सब सों बोलो मीठी बानी, थोड़ी सी जिन्दगानी
येई बानी सुरलोक पठावै, येई नरक निशानी
येई बानी हाथी चढ़वायै, येई उतारे पानी
येई बानी सें तरें ईसुरी, बड़े-बड़े मुनी ज्ञानी।
ईसुरी की उक्त चौकड़िया में पानी से तात्पर्य मनुष्य की इज्जत को सम्बोधित किया गया है। हमें सबसे मृदु वाणी बोलनी चाहिए। हमारा थोड़ा सा ही जीवन है, अगर हम अच्छा बोलेंगे तो उसका परिणाम अच्छा ही होगा। यही वाणी हमें स्वर्ग और नर्क का रास्ता बतलाती है। अच्छी वाणी से हम ऊँचे सिंहासन पर बैठ सकते हैं, वरन अपने द्वारा बोले गए कटु वचनों से हमारी इज्जत भी जा सकती है। ईसुरी कहते हैं कि इस वाणी से बड़े-बड़े तपस्वी मुनिजन स्वर्ग को सिधारे हैं।
छन्दयाऊफाग
पर गओ खलवत यहि असमान,
अपने ठहराये रथ भान
सो सब कच्छ मच्छ हैं जल के
अरन जीवधारी हैं थल के।
समस्त ब्रह्माण्ड में खलबली सी मच गई। पृथ्वी, आकाश यहाँ तक सूर्य भी ठहर गये। जल, जीव तथा थल के निवासी भी उस भूचाल से नहीं बच सके।
चौकड़िया
रहना होनहार से डरते, पल में परलै परते
पल में राजा रंक होत हैं, पल में बने बिगरते
पल में धरती बूँद न आवै, पल में सागर भरते
पल-पल की को जाने ईसुर, पल में प्रान निकरते
समय के छोटे से हिस्से में क्या से क्या हो जाए इसलिए उससे सभी भयभीत रहते हैं। एक पल में प्रलय आ सकती है। एक पल में राजा भिखारी हो जाए, बने बनाये काम बिगड़ सकते हैं। कहो तो पृथ्वी पर पानी का नामोनिशान न हो, और अगले पल इतनी वृष्टि हो जाये कि समुद्र पानी से भर जाए। ईसुरी जी कहते हैं कि इस आले वाले पल के बारे में कोई नहीं जानता, हम अभी जीवित हैं, तो आने वाले पल में हमारे प्राणान्त हो सकते हैं।
रे मन जपौ राम के नामें, सुधर जाय सब जामें
जो तन खात माल लाखन कों, कँपत देख जल घामें
प्रान निकर गए जौ मानस तन, आय न कौनऊ कामें
भरतू काल अकेले जैहो, धर्मराज के धामें।
हे मनुष्य! तू सदैव हरिनाम का स्मरण कर, इसी में तेरी भलाई है। तेरा यह शरीर कीमती से कीमती चीजें खाता है, और थोड़ी सी धूप या पानी को देखकर डर जाता है। इस शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो फिर वह किसी काम का नही रहता। अतः भरतू जी कहते हैं कि समय रहते भगवत् भजन कर ले, जिसमें अंत में तू धर्मराज के द्वार पर जायें अर्थात् तुझे स्वर्ग मिले।
जाती नीर भरन जमना के, दैकें काजर बांके
पांवपोस पैजनियां पैरें, धरतन होत छमाके
वह जमुना का जल भरने को बड़ी सजधज के साथ जाती है। जाने के पहले आँखों में काजल तथा पैरों में पैजना पहने होती है। वह चलती है तो उसके पैरों में पहने पैजनों से छमछम की ध्वनि होती है।
करसें करलेब होम अगिन मां,
कुछ ना परौ ठगनमां
जो घृत परत कुण्ड के भीतर,
सो चढ़ जात गगन मां।
मिल-मिल जात सूर्य की किरनन,
बरसत मेघ गगन मां।
अन्न सें पैदा अन्न,
सें परजा रहत मगन मां।
सब से सिरें पुन्न नारायन,
एही संग लगन मां।
अग्नि में होम कर लो, इस ठगबाजी में मत पड़ो। हवन करने से जो घृत आदि हवन सामग्री का धुआँ आकाश में जाता है, सूर्य की किरणों से मिलकर वाष्प बनकर बादल वर्षा करते हैं। जल वृष्टि होगी तो उससे अनाज की पैदावार होगी अधिक अन्न पैदा होने से प्रजा सुखी होगी। अतः नारायण कहते हैं कि यज्ञ करना सबसे बड़ा पुण्य होता है।
