छोटानागपुर को झरनों और चट्टानी नदियों का क्षेत्र कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।
आबादी बढने के साथ ही वनों में वृक्षों की सघनता भले कम हो गई हो मगर रैयती जमीन पर अब भी हरियाली बुरी नहीं है। दस किलोमीटर रास्ते के दोनों ओर पलास की हरियाली पर कालिमा आने लगी थी। उसकी लालिमा तो करीब छह माह पूर्व ही खत्म हो गई थी। पलास की लाली से आंखों को जो सकून मिलता है, किसानों को उससे कहीं अधिक सकून उस पर होने वाली लाह की खेती से मिलता है
जोगी का डेरा नाम है उस स्थल का, जहां हमें जाना था। पेट्रोल पंप के मालिक बीबी शरण, मेघालय में व्याख्याता रह चुके चौहान जी और कुछ गांव वालों के साथ वहां जाने का कार्यक्रम एक सप्ताह पूर्व ही तय हो गया था। मुझे बताया गया था कि यों तो 'जोगी का डेरा' वाली पहाडी तक जाने में 20-30 मिनट समय लगता है, मगर पहाडी होने के कारण रास्ता चार घंटे से अधिक का है इसलिए यात्रा सवेरे शुरु करनी होगी। लेकिन रांची से जब इंटक के सदस्य कुमुद दास के साथ बी बी शरण के यहां पहुंचा तो पौने आठ बज चुका था, दीपावली के आस-पास जल्दी ही सूर्यास्त हो जाता है और अंधेरा फैलने लगता है। तय हुआ कि जोगी का डेरा अगली यात्रा में जाया जाएगा। लेकिन यात्रा के लिये निकल जाने के बाद यों ही वापस आना सार्थक नही लगा। बीबी शरण के घर से 21 किलो मीटर और आगे जाने पर तैमारा घटी मिलती है। शरण जी के यहां चली बिस्किट चाय कब ही पच चुकी थी। एक ढाबा देख कर रूका तो वहां घुघनी और लड्डू मिला। वही खाकर कुमुद दास के साथ मैं मोड से अंदर मुड ग़या।
छोटानागपुर को झरनों और चट्टानी नदियों का क्षेत्र कहना अतिश्योक्ति नही होगी। 'टांड' और 'दोन' के रूप में परिचित यह पठारी क्षेत्र प्रकृति की अद्भुत संरचना है। आबादी बढने के साथ ही वनों में वृक्षों की सघनता भले कम हो गयी हो मगर रैयती जमीन पर अब भी हरियाली बुरी नहीं है। दस किलोमीटर रास्ता के दोनों ओर पलास की हरियाली पर कालिमा आने लगी थी। उसकी लालिमा तो करीब छह माह पूर्व ही खत्म हो गयी थी। पलास की लाली से आंखों को जो सकून मिलता है, किसानों को उससे कहीं अधिक सकून उस पर होने वाली लाह की खेती से मिलता है। भारत में विश्व का 60 प्रतिशत उत्पादित होने वाली लाह का 60 प्रतिशत छोटानागपुर के बुण्डू-तमाड क्षेत्र मे उत्पादित होता है अर्थात् विश्व की 36 प्रतिशत लाह इस क्षेत्र में उत्पन्न होती है। पलास या बेर अथवा कुसुम के चार पांच वृक्षों पर भी लाह की सफल फसल उगा लेने वाला आदिवासी किसान वर्ष भर के लिए खुशहाल हो जाता है। दस किलोमीटर रास्ते के किनारे और आसपास के गांवों में मुख्य रूप से सिर्फ मुण्डा आदिवासी बसे हुए हैं। करीब 40 प्रतिशत इस आदिम जनजाति के सदस्यों ने धर्म परिवर्तिन कर लिया है। ईसाई होने के बाद इनका नाम भले विदेशी हो गया है, मगर ये बोलते मुण्डारी भाषा ही हैं। बाहरी लोगों से ये सदान (खडी हिंदी का स्थानीय संस्करण) में बोलते हैं, लेकिन सदान बोली सभी मुण्डा नहीं बोल पाते। लाह के अलावा ये लोग मडुआ, बाजरा, सरगुजा आदि की खेती करते हैं। बरसात में पूरा छोटानागपुर धान की खेती से लहलहा उठता है। सीढीनुमा खेतों में पौधों की हरियाली देखते ही बनती है। बस मजबूरी यही है कि जब बारिश, तभी खेती। सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था के अभाववश यहां इन्द्र भगवान की कृपा पर ही खेती निर्भर है।