हमारी बात नहीं मानेंगे तो पछताना पड़ेगा

मेधा पाटकर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री और सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर का मानना है कि विकास की अवधारणा को ठीक से समझा नहीं जा रहा है, जिससे सामाजिक संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है। मेधा पाटकर की राय में सशस्त्र माओवादी आंदोलन के मुद्दे तो सही हैं लेकिन उनका रास्ता सही नहीं है। हालांकि मेधा पाटकर यह मानती हैं कि देश में अहिंसक संघर्ष और संगठन भी अपना काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार उनके मुद्दों को नजरअंदाज कर रही है, जिससे इस तरह के आंदोलनों की जगह लगातार कम हो रही है। यहां पेश है, उनसे की गई एक बातचीत।

• देश भर में जब कभी भी विकास की कोई प्रक्रिया शुरू होती है तो चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने उसका विरोध शुरू हो जाता है। गरीब भले गरीब रह जाए, आदिवासी भले आदि वास करने को मजबूर रहे लेकिन एक खास तरह के दबाव में विकास का विरोध क्या बहुत रोमांटिक ख्याल नहीं है?

विकास की परिभाषा किसी भी भाषा, किसी भी माध्यम में आप ढूढें तो यही होती है कि संसाधनों का उपयोग करके जो जीने के, जो जीविका के बुनियादी अधिकार हैं, या जरूरते हैं, उसकी पूर्ती करना। तो विकास की संकल्पनाएं तो अलग-अलग हो सकती हैं। कोई भी विकास का विरोधी नहीं है, न हम है, न सरकार भी हो सकती है। लेकिन सरकार एक प्रकार का विकास का नजरिया, ये कहते हुए जब सामने लाती है कि उन संसाधनों के आधार पर वो लाभ ही लाभ पाएंगे, वो आर्थिक या भौतिक लाभ। लेकिन उसमें जिन लोगों के हाथ में पीढ़ियों से संसाधन हैं, उनका न कोई योगदान होगा नियोजन में, न ही उनको लाभों में भागीदारी या हिस्सा मिलेगा। तब जा कर हमको अपने विकास की संकल्पना भी रखने का अधिकार है।

हम लोगों को लगता है कि आज इस देश में बहुत सारी जमीन, पानी, जंगल, खनिज संपदा, भूजल होते हुए भी 80 प्रतिशत लोग अपनी बुनियादी जरूरत पूरी नहीं कर पा रहे हैं, ये क्यों? और क्यों चंद लोग लक्षाधीश, कब्जाधीश बन रहे हैं। इतने और ऐसे कि जिनकी पूंजी विदेशी कंपनियों को खरीदने तक काम आ रही है। यह सब प्राकृतिक संसाधन और मनुष्य के श्रमों के आधार पर ही अपना लाभ, अपनी तिजोरी भरना संभव कर पा रहे हैं। जबकि सरकार की तिजोरी भी खाली हो रही है और लोगों के हाथ में जो पुराने पीढ़ियों से धरोहर जैसे प्राकृतिक संसाधन हैं, उनको भी हस्तांतरित किया जा रहा है।

इसीलिए हम लोग जल नियोजन चाहते हैं तो विकेंद्रीत जल नियोजन, ताकि हरेक को अपने नज़दीक से नज़दीक जल स्रोत से अपनी प्यास बुझाने का मौका मिले। हम औद्योगिकरण चाहते हैं तो खेती खत्म करके उद्योग नहीं। जो खाली ज़मीन पड़ी है, उसमें उद्योग लग जाए और उद्योग से पर्यावरणीय प्रदूषण या प्राकृतिक संसाधनों का विनाश और बड़े पैमाने पर विस्थापन न हो।