येई बानी सुरलोक पठावै, येई नरक निशानी
येई बानी हाथी चढ़वायै, येई उतारे पानी
येई बानी सें तरें ईसुरी, बड़े-बड़े मुनी ज्ञानी।
ईसुरी की उक्त चौकड़िया में पानी से तात्पर्य मनुष्य की इज्जत को सम्बोधित किया गया है। हमें सबसे मृदु वाणी बोलनी चाहिए। हमारा थोड़ा सा ही जीवन है, अगर हम अच्छा बोलेंगे तो उसका परिणाम अच्छा ही होगा। यही वाणी हमें स्वर्ग और नर्क का रास्ता बतलाती है। अच्छी वाणी से हम ऊँचे सिंहासन पर बैठ सकते हैं, वरन अपने द्वारा बोले गए कटु वचनों से हमारी इज्जत भी जा सकती है। ईसुरी कहते हैं कि इस वाणी से बड़े-बड़े तपस्वी मुनिजन स्वर्ग को सिधारे हैं।
छन्दयाऊफाग
पर गओ खलवत यहि असमान,
अपने ठहराये रथ भान
सो सब कच्छ मच्छ हैं जल के
अरन जीवधारी हैं थल के।
समस्त ब्रह्माण्ड में खलबली सी मच गई। पृथ्वी, आकाश यहाँ तक सूर्य भी ठहर गये। जल, जीव तथा थल के निवासी भी उस भूचाल से नहीं बच सके।
चौकड़िया
रहना होनहार से डरते, पल में परलै परते
पल में राजा रंक होत हैं, पल में बने बिगरते
पल में धरती बूँद न आवै, पल में सागर भरते
पल-पल की को जाने ईसुर, पल में प्रान निकरते
समय के छोटे से हिस्से में क्या से क्या हो जाए इसलिए उससे सभी भयभीत रहते हैं। एक पल में प्रलय आ सकती है। एक पल में राजा भिखारी हो जाए, बने बनाये काम बिगड़ सकते हैं। कहो तो पृथ्वी पर पानी का नामोनिशान न हो, और अगले पल इतनी वृष्टि हो जाये कि समुद्र पानी से भर जाए। ईसुरी जी कहते हैं कि इस आले वाले पल के बारे में कोई नहीं जानता, हम अभी जीवित हैं, तो आने वाले पल में हमारे प्राणान्त हो सकते हैं।
रे मन जपौ राम के नामें, सुधर जाय सब जामें
जो तन खात माल लाखन कों, कँपत देख जल घामें
प्रान निकर गए जौ मानस तन, आय न कौनऊ कामें
भरतू काल अकेले जैहो, धर्मराज के धामें।
हे मनुष्य! तू सदैव हरिनाम का स्मरण कर, इसी में तेरी भलाई है। तेरा यह शरीर कीमती से कीमती चीजें खाता है, और थोड़ी सी धूप या पानी को देखकर डर जाता है। इस शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो फिर वह किसी काम का नही रहता। अतः भरतू जी कहते हैं कि समय रहते भगवत् भजन कर ले, जिसमें अंत में तू धर्मराज के द्वार पर जायें अर्थात् तुझे स्वर्ग मिले।
जाती नीर भरन जमना के, दैकें काजर बांके
पांवपोस पैजनियां पैरें, धरतन होत छमाके
वह जमुना का जल भरने को बड़ी सजधज के साथ जाती है। जाने के पहले आँखों में काजल तथा पैरों में पैजना पहने होती है। वह चलती है तो उसके पैरों में पहने पैजनों से छमछम की ध्वनि होती है।
करसें करलेब होम अगिन मां,
कुछ ना परौ ठगनमां
जो घृत परत कुण्ड के भीतर,
सो चढ़ जात गगन मां।
मिल-मिल जात सूर्य की किरनन,
बरसत मेघ गगन मां।
अन्न सें पैदा अन्न,
सें परजा रहत मगन मां।
सब से सिरें पुन्न नारायन,
एही संग लगन मां।
अग्नि में होम कर लो, इस ठगबाजी में मत पड़ो। हवन करने से जो घृत आदि हवन सामग्री का धुआँ आकाश में जाता है, सूर्य की किरणों से मिलकर वाष्प बनकर बादल वर्षा करते हैं। जल वृष्टि होगी तो उससे अनाज की पैदावार होगी अधिक अन्न पैदा होने से प्रजा सुखी होगी। अतः नारायण कहते हैं कि यज्ञ करना सबसे बड़ा पुण्य होता है।
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