अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस (22 मई) पर विशेष
दरअसल हमने अपने लालच इतने बढ़ा लिए हैं कि हर चीज कम पड़ गई है सिवाय गेहूं और कपड़ों के! इस बार मराठा सूखे में पानी का टोटा रहा, लेकिन रोटी की कोई कमी आज भी नहीं है।’’ कभी रोटियां कम पड़ जाती थीं, पेट भरने के लिए। अब बोरे कम पड़ गये हैं अनाज भरने के लिए। कभी कपड़े कम पड़ जाते थे, तन ढकने के लिए। अब कपड़े हैं, पर हम तन ढँकना नहीं चाहते।’’ दिलचस्प है कि कीमतें फिर भी कम नहीं होती। खैर! यह काल्पनिक बात नहीं कि धरती, पानी, हवा, जंगल, बारिश, खनिज, मांस, मवेशी... कुदरत की सारी नियामतें अब इंसानों को कम पड़ने लगी हैं। इंसानों ने भी तय कर लिया है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ और सिर्फ इंसानों के लिए है। औरों को क्या कहूं, पहले मैं दिल्ली के जिस मकान में रहता था, वह मकान छोटा था, लेकिन उसका दिल बहुत बड़ा था। क्योंकि वह मकान नहीं, घर था। उस में चींटी से लेकर चिड़िया तक सभी के रहने की जगह थी। अब मकान थोड़ा बड़ा हो गया है। धरती से हटकर आसमां हो गया है। लेकिन इसमें अब इंसान के अलावा किसी के लिए और कोई जगह नहीं है। मंज़िलें बढ़ी हैं; लेकिन साथ-साथ रोशनदानों पर बंदिशें भी। मेरी बेटी गौरैया का घोसला देखने को तरस गई है। कबूतर की बीट से नीचे वालों को भी घिन आने लगी है। चूहे, तिलचट्टे, मच्छर और दीमक ज़रूर कभी-कभी अनाधिकार घुसपैठ कर बैठते हैं। उनका खात्मा करने का आइडिया ‘हिट’ हो गया है। हमने ऐसे तमाम हालात पैदा करने शुरू कर दिए हैं कि यह दुनिया..दुनिया के दोस्तों के लिए ही नो एंट्री जोन में तब्दील हो जाए। ऐसे में जैव विविधता बचे, तो बचे कैसे? ग़ौरतलब है कि अब इंसानों की गिनती, दुनिया की दूसरी कृतियों के दुश्मनों में होने लगी है। खल्क खुदा का! जैव विविधता इंसानी शिकंजे में!!
यह तो दुनिया शहर की। देहात के दरवाज़े इतने नहीं, पर कुछ संकीर्ण तो ज़रूर ही हुए हैं। मैं पूरब का हूं। हमारे पूरबी देहात में जहां झाड़ियां थी, वहां शौच जाने को ‘झाड़े’, जहां जंगल थे, वहां ‘जंगल’ और जहां खेत या खुले मैदान ही चारा थे, वहां आज भी ‘खेत-मैदान’ कहा जाता है। झाड़ियां और जंगल गये; साथ-साथ संबोधन भी जा रहा है। जहां सरकार की निर्मल ग्राम योजना पहुंच गई है, वहां शौचालय भले ही बकरी बांधने के काम आ रहे हों, लेकिन शौच संबोधन... ‘लेट्रिन’ हो गया है। इसका जैव विविधता कनेक्शन है। शौच की ताज़ा सुविधा ने गाँवों मे झाड़ व जंगलों में निपटने की रही-सही जरूरत को ही निपटाना शुरू कर दिया है। नतीजा यह है कि जंगल के घोषित सफाई कर्मचारी सियार अपनी ड्यूटी निपटाने की बजाय खुद ही निपट रहे हैं। भेड़-बकरियों के चारागाह हम चर गये हैं। नेवला, साही, गोहटा के झुरमुट झाड़ू लगाकर साफ कर दिए हैं। हंसों को हमने कौवा बना दिया है। नीलगायों के ठिकानों को ठिकाने लगा दिया है। इधर बैसाख-जेठ में तालाबों के चटकते धब्बे और छोटी स्थानीय नदियों की सूखी लकीरें उन्हें डराने लगी हैं और उधर इंसान की हांक व खेतों में खड़े इंसानी पुतले। हमने ही उनसे उनके ठिकाने छीने। अब हम ही उन पर पत्थर फेंकते हैं, कहीं-कहीं तो गोलियां भी। वन्य जीव संरक्षण कानून आड़े न आये, तो हम उन्हें दिन-दहाड़े ही खा जाएं। बाघों का भोजन हम ही चबा जाएं। आखिर वे हमारे खेतों में न आएं, तो जाएं, तो जाएं कहां?