तो विस्थापनवादी विकास का नज़रिया छोड़कर अगर हम लोग गांव-गांव तक, शहर की बस्ती-बस्ती तक नियोजन का अधिकार ले जाएंगे और जो नियोजन होगा और उसमें पहला अधिकार अगर उन्हीं का होगा तो बात ही खत्म हो गई। वो रोज़गार निर्माण करने वाला विकास होगा, न कि रोज़गार खत्म करने वाला। वो खेती और उद्योग की बीच की, आज की दूरी मिटाने वाला होगा। जहां महिलाएं, बच्चे ही नहीं, दलित-आदिवासी, मज़दूर-किसान सभी, जो आज अबला या दुर्बल घटक माने जाते हैं; उनको पहली प्राथमिकता होगी और इसी आधार पर इस देश में समता, न्याय, समाजवाद जो संवैधानिक मूल्य हैं, उनकी स्थापना हो पाएगी।

जब हम लोग ये सवाल उठाते हैं तो पूरा नज़रिया सामने रखते हैं, हरेक क्षेत्र के बारे में हमने एक-एक मसौदा तैयार किया है। जैसे विकास परियोजनाओं का नियोजन कैसे हो, इसके बारे में हमारा मसौदा सोनिया गांधी और उनके राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी मंजूर किया और फिर बाजू में रखा गया। और फिर नया भू-अर्जन कानून का मसौदा केंद्र सरकार ने सामने लाया, जिसमें तो फिर निजी हित को सार्वजनिक हित में डालने की कोशिश की गई, जो ब्रिटिशों ने भी कभी बात नहीं की थी। तो हमारे मतभेद ज़रूर हैं पर हमको विकास विरोधी और राष्ट्र विरोधी कहना एक प्रकार की साज़िश है।

• एक सवाल ये उठता है कि आप बार-बार हारने वाली लड़ाईयां कब तक लड़ती रहेंगी।

हम नहीं हार रहे हैं, हम जीत रहे हैं। देरी ज़रूर लग रही है, लेकिन अंधेरी नहीं महसूस हो रही है। क्योंकि अगर इस प्रकार का संघर्ष, जो कि अन्याय के खिलाफ है, व्यवस्था को चुनौती देने वाला है लेकिन निशस्त्र है, शांतिपूर्ण है, सत्याग्रही है, जो नर्मदा में चला। तो ऐसा होता भी नहीं कि देश में, दुनिया में केवल एकमेव वो बांध है सरदार सरोवर, जिसमें 11000 परिवारों को ज़मीन के बदले में ज़मीन देनी पड़ी।

आज भी दो लाख परिवार डूब क्षेत्र में हैं। एक ही बांध के, जिसकी डूब 214 किलोमीटर तक यानी रायपुर से नागपुर तक शायद फैली हुई है। तो ऐसा भी नहीं होता कि इतनी बड़ी परियोजनाओं को चुनौती दे सकते हैं। ये भी नहीं होता कि लाभों का जो खोखलापन है और लाभों का बंटवारा गुजरात के अंदर जो विकृत है, जो वहां के भी सूखा पीड़ित लोगों के साथ जो अन्यायपूर्ण साबित हो रहा है, उसकी पोल-खोल नहीं होती, जो आज हो रही है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश भी अपना हक मानने के लिए तैयार हो गए हैं।

ये पच्चीस साल का संघर्ष है, जो पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों को, आर्थिक मुद्दों के पार एक महत्व देता है। और उसके आधार पर अन्य जगह के विस्थापित भी कहीं ना कहीं अगर खड़े होते हैं, ताकत पाते हैं तो मेरे ख्याल से वो भी एक जीत है। लेकिन आज जगह-जगह सेज़ के नाम पर जो कंपनियों को बड़ी-बड़ी ज़मीनों के हिस्से देने की साज़िश चल रही है और कंपनियों को लूट की छूट देते हुए किसानों को बाकी सब्सिडी भी नहीं देना और आत्महत्याओं के लिए मज़ूबर करना; ये जो एक विरोधाभास है, विकास की ही एक अवधारणा को लेकर भी लोग चुनौती देते हैं। इसीलिए सेज़ का कानून जरूर लाया, बाज़ार तक सेज़ के प्रस्ताव आ गये। लेकिन जगह-जगह जहां बड़ा सेज़ है, थोपा जा रहा है, अत्याचार हो रहे हैं, चाहे वो आंध्रप्रदेश में हो काकीनाड़ा में हो, चाहे महाराष्ट्र में रायगढ़ में हो, चाहे नंदीग्राम हो पश्चिम बंगाल का, चाहे झारखंड़-उड़ीसा में पॉस्को जैसी परियोजना हो, लोग विरोध में खड़े हैं और कहीं-कहीं रोकथाम हो ही चुकी है।

