जलवायु अनुकूल वर्षा आधारित कृषि नीतियां

जलवायु अनुकूल वर्षा आधारित कृषि,फोटो क्रेडिट-IWP flicker
जलवायु अनुकूल वर्षा आधारित कृषि,फोटो क्रेडिट-IWP flicker

भारत जैसे देश में जलवायु परिवर्तन एक बहुत बड़ी समस्या है, विशेषकर कृषक समुदायों के लिए मानसून पर अधिक आश्रित होने एवं दक्षिण-पश्चिम मानसून के  असामान्य व्यवहार के कारण वर्षा आधारित कृषि पर इसका प्रभाव सबसे अधिक है। वर्षा के वितरण में अधिक अंतर होने अंतर मौसमी विविधता एवं अत्यधिक तापमान ऐसे कारण हैं, जिनसे फसलों को नुकसान होता है। मानसून के आरंभ में देरी या लंबा शुष्क दौर एवं जल्दी मानसून का लौट जाना जैसे कारणों से उत्पादकता का स्तर काफी प्रभावित होता है 

भारत से जुड़े अध्ययन यह बताते हैं कि वर्ष 1970 के बाद औसत तापमानों में काफी वृद्धि हुई है। पृथ्वी पर औसत तापमान अब 80 के दशक के अंत की तुलना में लगातार 1 डिग्री सेल्सियस अधिक है। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि देश के कई हिस्सों में ठंडी रातों को आवृत्ति में गिरावट आई है, जबकि गर्म रातों और गर्म दिनों की घटनाओं की आवृत्ति में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। वर्ष 1871-2014 के बीच भारत में 27 बार कम वर्षा हुई और 20 बार बहुत अधिक वर्षा वर्ष 1960 के बाद का आकड़ा यह कहता है कि 15 बार कम वर्षा हुई और 6 बार बहुत अधिक वर्षा हुई।   जलवायु परिवर्तन होने से फसलों और पशुओं पर अजैविक एवं जैविक तनाव में वृद्धि हुई है। विभिन्न जलवायु मॉडल भी यहाँ सूचित करते हैं कि लघु मध्य एवं दीर्घकालिक परिदृश्यों में भारत पर लगातार गर्मी बनी रहेगी। इससे सूखे और बाढ़ के  साथ-साथ ठंड और गर्मी की लहरें  बढ़ने की आशंका है। इससे वर्ष 2080 तक 30 प्रतिशत तक फसल हानि हो सकती है। 

"भारत में वर्षा आधारित कृषि प्रणालिया का महत्वपूर्ण स्थान है। ये लगभग 51  प्रतिशत बोए गए क्षेत्र में 40 प्रतिशत तक अनाज उत्पादन में योगदान देती हैं। इसके साथ ही पशुधन एवं बागवानी क्षेत्र की भी सहायता करती हैं।उपलब्ध आंकड़ों से यह ज्ञात होता है कि देश में लगभग 17.7 मिलियन हेक्टर क्षेत्र चावल के अधीन है। इसके अलावा ज्वार (5.6 मि.हेक्टयर), बाजरा (7.1 मि. हैक्टयर) मक्का (5.6 मि. हैक्टयर), अरहर (3:43: (मि. हैक्टयर), चना 4.7 मि. हैक्टयर) सभी दलहनी फसलें (174 मि. हैक्टयर, तिलहन (20.6 मि. हैक्टयर) और कपास (6.3 मि. हैक्टयर) भी है। इस क्षेत्र में अब तक काफी प्रगति हुई है, परन्तु फिर भी जैविक, भौतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से संबंधित बाधाओं एवं जोखिमों के कारण वर्षा आधारित कृषि की उत्पादकता में कमी बनी हुई है। देश को अगर खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनना है, तो उसे वर्षा आधारित कृषि की उत्पादकता में निरंतर सुधार करते रहना होगा "

