कुदरत बहाये, हम रोकें नदी !!

river
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’’गर फुर्सत मिले तो पानी की तहरीरों को पढ़ लेना।
हरेक दरिया हजारों साल इक अफसाना सा लिखता है।’’


राजा साहब के निर्देश पर नदी की लूप कटिंग कराकर नदी को सीधे ढेमा गांव के पास आगे की धारा से जोड़ दिया गया। तत्काल तो बचाव हो गया, लेकिन इससे वलय क्षेत्र में जाने वाला नदी का प्रवाह सूख गया। उसे पुनः खोलने की ओर किसी का ध्यान नही गया। नतीजा? बीते 25 वर्षों में वलय क्षेत्र का पानी 10 फीट से उतरकर 60 फीट पहुंच गया। कुंए सूखे, हरियाली गई। एक दिन आया कि जहां कभी बाढ़ ही बाढ़ थी, वहीं लोग पीने के पानी को तरसने लगे।

इन पंक्तियों के शायर को नदी निर्माण की कुदरती प्रक्रिया के विज्ञान का कितना ज्ञान था.... मालूम नहीं; किंतु इतना तो साफ है कि प्रत्येक नदी हजारों साल की भौगोलिक उथल-पुथल का परिणामस्वरूप निर्मित होती है। अतः बिगाड़ होने पर इन्हें इनके मूल स्वरूप में लाने का काम भी साल - दो साल का नहीं हो सकता। दूसरा सच यह है कि नदियों को इंसान ने नहीं, कुदरत ने बनाया है। इनके प्रवाह की दिशा, वेग, चौड़ाई तथा इनमें उपस्थित जलीय तत्व, जीव व वनस्पति का निर्धारण स्थानीय भूगोल व समय-समय पर हुए भौगोलिक परिवर्तन करते हैं। जब ये परिवर्तन कुदरती होते हैं, तो संतुलन लाते हैं। आने वाली कुदरती बाढ़ भी भले ही थोड़े समय के लिए नुकसान पहुंचाती हो; किंतु अंततः वह लाभ ही देती है। जिससे एक ओर इससे नदी निर्मल होती है, तो दूसरी ओर नदियों के तट उपजाऊ मैदानों में तब्दील होकर सोना उपजाते हैं। बिहार व बंगाल में माछ-भात की समृद्धि बाढ़ से ही आती है। बाढ़ ही हमारे भूजल के भंडारों को भर देती है।

अतः बाढ. को रोकने की बजाय बाढ. के दुष्प्रभावों को रोकने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हमने क्या किया? कोसी समेत तमाम नदियों को बांधने की कोशिश प्राकृतिक नियम विरुद्ध कार्य है। मनुस्मृति में नदियों को बांधने, रोकने अथवा मोड़ने वाले को श्राद्ध आदि कर्मों से ताज्य बताकर दंड देने का प्रावधान है। प्रमाण हैं कि जब भी मानव ने अपने तात्कालिक लाभ या बचाव के लिए ऐसे परिवर्तन किए, कालांतर में वे बड़े बिगाड़ का कारण बने। उत्तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ की बकुलाही नदी के एक इलाके में ऐसा ही एक बड़ा बिगाड़ हुआ। महाभारत चित्रण में बकुलाही नदी का जिक्र ‘बाल्कुनी’ नदी के नाम से है। प्रसंग है कि द्यूतक्रिया में हारने के बाद के एकवर्षीय अज्ञातवास की समाप्ति पर पाण्डवों ने इसी बाल्कुनी नदी के तट पर ही पूजा की। इसी नाम का अपभ्रंश होकर पहले बगुलाही और फिर कालांतर में बकुलाही हो गया। संभवतः कई स्थानों पर बगुले की गर्दन के माफिक वलयाकार यानी घुमावदार होने के कारण इसका नाम बगुलाही हुआ।

बकुलाही सई नदी की एक सहायक धारा है। बकुलाही नदी का उद्गम रायबरेली जिले की भरतगढ़ स्थित झील से हुआ है। आगे चलकर प्रतापगढ़ जिले के कालाकांकर और बाबागंज में क्रमशः माघी कटान और लोसार नामक दो बड़ी झीलें बकुलाही को और समृद्ध बनाती हैं। इसका प्रवाह प्रतापगढ़ जिले को दो-तिहाई हिस्से में बांटता हुआ सराय बहेलिया गांव के पास सई की धारा में मिल जाता है। जिले के दक्षिणांचल में स्थित कालाकांकर, तिरछा, खेमीपुर, सिया, भाव, देवरी, कमासिन, कटरा गुलाब सिंह और मानधाता इसके मुख्य पड़ाव हैं। लगभग 250 गांव इसके तट पर स्थित हैं। कोई कहने की बात नहीं कि अरसे से बकुलाही जैसी छोटी नदियां हमारे गावों की किसानी व जवानी का आधार रही हैं। 80 के दशक में आई एक बाढ़ ने बकुलाही किनारे की फसलें बर्बाद कर दी थी। संकट गांवों में भी घुस गया था। प्रतापगढ़ कोई बाढ़ क्षेत्र नहीं है; न ही बकुलाही कोई बड़ा बाढ़ लाने वाली नदी यहां बाढ़ के कोई बड़े अनुभव नहीं रहे।

प्रतापगढ़ के तत्कालीन सांसद व केंद्रीय मंत्री राजा दिनेश सिंह के कालाकांकर महल के लिए भी बाढ़ का वह मंजर नया ही था। मानधाता ब्लॉक स्थित पूरे तोरई, गौरा, हिंदूपुर, पूरे वैष्णव, बाबूपुर, जमुआ, रामनगर, छतौना, नदा का पुरवा, सराय देवाराय, डंडवा समेत दो दर्जन से अधिक गांव बकुलाही के वलय के बीच होने के कारण कुछ ज्यादा ही घबरा गये। गुहार लगाई। राजा साहब का रुतबा काम आया। राजा साहब के निर्देश पर नदी की लूप कटिंग कराकर नदी को सीधे ढेमा गांव के पास आगे की धारा से जोड़ दिया गया। तत्काल तो बचाव हो गया, लेकिन इससे वलय क्षेत्र में जाने वाला नदी का प्रवाह सूख गया। उसे पुनः खोलने की ओर किसी का ध्यान नही गया। नतीजा? बीते 25 वर्षों में वलय क्षेत्र का पानी 10 फीट से उतरकर 60 फीट पहुंच गया। कुंए सूखे, हरियाली गई। एक दिन आया कि जहां कभी बाढ़ ही बाढ़ थी, वहीं लोग पीने के पानी को तरसने लगे। उल्टी गंगा बहाने का यही परिणाम होता है। यह उलटबांसी कितने दिन चलेगी?

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