हो सकता है कि जब इस 22 मई को पूरा विश्व, जैवविविधता दिवस के मुबाहिसों में मशगूल हो; मेरे मीडिया दोस्त स्पेशल स्टोरी दिखा रहे हों.....मेरे गांव के सियार प्यास से बिलबिला रहे हों और पत्थर के निशाने पर आकर कोई बेबस नीलगाय चोट से कराह रही हो। ..तो क्या बाघ, गिद्ध, घड़ियाल, डॉल्फिन आदि...आदि के बाद अब सियार, नीलगाय, गौरैया वगैरह के लिए भी कोई अभ्यारण्य या आरक्षित क्षेत्र बनाया जाए? किसी संस्था ने पढ़ लिया तो शायद वह यही मांग कर बैठे।...क्योंकि हमारी रूचि बीमारी के इलाज के लिए तंत्र बढ़ाने और संसाधन जुटाने में ज्यादा है। रोकथाम में तो कदापि नहीं। पर्यावरण मंत्री श्रीमती जयंती नटराजन ने हाल ही में घोषित किया ही है कि बाघ अभ्यारण्य अभी और बढ़ेंगे। मगर हम आंकड़ों की दुनिया को कैसे झुठला सकते हैं! सच यह है कि देश में अभ्यारण्य बढ़े हैं और बाघ घटे हैं।
आंकड़े कह रहे हैं कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के एक-तिहाई दोस्त खो दिए हैं। एशियाई बाघों की संख्या में 70 फीसदी गिरावट आई है। मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 70 फीसदी तक घटे हैं। भागलपुर की गंगा में डॉल्फिन रिजर्व बना है; फिर भी डॉल्फिन के अस्तित्व पर ही खतरे मंडराने की खबरें मंडरा रही हैं। क्यों? उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है। यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीक़त इससे भी बुरी हो सकती है। जैव विविधता के मामले में दुनिया की सबसे समृद्ध गंगा घाटी का हाल किसी से छिपा नहीं है। हकीक़त यही है कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है। हर रचना के नष्ट होने का मतलब है कि कुदरत की गाड़ी से एक पेच या पार्ट हटा देना। यही हाल रहा, तो एक दिन यह जीव चक्र इतना बिगड़ जाएगा कि इंसान वहीं पहुंच जायेगा, जहां था। शायद उससे भी बदतर हालत में। पुनः मूषकः भव !!
दरअसल हमने अपने लालच इतने बढ़ा लिए हैं कि हर चीज कम पड़ गई है सिवाय गेहूं और कपड़ों के! इस बार मराठा सूखे में पानी का टोटा रहा, लेकिन रोटी की कोई कमी आज भी नहीं है।’’ कभी रोटियां कम पड़ जाती थीं, पेट भरने के लिए। अब बोरे कम पड़ गये हैं अनाज भरने के लिए। कभी कपड़े कम पड़ जाते थे, तन ढकने के लिए। अब कपड़े हैं, पर हम तन ढँकना नहीं चाहते।’’ दिलचस्प है कि कीमतें फिर भी कम नहीं होती। खैर! यह काल्पनिक बात नहीं कि धरती, पानी, हवा, जंगल, बारिश, खनिज, मांस, मवेशी... कुदरत की सारी नियामतें अब इंसानों को कम पड़ने लगी हैं। इंसानों ने भी तय कर लिया है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ और सिर्फ इंसानों के लिए है। वह भी सबसे पहले मेरे लिए। इसीलिए ये सारी लूट है; विवाद हैं; रसहीन होते रिश्ते हैं। यही रफ्तार जारी रही, तो एक दिन यह पृथ्वी कम पड़ जाएगी, इंसानी लालच के लिए और आँसू कम पड़ जायेंगे अपनी ग़लतियों पर रोने के लिए। प्रकृति अपना संतुलन खुद करती ही है। एक दिन वह करेगी ही। यह तय है। अब तय तो सिर्फ हमें करना है कि सादगी को शान बनाएं, प्रकृति व उसकी दूसरी कृतियों को उनका हक लौटायें, “जीओ और जीने दो’’ का सिद्धांत अपनाएं, जैवविविधता बचाएं या गाएं, छटपटाएं-आढूं ढलें ग्रह और कोई...
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