जलवायु के अनुकूल वर्षा आधारित कृषि

जलवायु आधारित कृषि के लिए हमें अनुकूलन एवं शमन की रणनीति को |अपनाना होगा। इसके साथ ही साथ जैव  विविधता का प्रभावी उपयोग भी करना होगा। | जीनों प्रजातियों एवं पारिस्थितिक प्रणालियों  में बदलती जलवायु के अनुरूप विकास  करना होगा। जलवायु आधारित कृषि का अर्थ कृषि में अनुकूलन, शमन एवं अन्य प्रक्रियाओं को शामिल करना है, जिससे फसलोत्पादन में होने वाली हानि को रोका जा सके और उत्पादन को बढ़ाया जा सके। प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि जलदा एवं आनुवंशिक संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन लचीली अंतर फसल प्रणालियां सूखा सहिष्णु लघु अवधि की किस्में, छोटी जोत के लिए उपयुक्त कृषि उपकरण, चारा प्रणाली समेकित कृषि प्रणाली आदि जलवायु आधारित कृषि के विकास के लिए अन्य रणनीतियां  है। 

सारणी-1 में अखिल भारतीय समन्वित बरानी कृषि अनुसंधान परियोजना के विभिन्न केन्द्रों द्वारा फसल पैदावार में सुधार
सारणी-1 में अखिल भारतीय समन्वित बरानी कृषि अनुसंधान परियोजना के विभिन्न केन्द्रों द्वारा फसल पैदावार में किए गए सुधार को देखा जा सकता है।,

कम जल की आवश्यकता वाली उच्च भूमि धान प्रणालियाँ 

भारत में धान की खेती का बड़ा क्षेत्र वर्षा आधारित परिस्थितियों के अंतर्गत माता है। बहुत सारी जल संरक्षण प्रौद्योगिकियां जैसे प्रत्यक्ष बीज धान (डीएसआर), शून्य जुताई एवं अन्य संसाधन संरक्षण प्रथाएं कम जल का प्रयोग करती हैं और उच्च जल उत्पादकता दिखाती है। इसके साथ ही साथ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी कम करती है। अन्य महत्वपूर्ण जल बचत प्रौद्योगिकियों जैसे गहन धान प्रणाली वायु-जीवी धान  शुष्क धान आदि अन्य को एक्रीमा के डोमेन जिलों जैसे-झारखंड, ओडिशा, असम, छत्तीसगढ़ में विकसित एवं कार्यान्वित किया ज रहा है।

मौसम आधारित कृषि सलाह

मौसम आधारित कृषि मौसम संबंधी सलाहकार सेवाएं (एएएस) किसानों की बहुत मदद करती हैं। मौसमी वर्षा पूर्वानुमान के आधार पर किसान किस्मों तथा बुआई अथवा कटाई कार्यों के लिए उपयुक्त मशीनों का चयन कर सकते हैं। प्रतिकूल मौसम की घटनाओं में फसल को बचा सकते है। पोषक प्रबंधन एवं उर्वरकों का प्रयोग कर सकते हैं। पशुओं के लिए चारा एवं उनके आश्रय प्रबंधन को सही समय पर कर सकते हैं। इस प्रकार फसलों एवं पशुओं पर जलवायु परिवर्तन का असर कम से कम हो। मौसम आधारित कृषि मौसम संबंधी सलाहकार सेवाओं का सही तरह से प्रयोग करके किसान बेहतर फसल की पैदावार प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा खेती में होने वाली लागत को कम कर सकते हैं। आवश्यकतानुसार फसल के पैटर्न में बदलाव कर सकते हैं। इस प्रकार उन्हें ज्यादा से ज्यादा लाभ मिल सकता है

जलवायु अनुकूल फसलें और किस्में

बदली हुई जलवायु परिस्थितियों में  सटीक फसलों और किस्मों की पहचान करना  एक आवश्यक कदम हैं, ताकि सभी तरह की मुदाओं में स्थाई फसलोत्पादन हो सके। । एक आदर्श किस्म में कुछ गुण होने चाहिए जैसे उच्च उपज प्रत्येक तरह के मौसम में होने वाले परिवर्तन के प्रति सहनशील अजैविक और जैविक तनावों को सहने की  एवं संवर्धित कार्बनडाइअक्साइड स्तरों के लिए उत्तरदायी फसलों की सही किस्मों को सही समय पर उचित मृदा में बुआई करने से उच्च पैदावार प्राप्त करने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।