मेरे ख्याल से समाज में भी ये मध्यमवर्ग में भी, बुद्धिजीवियों में भी एक ये दल-बल ऐसा खड़ा हो रहा है, जो कि इस प्रकार से अहिसंक सत्याग्रही का साथी हो रहे हैं। वो भले ही अपनी पूरी जीवनधारा प्रणाली तत्काल बदल नहीं सकते हैं लेकिन वो समझ रहे हैं कि नर्मदा के आंदोलन ने भी जो कभी विकास के मुद्दे खड़े किए हैं या कि जो आदिवासियों ने संथाली, भीली, गोंड इन सब अदिवासियों ने जो मुद्दे खड़े किए हैं, वो चाहे बिरसा मुंडा को लेकर, वो केवल अंग्रेज सरकार के सामने ही नहीं था, उस आज़ाद भारत सरकार के सामने भी थे, और वो सही भी थे।

आज भी अगर जलवायु परिवर्तन की बात चलानी है तो केवल कोपनहेगन के परिषदों में नहीं चल सकती है। वो यहां चलानी पड़ेगी, ये तकनीक की चुनौती है, न केवल राजनीतिक चुनौती। ये सत्ता में बैठने वालों को समझना पड़ेगा। और वो तभी समझेंगे जबकि वो जो सादगी, समता और स्वावलंबन वाली जीवनप्रणाली जीने वाले तबके हैं, जिसमें आदिवासी है, जिसमें 96% हमारे श्रमिक हैं, जिनको पेंशन, Provident Fund नहीं मिल रहा है, जिनको अनाधिकृत या असंगठित करके एक प्रकार से नीचा दिखाया जा रहा है, उनसे तो ये जुड़ते हैं तब तक हम लोग ये वैकल्पिक विकास की परिभाषा समझेंगे नहीं। और वो समझेंगे और नज़दीक जाकर देखेंगे तो लगेगा कि वैश्वीकरण, उदारीकरण के पूरे माहौल में पर्यावरण की बात ना सोचते हुए, प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध में और एक प्रकार से उपभोगवादी जीवनप्रणाली व्यवस्था में और भ्रष्टाचारी, अत्याचारी राज्य के चित्र-चरित्र के सामने आज भी आम जनता ही जो लड़ रही है, लड़ रही है और जो पा रही है, वो भी जनांदोलनों की जो वैकल्पिक राजनीति है। ये चुनाव तक, संसद तक ही सीमित नहीं है, उसी से कुछ भला होगा।

• 2004 के आम चुनावों से पहले आप लोगों ने यह निर्णय लिया था कि हम भी अब चुनाव की राजनीति में आएंगे।

नहीं, ऐसा स्पष्ट निर्णय नहीं लिया था। एक लोक राजनीतिक मंच ज़रूर बनाने की अगुवाई हुई थी। जो आज भी बना हुआ है। पर हमने बहुत चर्चा और सोच के बाद यह तय लिया कि कुछ लोग तो जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वयक के लिए रहेंगे, जिसकी भी बहुत ताकत बनानी ज़रूरी है। वो भी अपने आप में एक राजनीति है, चुनावी नहीं है। और कुछ लोगों ने लोक राजनीति मंच का भी आधार लिया।

