंगा तो इस देश की सर्वाधिक पवित्र और प्रसिद्ध नदी होने से उसके विस्तृत वर्णन की अपेक्षा तो रहती ही है। परन्तु गंभीरा का तो भारत की बड़ी नदियों या पवित्र नदीयों की सूची में कहीं भी गणना कभी नहीं की जाती है। न वह पौराणिक नदी है। तब भी शिप्रा की भी सहायक उस छोटी सी नदी को गंगा जितना स्थान मेघदूत में देकर कवि ने उसके प्रति अपने विशेष लगाव को स्पष्ट कर दिया है। उसके निर्मल जल को कवि ने विशेष रेखांकित किया है। उसे उसने चित्त के समान प्रसन्न (चेतसीव प्रसन्ते) बताया है। इन पंक्तियों के लेखक ने मेघदूत के मालवी रूपांतर (हलकारो बादल) में गंभीर नदी सम्बन्धी महाकवि की वाणी को इस तरह प्रस्तुत किया है-

नदी गंभीरा को पाणी यो निरमल हिरदा सरखो वेस।
जनम रूमाला पई जावोगा छायाँ साथे तम परवेस।
ईकी धोली कमोदनी सी चंचल मछाल्यां की उछाल।
धीरज तोड़े यो ज देखणो समजो मतवाली को हाल।।
पाणी को जद लीलो लेंगो ऊँचा तट से खिसके थोर।
बरू की डगाल का हाथाँ से वा तो जाणे पकड़े कोर।।
अणी हाल में गोंठी थारे होगा जावा में यूँ देर।
चसके लागो कूण छोड़ दे।।

138 कि.मी. की यात्रा कर गंभीर नदी महिदपुर से प्रायः 8 किमी दक्षिण में आलेट जागीर के मेल मुंडला में शिप्रा में मिल जाती है। शुभ्र जल शिप्रा का संगम पर दूर तक स्पष्ट दिखाई देता है।

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