फसलों एवं किस्मों का चयन और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. जब उनकी वर्षा आधारित उत्पादन प्रणाली वाले क्षेत्रों या मौसम की अनिश्चितता वाले क्षेत्रों में बुआई करनी होती है। राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली, जिसमें आईसीएआर और कृषि विश्वविद्यालय शामिल हैं, प्रयास कर रहे है कि ऐसी उच्च किस्में विकसित की जाए जो कम वर्षा वाली/ सूखे वाली स्थितियों सहित जैविक और अजैविक  तनावों के लिए सहनशील हो और उच्च पैदावार भी दे। इसके अलावा मौसम की अनिश्चितता से बचने के लिए कम अवधि वाली किस्मों को भी विकसित किया गया है। 

लघु फार्म मशीनीकरण और कस्टम हायरिंग सेंटर

वर्षा आधारित क्षेत्रों के बड़े भूभागों पर कृषि मशीनरी की अनुपलब्धता के कारण या तो भूमि खाली छोड़ दी जाती है या फिर देर से रोपण की जाती है। इसके फलस्वरूप फसल उत्पादकता में कमी आती है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए यह बहुत जरूरी है कि कृषि मशीनरी उपलब्ध हो ताकि बदलते हुए मौसम के हिसाब से समय पर बुआई एवं कटाई हो सके। हाल में ही कस्टम हायरिंग सेंटर (सी.एच.सी.) जैसी योजना की शुरुआत हुई उससे देश के छोटे किसान आधुनिक कृषि यंत्र किराये पर ले सकते हैं। नई मशीनों को सस्ते दाम में भी खरीद भी सकते हैं। इन केन्द्रों को कृषि यंत्र बैंक भी कहा जाता है। राष्ट्रीय जलवायु समुत्थान कृषि में नवप्रवर्तन (निक्रा) ने पहली बार देशभर में जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील 130 गांवों में से प्रत्येक एक गांव में कस्टम हायरिंग सेंटर की स्थापना करने के लिए प्रयास किया है।

 उचित अंतर फसल प्रणालिया

सफल वर्षा आधारित खेती  के लिए  यह अत्यंत आवश्यक है कि उचित प्रकार की फसलें/ फसल प्रणालियों को चुना जाए जिनमें कम पानी की आवश्यकता होती है 

सारणी-1  वर्षा आधारित फसलों की उपज पर खेत के तालाबों में एकत्रित वर्षा जल से एक अतिरिक्त सिंचाई 5 सें.मी.) का प्रभाव। 

इंटरक्रॉपिंग एक ऐसी ही लोकप्रिय तकनीक है, जिसे देश के विभिन्न वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए विकसित किया गया है। किसानों- को इन्हें प्रयोग करने के लिए जागरूक किया गया है। इस तकनीकी का परीक्षण एक्रीपड़ा (एआईसीआरपीडीए) नेटवर्क में आने वाले केन्द्रों एवं प्रक्षेत्रों में किया गया है। यह तकनीकी मौसम की अनिश्चितता को नियंत्रित करती है। इससे उत्पादन प्रणाली में स्थिरता आती है। वर्षा आधारित खेती करने वाले किसानों की आजीविका की सुरक्षा भी होती है। मध्य मौसम सूखे की स्थिति में, उन्नत किस्म और उपयुक्त अंतर फसल प्रणालियों के संयोजन से महाराष्ट्र के अकोला में 38 प्रतिशत एवं परभणी में 29 प्रतिशत बेहतर फसल पैदावार प्राप्त हुई है। 