मेरा तो मानना है कि केवल deposit खोने के लिए, इस पूंजी बाज़ार, माफिया, गुंडागर्दी वाली राजनीति में, हम केवल चुनाव के दरम्यान थोड़ा सा हस्तक्षेप करें, इसका कोई मतलब नहीं है।

एक तो सशक्त राजनीतिक पहल कुछ लोग करते हैं तो उनको आत्मविश्वास होना चाहिए कि वो खुद नहीं, पर उनके नुमाइंदे, उनके साथी, सहयोगी, उस राजनीति में सत्ता का आधार लेने के बाद तत्काल पूंजी बाज़ार का साथ देना शुरु नहीं करेंगे। और वो अगर सत्ता में चुनकर नहीं आ पाए, हार भी गए चुनाव तो भी अपना मसकद, अपना कार्य जारी रख पाएंगे। ये आत्मविश्वास हो तो ही वो लड़ सकते हैं। दूसरी बाजू जो सत्ता से बाहर की राजनीति है, वो सत्ता को अछूत नहीं मानेंगी लेकिन सत्ताधीशों पर अंकुश रखने का काम करे। राजनीति को भूलेंगे नहीं, नज़रअंदाज नहीं करेंगे। लेकिन बहुत अच्छी राजनीतिक पहल पर, जनशक्ति और आंदोलन के आधार पर करेंगे। मैं आज तो इस दूसरी राजनीति में हूं। और उसमें भी हमारी बिरादरी जो है, वो अहिंसा और जनतंत्र के आधार पर बुनियादी परिवर्तन की बात कर रही है। वो भीख मांगना नहीं अधिकार के आधार पर।।।

• ।।।लेकिन वैकल्पिक राजनीति की बात क्यों? सीधे-सीधे राजनीति में क्यों नहीं। क्योंकि जब देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां ideological तौर पर एक जैसी हैं लगभग।।।

दूसरे, दोनों पार्टियों के अलावा तीसरे, चौथे कितने सारे गठजोड़ हो गए। और उन गठजोड़ों ने क्या पाया ? सत्ता में आने के लिए और सत्ता में आने के बाद रहने के लिए गठजोड़, यानी समझौते के बिना नहीं हो सकता है। ऐसे दुर्दैव से इस देश में परिस्थितियां हैं।

हम चाहते हैं कि चुनावी परिभाषा और चुनावी प्रक्रिया में बुनियादी फर्क पहले आना चाहिए, तब जाकर सही लोग चुनाव लड़कर जीत भी पाएंगे। नहीं तो लड़ेंगे और एकाध अपवाद-अपवाद कोई जीतेंगे तो भी अंदर जाकर कुछ नहीं कर पाएंगे। उनको फिर किसी न किसी गठजोड़ का हिस्सा बने बिना वहां आवाज़ उठा पाना संभव नहीं होगा। और फिर वो गठजोड़ में, उनको अपने ही बुनियादी मुद्दे और सिद्धांतों, उसूलों के साथ समझौता करना पड़ेगा। ये हकीकत दुर्दैव से right to left सभी पार्टियों के अंदर भी जो सही विकास वाले सोच वाले लोग हैं, जनतंत्र मानने वाले भी लोग हैं, उनके साथ भी हो रही है।

• एक वैकल्पिक राजनीति की बात जो लोग करते हैं, उसमें स्वयंसेवी संगठनों के लोग भी शामिल हैं। स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका किस तरह देखती हैं आप ?