ये प्रकृति पुत्र और इनकी संस्कृति प्राकृतिक झरने से कहीं अधिक आकर्षक हैं। लेकिन जिस तरह छोटानागपुर का पर्यावरण प्रदूषण की चपट में आ गया है, उसी तरह इन प्रकृति-पुत्रों की परंपरा भी अक्षुण्ण नहीं रह गई है। वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ संपर्क जोडने के प्रयास ने प्रकृति पर इनके आश्रित रहने की आदतों में पूरी तरह बदलाव ला दिया है। अब क्षेत्र भले वही है, मगर इसकी प्रकृति बदल गयी है इसका पर्यावरण बदल गया है। लोग वहीं हैं, मगरन् उनका स्वभाव बदल गया है। उनकी आदतें बदल गई हैं। यह सब कालच्रक का परिणाम है जो स्वत:स्फूर्त है। लेकिन संस्कृति रक्षकों द्वारा यदि ध्यान दिया जाए तो संभव है कि इनकी संस्कृति और प्रकृति का स्वरूप और बिगडने से बच जाए। आज के अधिकतर आदिवासियों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे आदिम जाति के वंशज अवश्य हैं, आदिवासी कहलाते भी हैं और आदिवासी विकास के नाम पर करोडाें का बजट भी इस क्षेत्र के लिए कर्णांकित होता है। मगर इनमें पारम्परिक एवं सांस्कृतिक विकास की छटपटाहट नही है। हंडिया चावल की शराब बनाना इनकी परम्परा है। मगर सडक़ों के किनारे हंड़िया बेचते रहना इनका पारंपरिक व्यवसाय नहीं है, अलग झारखंड की लडाई में भले सफलता मिल गयी हो , लेकिन झारखंड क्षेत्र की संस्कृति एवं परंपरा को बचाने की जागरूकता इनमें नहीं है। अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को भूलकर यहां के कुछ लोग डोमेसाईल, आरक्षण और बाहरी -भीतरी के नाम पर अबोध और सीधे-सादे आदिवासियों को नये राज्य की खुशहाली से वंचित रखने की साजिश कर अपनी राजनैतिक गोटी बैठाने में लगे हुए हैं। करीब 5 मीटर चौडी क़ुछ दूर तक पक्की सडक़ पार करने के बाद कच्ची सडक़ मिल गयी। एक तो ढलान और ऊपर से कच्चा रास्ता। दुपहिया वाहन की चाल धीमी नहीं करने पर थोडी -सी असावधानी भी उसे पलट सकती थी। संगरमरी टुकडाें की तरह मोटी बालूनुमा स्तर सडक़ पर फैली थी। आगे जाने पर डेढ-दो हेक्टर का एक प्लेटफार्मनुमा स्थान मिला, जहां पहाडी क़े किनारे हरियाली और उसके नीचे बहती पतली-सी नदी बडी मनोहरी लग रही थी। अब हम अपने गंतव्य पर पहुंच गये थे। वहीं पर वन विश्रामागार बना हुआ है। अगल-बगल में कीचन और आउट हाउस भी बने हुए हैं। मगर मार्च, 1978 से इन भवनों पर वन विभाग का नियंत्रण समाप्त हो चुका है। यह जानकारी दो-तीन किलोमीटर पहले पानसकम(पंचायत लोवाहातु) में ही मिल गयी थी, जहां स्थानीय लोगों द्वारा 17 मार्च , 1978 को गठित आदिवासी भूमि सुरक्षा सुधार