मृदा प्रबंधन

स्वस्थ मृदा, उच्च फसल उत्पादकता के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही साथ यह सूखे को भी कम करने में योगदान देती है । मृदा के भीतरी स्तर में बेहतर कार्बनिक पदार्थ का भंडारण होता है, जो नमी को बनाए रखता है। यह दो वर्षाओं के बीच लंबे अंतराल के दौरान वर्षा आधारित कृषि में सूखारोधन प्रदान करता है। मृदा में कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि होने से मृदा के एकत्रीकरण में सुधार होता है और यह बदले में मृदा में वायु संचारण को बढ़ाता है। यह मृदा के पानी के भंडारण में सुधार के आलावा मृदा के कटाव को भी कम करता  है और साथ ही अंतःस्पंदन में सुधार करता है। इसके साथ ही सतह और भूजल की गुणवत्ता में सुधार करता है। वर्षा सिंचित मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा 11 ग्राम/ कि.ग्रा. होनी चाहिए, जबकि यह सामान्यतः <5 ग्राम/किग्रा होती है। मुद्रा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अगर उचित होती है, तो मृदा की गुणवत्ता उत्पादकता और स्थिरता भी बनी रहती है।

समेकित कृषि प्रणाली

जैसा कि कहा जाता है 'सभी फलों को एक टोकरी में नहीं रखना चाहिए' इससे जोखिम बढ़ जाता है। खेती में भी  जोखिम कम करने का प्रयास करना चाहिए,  ताकि किसान अधिक लाभ कमा सकें। इसके  लिए वे समेकित कृषि प्रणालियों को अपनाएं  जो मुख्यतः छोटे और सीमांत किसानों के लिए  महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं। जलवायु विविधता की दर से अलग-अलग स्थानों पर स्थानविशिष्ट समेकित कृषि प्रणाली अपनाने से ही किसानों को बेहतर लाभ मिलेगा। 

आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले की एक घटना से इसको समझा जा सकता है, जहां पर वर्ष 2010 एवं वर्ष 2011 में सूखा एवं लंबा शुष्क दौर रहा। यहां के किसानों ने फसलोत्पादन आधारित खेती की। इसके कारण उन्हें मूंगफली एवं अरहर की संपूर्ण फसल का नुकसान उठाना पड़ा। वहां के किसानों ने फसल उत्पादन के  साथ-साथ पशुपालन को भी किया होता तो उन्हें अधिक लाभ मिला होता ।

संस्थागत हस्तक्षेप 

जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभाव को कम करने के लिए ग्राम स्तर पर संस्थागत ढांचे का होना आवश्यक है, जिससे लंबे समय तक किसानों को मार्गदर्शन मिल सके। अन्य सभी प्रयासों को प्रभावी ढंग से अपनाने के लिए यह जरूरी है कि गांव स्तर के मौसम केन्द्र के माध्यम से बीजोत्पादन, चारा उत्पादन कमोडिटी समूहों, कस्टम हायरिंग सेंटर, सामूहिक व्यापार और जलवायु साक्षरता जैसे प्रयासों में नये लोगों को शामिल किया जाए। इसके अलावा वर्तमान संस्था को मजबूत कर सकते हैं। एक नई संस्था को शुरू कर सकते हैं, जो पूरे कार्यक्रम के सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा दे। निक्रा के अंतर्गत, प्रत्येक गांव समूहों में, एक ग्राम जलवायु जोखिम प्रबंधन समिति (वीसीआरएमसी) का गठन किया गया है। इस समिति के माध्यम से जलवायु परिवर्तन / परिवर्तन संबंधी मुद्दों, कार्यक्रम के कार्यान्वयन और मौसम में होने वाले बदलाव पर लिए जाने वाले निर्णयों को बेहतर ढंग से लागू किया जाता है। इसके लिए किसान समूहों के साथ प्रभावी ढंग से समन्वय करने के लिए समिति बनाई गई है। इसके अलावा मौसम साक्षरता को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिससे किसान जलवायु परिवर्तन के अनुसार अपने कार्यों को कर सकें। इस क्रम में प्रत्येक गांव में गांव-स्तरीय मौसम स्टेशन और कस्टम हायरिंग केंद्र भी स्थापित किए गए हैं।