स्वयंसेवी संगठनों को एकदम संस्था के आधार पर नहीं लड़ना चाहिए, वे लड़ ही नहीं सकते। तो हर बार संस्थाकरण का आधार ना लेते हुए, उन्हें सही में एक अच्छी जनशक्ति बनाने की कोशिश करनी चाहिए और वो जनशक्ति अराजनीतिक नहीं होगी। भले ही मुद्दे-मुद्दे पर संघर्ष चलेगा लेकिन हर मुद्दे को व्यापक परिभाषा और नज़रिये से जोड़ने की ज़रूरत होती है। और संघर्ष को निर्माण से जोड़ने की जरूरत होती है। यही बात हमने नर्मदा आंदोलन में कही। यही बात शंकर गुहा नियोगी जी कहा करते थे और यही बात संदीप पांडे, अरुणा रॉय सब लोग कहते आये हैं। मुझे लगता है कि वो हमारे सामने भी चुनौती है। आखिर जनता-जनता, ग्राम सभा, वार्ड सभा हम जिसको कहते हैं, जनतांत्रिक इकाइयां हैं, उनके बीच भी तो पूंजी बाजार की घुसपैठ है, सत्ता की घुसपैठ है। तो आसान नहीं होता है पच्चीस साल एक आंदोलन को चलाना भी।

लेकिन हम देखते हैं कि अगर जो अगुवा होते हैं, अंदर से उभरे हुए नेतृत्व के लोग, और उनके साथ जुड़े हुए बाहर से भी आ के किसी क्षेत्र में अपना जीवन देने वाले कार्यकर्ता ; ये अगर डटे रहते हैं, ये अपने उसूलों से कहीं हिलते नहीं है, समझौता नहीं करते हैं। और इनकी रणनीति अगर प्रभावी होती है। जो एक मोर्चे पर चलकर आजकल नहीं चलेगा, दिन रात जूझ कर, वो लिखा-पढ़ी से लेकर कानून से लेकर विधान तक, सबमें एक प्रभावी बननी चाहिए। वो रणनीति कहीं गली से दिल्ली तक और विश्व बैंक या विश्व व्यापार संगठन तक पहुँचने वाली होनी चाहिए। उसमें एक बाजू पूंजीपति, पूंजी निवेशकों को आह्वान देना चाहिए, दूसरे बाजू व्यापक समाज तक आह्वान लेकर पहुँचना चाहिए। ये बहुत बड़ी चुनौती है कार्यकर्ताओं के सामने भी। नेतागिरी का तो सवाल ही नहीं उठता। और हम लोग नर्मदा में हारे नहीं हैं आज तक क्योंकि हम लोगों ने इस रणनीति को थोड़ा समझा है। और हमारे साथ जुड़े हुये, आदिवासी क्षेत्रों से, कहीं बंबई में दलित क्षेत्रों से, अलग-अलग जगहों से जो आए हुए जो कार्यकर्ता हैं, वो न्यूनतम मानधन पर लेकिन एक प्रकार के व्यापक नज़रिए को समझकर और नम्रता के साथ काम करने वाले।

तत्काल चलते-फिरते नेतागिरी पाने की बात अगर होती है तो हम ज्यादा लंबे नहीं चल सकते। और आज इसीलिए सत्ता की राजनीति की चमक-दमक से भी दूर रहकर, एक सही जनसत्ता निर्माण करने की चुनौती जो है, वो सबसे बड़ी चुनौती है। नहीं तो इस देश में ना भूमि का एक टुकड़ा बचेगा, न नदी बचेगी और न ही जनतंत्र बचेगा। और फिर कुछ भी बोलने की भी संभावना नहीं रहेगी।

जैसे हालत आज ही, कहीं-कहीं राज्य में अपनी सेना खड़ी करके, जैसे छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ूम की या पश्चिम बंगाल में हर्मद वाहिनी की, हमको चरित्र दिखाया ही है बदलता हुआ।

• संघर्ष और निर्माण। देश का एक बहुत बड़ा तबका है, जो ये मानता है कि वह भी संघर्ष कर रहा है। वो हथियारबंद तरीके से आंध्र में, झारखंड में, बिहार में, छत्तीसगढ़ में सब जगह सक्रिय है। तो इस तरह का जो सशस्त्र आंदोलन है, जो माओवादी आंदोलन या नक्सल आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस संघर्ष को किस तरह से परिभाषित करेंगी?