एवं विकास समिति द्वारा वाहन -शुल्क वसूला जा रहा था। इसी समिति का वन विश्रामागार आदि पर कब्जा बना हुआ है और चेक पोस्ट के निकट सूचना पट्ट पर लिखा है 'वन विभाग बिहार ने अनुचित रीति से मुण्डारी खुटकटीदारों की जमीन को हड़प कर सन् 1955-56 में रास्ता एवं विश्रामागार बनाया ,की क्षतिपूर्ति नहीं हुई है, मजबूरन हमें समिति द्वारा कार्रवाई करनी पडी।' नीचे वाहनों के अनुसार उनसे वसूलनीय दरें लिखी हुई हैं। सरकारी व्यवस्था द्वारा किया गया आक्षेप सुव्यवस्था के नाम पर कुव्यवस्था ही लगा। इतना अच्छा वन विश्रामागार और उससे संबंधित अन्य भवन यों ही लावारिश पडे हुए दिखे। पास में पश्चिम बंगाल से पर्यटकों को लेकर आया एक कोच लगा हुआ था। लगा, यदि बारिश हो जाये या अन्य किसी कारणवश कुछ लोगों को थोडी देर के लिए किसी आश्रय की जरूरत पड ज़ाये तो व्यवस्था रहते हुए भी उसका उपयोग नहीं हो सकता। यहां के बंद भवन भी रख-रखाव के अभाव में अपनी उम्र की याद दिलाने लगे हैं।
साल,सिद्धा, केंद आदि वृक्षों से घिरे वन विश्रामगार की दाहिनी ओर उत्तर -पश्चिम दिशा में बनी सीढियों से नीचे उतरने पर सामने दाहिनी ओर झरना दिखाई दिया। झरना का नजारा देखने के लिए रास्ते में कुछ-कुछ दूरी पर रेलिंगयुक्त प्लेटफार्म बने हुए हैं। पानी में घोले गये अपमार्जक से उत्पन्न झाग की तरह ही झरने का पानी दिख रहा था - झागनुमा और सफेद। मगर शांत झाग से इस चंचल झरने की क्या तुलना? गति इतनी कि भारी पत्थर भी उसमें आ जाए तो रबर की गेंद की तरह मीलों दूर चला जाए। मगर झरना उतर कर नीचे सपाट में नहीं जाता, उसका पानी चट्टानों से टकराते हुए पहाडी नदी की तरह गुजर जाता है।
जंगल और पहाडियों के बीच से एक नदी बहती है, जो यहां आकर काफी ऊंचाई से , लगभग 45 मीटर की ऊंचाई से गिर कर आगे बढ ज़ाती है। इतनी ऊंचाई से भी नदी का पानी यदि सीधे गिरता तो उतना आकर्षक नहीं लगता, ऊंचाई से गिरते पानी के रास्ते में बडे-बडे चट्टानों से टकराने के कारण पानी का रंग-ढंग बदल जाता है और मनमोहक झरना बन जाता है। अविकल गिरते झरना से जो आवाज निकलती है, उससे आस-पास एक संगीतमय वातावरण बन जाता है। मसूरी से आगे(गढवाल जिलांतर्गत) कैम्प्टी फॉल की ऊंचाई इससे अधिक है, उसकी ऊंचाई भी इससे अधिक ही है। कैम्प्टी फॉल नीचे आकर चट्टानों से टकराता जरूर है, परंतु आगे बढने पर समतल बना हुआ है, जहां स्नान का मजा लिया जाता है। लेकिन दसम फॉल में स्नान का मजा? बाप रे बाप ! ऐसा तो सोचा भी नहीं जा सकता। यह जितना वेग से गिरता उससे ऐसा लगता है कि यदि वहां कोई चला जाए तो उसकी लाश का भी पता नहीं चल पाएगा। हां, फॉल के गिरने के बाद जब वह आगे बढता है तो इसमें स्नान का मजा लिया जा सकता है। लेकिन यहां स्नान में बहुत सावधानी की जरूरत है। पानी के वेग से चट्टानों के बीच अनेक खतरनाक गङ्ढे बन गये हैं, जो पानी से ढंके होने के कारण दिखते नहीं हैं और जहां फंसना जानलेवा साबित हो सकता है। दसम फॉल से निकला पानी आगे करीब 50-60 मीटर जाने के बाद समतल नदी का रूप ले लेता है। बीच-बीच में कहीं-कहीं चट्टानों का मिलना असंभव नहीं , क्योंकि पूरा छोटानागपुर ही चट्टान पर बसा है। यहां तो क्या जंगल और क्या नदी, खेतों में और यहां तक कि घरों के पास भी चट्टानें देखने को मिल जाती हैं। प्रकृति ने झारखण्ड को जिन वस्तुओं से सजाया है, उनमें इन चट्टानों का बडा महत्व है।