वर्षाजल प्रबंधन

वर्षा आधारित कृषि में किसी भी प्रकार का विकास लाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण वर्षा जल प्रबंधन कुशल वर्षा जल प्रबंधन के तहत वर्षा जल को एक-एक बूंद का उपयोग करना महत्वपूर्ण है। इसके तहत मृदा में वर्षा जल का भंडारण पहली प्राथमिकता है। खेतों के तालाबों में अतिरिक्त अपवाह जल संग्रह करना और महत्वपूर्ण फसल चरणों में इसका दोबारा इस्तेमाल करना दूसरी महत्वपूर्ण रणनीति है। मध्यम से उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में भी रुक-रुक कर वर्षा होने एवं लंबे समय तक वर्षा न होने से वर्षा आधारित फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बारानी क्षेत्रों में  मृदा धरातल  परिस्थितियों में सुधार कर अंतः स्रवण एवं जलधारण क्षमता को सुधारना जैसी दो बुनियादी आवश्यकताएं  है। वर्षा जल के स्वस्थाने नमी संरक्षण के अंतर वैदिका भूमि प्रबंधन जैसे कि चौड़ी क्यारी एवं कूड़ प्रणाली न केवल बेहतर स्व-स्थाने नमी संरक्षण से शुष्क दौर का प्रशमन करती है, बल्कि अतिरिक्त जल के रिसाव में भी सहायता प्रदान करती है। इसके अलावा खोदे गए तालाबों में अपवाद जल को संग्रहित किया जा सकता है। खरीफ या उसके बाद वाली रबी  फसलों हेतु संरक्षण एवं सिंचाई के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। साधारणतः संग्रहित जल से निम्न स्तरीय सिंचाई (1-5 से.मी.) के लिए लंबी अवधि वाली फसलों की तुलना में लघु अवधि फसलें अधिक सक्रिय होती हैं।  

आकस्मिक फसल योजना

मानसून के देर से आन मध्य मौसम अथवा अंतिम सूखे की स्थिति में फसल उत्पादन को स्थिर करना ही आकस्मिक फसल योजना का मुख्य उद्देश्य है। इस योजना में सूखे की विभिन्न स्थितियों को शामिल किया गया है, जैसे मानसून की देरी से शुरुआत (2 सप्ताह की देरी 4 सप्ताह की देरी 6 सप्ताह की देरी और 8 सप्ताह की देरी) मध्य-मौसम सूखे की स्थिति (वानस्पतिक अवस्था में. फूल आने/ फलने की अवस्था में अंतिम सूखा (मानसून की जल्दी वापसी) : बाढ़, गर्मी की लहर, शीत लहर, चक्रवात इत्यादि। भाकृअनुप-क्रीडा  ने संबंधित राज्य कृषि विश्वविद्यालया एक्रीपड़ा एवं एक्रीपाम के सहयोग से अब तक 650 जिलों के लिए जिला स्तरीय कृषि आकस्मिक योजनाओं का विकास किया है। इन योजनाओं का उद्देश्य मौसम की अनिश्चिताओं के प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने के लिए संबंधित विभागों सहित जिला प्राधिकारियों को लाभ पहुंचाना है। मुख्य रूप से सुझाए गए सूखा आकस्मिक उपाय निम्नवत है, जैसे फसल /फसल प्रणाली में परिवर्तन, फसल प्रबंधन मुदा के पोषक तत्व और नमी संरक्षण के उपाय किसी भी आकस्मिक उपाय का कार्यन्वयन फसल उगाने वाले मौसम में वास्तविक समय मौसम पैटर्न (अत्यधिक घटनाओं सहित) के आधार पर किया जाता है, तो वह सही समय की आकस्मिक योजना (आर.टी.सी.पी.) कहलाता है। फिर चाहे वह प्रौद्योगिकी से संबंधित भूमि मृदा, पानी, फसल हो या संस्थागत एवं नीति आधारित हो। यदि समय पर और प्रभावी ढंग से सही समय की आकस्मिक योजना (आर.टी.सी.पी.) को अपनाया जाए, तो वह घरेलू एवं ग्रामीण खाद्यान्न एवं चारे की सुरक्षा में योगदान देता है।

 

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