ऐसा है कि गांधीवाद, माओवाद, मार्क्सवाद, अंबेडकरवाद, फुलेवाद, जयप्रकाशवाद, विनोबावाद ये सब एक विचारधारा हैं। किसी भी विचारधारा को समझना हमारे लिए ज़रूरी बात है। मैं तो हर वाद को पढ़ चुकी हूं और उस पर बहस की हूं, लिखी हूं। हरेक से– गांधी से, भगत सिंह से, अंबेडकर से या माओवाद से हमने कुछ पाया है और दुनिया का इतिहास इसका गवाह है। इसमें तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए किसी सत्ता को भी। इसे कुचलना संभव नहीं है।

नक्सलवाद कहां से निर्माण हुआ ? नक्सलबाड़ी से, जिसमें जमीन का बंटवारा एक बहुत बड़ा मुद्दा था। उस समय तो वो एक भारत के गरीबों को, श्रमिकों को आज़ाद करने वाला आंदोलन माना जाता था। उससे निकले हुए लोग राज्य का, व्यवस्था का हिस्सा भी बन गए हैं। जो आज पश्चिम बंगाल के सरकार में भी कहीं हैं। और कहीं-कहीं अलग-अलग आंदोलन में भी पड़े हैं।

जहां तक सशस्त्र संघर्ष की बात है, हमें लगता है कि सशस्त्र संघर्ष दूरगामी विचारधारा को साथ नहीं दे सकता है। और वो अंतिम जो हमारी मंजिल है, जो शांति की भी है, समता, न्याय के साथ-साथ, जीने और जीविका के आधार की है, वो हासिल कायमी रूप से, परिवर्तन के रूप से नहीं कर सकते हैं।

अब निशस्त्र संघर्ष की भी एक मर्यादा है, वो भी कोई कायमी सुलझाव लाएगा, ऐसा नहीं है। पर हम लोगों के लिए अहिंसा एक केवल strategy नहीं है, एक मूल्य है। जीने का अधिकार, आधार मानने वालों के लिए जीना एक मूल्य है। जीवन एक भूमिका है। और जीवन प्रणाली को लेकर ही तो सब संघर्ष चल रहे हैं, वर्गीकरण उसी के तहत हो रहा है। और जातिवादी व्यवस्था भी उसी के तहत है। जो इंसानियत को मानते हैं, जो प्रकृति को मानते हैं, वो सब लोग आज सशस्त्र संघर्ष जो फैलता जा रहा है, उसे दुर्दैव मानते हैं। और समझते हैं कि ये एक मार्ग छोड़कर, दूसरा कुछ मार्ग निकालना चाहिए। लेकिन दुर्दैव है कि शासन भी हिंसा का आधार लेकर, इस सशस्त्र संघर्ष से निपटना चाहती है, जिससे हिंसा और बढ़ रही है, कम नहीं हो रही है।

सशस्त्र संघर्ष में लगे हुए लोगों की कटिबद्धता पर सवाल करने की जरूरत नहीं है। लेकिन उनके कई मार्ग गलत साबित हो रहे हैं और ये भी साबित हो रहा है कि वो जो मुद्दे उठा रहे हैं, वही मुद्दा उठाने वाले देश में अहिंसक संघर्ष और संगठन भी बहुत सारे हैं। लेकिन शासन उनमें दखल नहीं दे रहा है। तो कहीं ना कहीं अहिंसक संघर्ष और आंदोलनों का अवकाश कम करने की साज़िश हो रही है। और ये अगर बढ़ता गया तो फिर जनतंत्र बच नहीं सकता है।