ऊपरी हिस्से में जहां प्रपात गिरता है, अब भी वनों का घनत्व बुरा नहीं है।
कुछ स्थानीय लोग वन विश्रामगार के पास पडाव पर बेदाम , बिस्किट और उबला हुआ अंडा बेच रहे थे। उनसे पता चला कि कुछ दशक पूर्व तक यहां के वनों में कुछ वन्यजीव पाए जाते थे, जिनमें शेर भी शामिल था। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। फिर भी लकडबग्धा, सियार, भेडिया, भालू और कभी-कभी हाथी देखे जाने की बात ग्रामीणों ने स्वीकार की। आस-पास के इलाके में हाथियों की देखे जाने की बात आम है। जंगली हाथी तो रांची में भी घूमने आ चुका है। हां,यह बात दिगर है कि उस समय रांची झारखण्ड की राजधानी नहीं बन पाई थी। मुण्डारी में पानी को 'दाअ' और स्वच्छ को 'सोअ' कहते हैं। झरने से गिरता हुआ उज्जवल पानी बडा स्वच्छ दिखता है। स्वच्छ पानी का झरना 'दाअसोअ' से 'दासोम' और बाद में 'दसम' हो गया। जाडे क़ा मौसम पर्यटन के लिए उपयुक्त होता है। इसलिए दसम जल प्रपात मं भी जाडे क़े दिनों में अधिक पर्यटक आते हैं। वैसे यहां रोज कुछ -न- कुछ लोग आते रहते हैं। रविवार या छुट्टियों के दिन पर्यटकों की संख्या अधिक होती है। वैसे दिन यहां की यात्रा कुछ सुरक्षित भी रहती है। प्राकृतिक नजारे को कैमरे में समेटने की भी एक सीमा होती है। मन था कि वहां से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। बाईं ओर की पहाडी से घिरे घुमावदार रास्ते से आगे बढने पर दाईं ओर एक जोडी पहाडी दिखाई देती है। हरे रंग की पहाडियां दूर होते जाने से धूंधली होती जा रही थीं। रास्ते में कुछ महिलाएं माथे पर तीन से पांच फीट की लंबी टहनियों का गठ्ठर लिए आ रही थीं। पहले तो समझा की जलावन है। लेकिन नजदीक जाने पर पता चला कि टहनियों पर लाह लगी है, जो इलाके का मुख्य आर्थिक संबल है। इसलिए तो लाह के पोषक बेर, कुसुम और पलास के वृक्ष यहां काफी संख्या में दिखाई दे रहे थे। ग्रामवासियों का दैनिक काम देखकर मुझे एक जगह फिर रूकना पडा। जाते समय हमने एक घर के सामने काल्हू देखा था। उसी पर घर की दो महिनाएं तेल पेर रही थीं। आदिवासी महिलाओं की श्रमशीलता देखकर उनके प्रति श्रद्धा होती है। आदिवासी समाज में श्रम ही तो अर्थोपार्जन का मुख्य आधार रहा है।
दसम जल प्रपात की प्राकृतिक छटा से आदिवासियों की परंपरा भी कम प्राकृतिक नहीं है। यह बात दीगर है कि पर्यटकों की भीड ने जिस तरह प्राकृतिक स्थलों के पर्यावरण को बिगाड दिया है, उसी तरह इन प्रकृति-पुत्रों की संस्कृति भी आधुनिकता की पहुंच से धुंधली हो गई है।
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