हम लोग नहीं मानते हैं कि पूरी जनता, जहां भी माओवादी खड़े भी हैं, वहां माओवादी हो गई। जहां गांधीवादियों का डेरा है, वहां जनता गांधीवादी हो गई है। आम जनता तो अपनी रोजी-रोटी, अपनी स्वास्थ्य-शिक्षा, अपनी प्रकृति, अपना गांव-समाज बर्बाद नहीं होने देना चाहती है। और बस वो अधिकार के लिए अगर उनको कोई साथ देने के लिए गया, तो वो साथ दे देगी। अगर सरकार उन तक पहुँचेगी, उनका सम्मान करेगी, उनको स्थान दे देगी, उनसे संवाद करेगी तो वो सरकार से जुड़ते हैं और जुड़ेंगे।

आज केवल एक भ्रमित करने वाली, एक भ्रामक और चमक-दमक वाली राजनीति लोगों से खिलवाड़ करती है और फिर जब लोगों को बड़ा धक्का पहुँचता है तब वो किसी ना किसी आंदोलन का साथ देते हैं। अगर शासन आज भी चर्चा नहीं करेगी, भू और जल विस्थापन, शहरीकरण के नाम पर विस्थापन या ज़मीनों का बंटवारा, नदियों का कंपनीकरण, श्रमिकों का खच्चीकरण, रोज़गार का खात्मा, भरे-पूरे जीते-जागते गांवों-समाजों का कत्लेआम और इसके आधार पर विकास की एक देश विरोधी और पश्चिमी अवधारणा, जिससे कि केवल चंद लोगों की पूंजी बढ़ रही है, सेंसेक्स बढ़ रहा है, growth index बढ़ रहा है लेकिन प्रकृति, संस्कृति, स्वावलंबन की, स्थिति खत्म हो रही है।

अगर शासन सही कदम नहीं उठाएगी तो हिंसा बढ़ेगी और हम लोग इसी चिंता में हैं। इसीलिए हम चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ में हो या लालगढ़ में, संवाद होना चाहिए। शासन ने नीचे उतर कर आना चाहिए। धरातल पर बैठे हुए लोग, जो लालगढ़ में भी हज़ारों की तादाद में महीनों तक बैठे थे, उनमें ऐसी कुड़िमिड़ी-सी महिलाएं थी लेकिन उनके अंदर की ताकत थी और अस्मिता थी और वो चर्चा मांग रही थीं, रोजी रोटी के लिए।

नंदीग्राम की महिलाओं को आखिर में लाल धब्बा यहां (सीने पर) लेना पड़ा, बिल्ले का नहीं, खून का। वो चर्चा मांग रही थीं, शासन ने चर्चा नहीं की। महाराष्ट्र में भी वही स्थिति है, शरद पवार की फैमिली 25000 एकड़ ज़मीन लवासा सिटी को देती है। रायगढ़ में अंबानी का राज लाने की कोशिश है। लोग लड़ रहे हैं। अगर उनको सही जवाब नहीं मिलेगा, हम जैसे आंदोलनों के द्वारा उठाते हुए, तो वे दूसरा मार्ग ढूंढेंगे और वैसा हो रहा है कई-कई जगह।

हम आज भी चाहते हैं कि देश के चंद लोग, जो पाँच सौ की तादाद में भी हो सकते हैं, जो निष्पक्ष भूमिका लेकर, सही अर्थ से शांतिपूर्ण मार्ग और शांति की मंज़िल, समता-न्याय के साथ-साथ, जनतंत्र के साथ-साथ, वो उस पर ही ध्यान रखते हुए अगर संवाद का ऐलान कर चुके हैं Citizens Initiative of Peace के तहत, तो चिदंबरम जी को तो लालगढ़, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र सब जगह आना ही चाहिए लेकिन उनके अकेले की ये बस की बात नहीं है। ये दोनों बाजू का संवाद ज़ारी करने की दिशा में कुछ पहल होनी चाहिए। हम तैयार हैं लेकिन हमको नहीं मानेंगे तो बाद में पछताएंगे। इतनी ही नम्रता के साथ कह सकते हैं, और कुछ नहीं।
 

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