गणपति बप्पा मोरया! गणपतिजी गए। नदियां उनके जाने से ज्यादा, उनकी प्रतिमाओं के नदी विसर्जन से दुखी हुईंं। विश्वकर्मा प्रतिमा का विसर्जन भी नदियों में ही हुआ। नवरात्र शुरु होने वाला है। नदियों ने बरसात के मौसम में खुद की सफाई कि अब त्योहारों का मौसम आ रहा है और लाखों मुर्तियां नदियों में विसर्जित की जाएंगी। नदियां आर्तनाद कर रही हैं कि मुझे फिर गंदला किया जाएगा।
गत् वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद शायद गंगा-यमुना बहनों ने राहत की सांस ली होगी कि अगली बार उन्हें कम-से-कम उत्तर प्रदेश में तो मूर्ति सामग्री का प्रदूषण नहीं झेलना पड़ेगा। किंतु उत्तर प्रदेश शासन की जान-बूझकर बरती जा रही ढिलाई और अदालत द्वारा दी राहत ने तय कर दिया है कि इस वर्ष भी गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन जारी रहेगा।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव महोदय ने अभी हाल ही में बयान दिया था कि गंगा को किसी भी हालत में प्रदूषित नहीं होने दिया जाएगा। किंतु 19 सितम्बर, 2014 को शासन ने अदालत के सामने फिर हाथ खड़े कर दिए। अदालत ने कहा कि इलाहाबाद शहर को छोड़कर गंगा-यमुना किनारे के शेष 21 जिलों में मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाई है। लिहाजा, गंगा-यमुना में ही मूर्ति विसर्जन की छूट दी जाए। दिलचस्प है कि जारी ताजा आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सशर्त छूट भी दे दी है। शर्त यह है कि मूर्ति विसर्जन कराते वक्त स्थानीय प्रशासन सुनिश्चित करें कि मूर्ति विसर्जन के बाबत् केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी मार्ग-निर्देशों का पूरी तरह पालना हो।
कोर्ट के आदेश को लेकर उप्र. शासन इलाहाबाद कोर्ट के आदेश की पालना करने के प्रति कितना प्रतिबद्ध है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए शासन ने अभी तक राशि ही जारी नहीं की है। ऐसे में वैकल्पिक व्यवस्था की उम्मीद करें, तो करें कैसे?
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है; लगातार तीसरी साल यह छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश शासन पिछले तीन साल से अदालत के सामने कोई-न-कोई बहाना बनाकर यह छूट हासिल कर रहा है।
गौरतलब है कि ‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे।
प्रशासन ने समय की कमी का रोना रोते हुए वर्ष-2012 में यह छूट हासिल कर ली थी और यह वादा किया था कि वह अगले वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था कर लेगा। वर्ष-2013 में उसने स्थानीय खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कानून-व्यवस्था बिगड़ने का डर दिखाकर कोर्ट से फिर छूट हासिल की। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर यह रोक वर्ष-2014 से पूरे उत्तर प्रदेश में लागू हो जाएगी। इसके लिए उसने गंगा-यमुना प्रवाह मार्ग के जिलाधिकारियों को आवश्यक निर्देश व आवश्यक धन जारी करने का निर्देश भी उप्र. शासन को दे दिए थे।
‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे, पर इसे अमल में नहीं लाया गया। हर साल नए बहाने गढ़े गए। प्रश्न यह है कि आखिर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा अदालत के समक्ष बार-बार हाथ जोड़ कर काम चला लेने के इस रवैये के पीछे के क्या कारण है? क्या कोर्ट का दिया आदेश अव्यावहारिक है? क्या वैकल्पिक व्यवस्था करने में कोई तकनीकी दिक्कत है अथवा समाज इसके लिए तैयार नहीं? इलाहाबाद शहर में प्रशासन द्वारा तालाब बनाकर की गई वैकल्पिक व्यवस्था के बाद सब प्रश्न बेमानी हो जाते हैं, सिवाय इसके कि उप्र. शासन इस आदेश को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। वह मानता है कि गंगा-यमुना में पहले ही इतना प्रदूषण है, थोड़ा और हो गया, तो क्या फर्क पड़ेगा?
उल्लेखनीय है कि केेन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष-2010 में अलग-अलग प्रकार की जल संरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी निर्देश जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक, मूर्ति विसर्जन से पहले जैविक-अजैविक पदार्थों को मूर्ति से उतारकर अलग-अलग रखना जरूरी है। वस्त्रों को उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना चाहिए। सिंथेटिक पेंट (रंग) के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक ऐसा जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके।
मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जल संरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत् नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के सैद्धांतिक मार्गदर्शी निर्देशों को लागू कराने के लिए जनजागृति की जिम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।
उत्तर प्रदेश का राज भले ही इच्छुक न हो, समाज चाहे तो इन निर्देशों का पालन कर मिसाल पेश कर सकता है। समाज भी जागे और नदी की पीड़ा के बहाने यह समझे कि नदियों के मलिन होने से उसकी आर्थिकी, भूगोल, खेती और सेहत... सब कुछ मलिन हो रहे हैं। इससे उबरने के लिए जरूरी है कि हम खुद वैकल्पिक व्यवस्था करने की खुद पहल करें। नदियों में मूर्ति विसर्जन की बजाय या तो भूमि विसर्जन करें अथवा स्थानीय तालाबों में विसर्जन करें। यह करते वक्त केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मार्ग-निर्देशों का पालन करना न भूलें। ऐसा कर हम अपनी नदियों का सहयोग करेंगे, और अपनी सेहत का भी।
वैकल्पिक व्यवस्था हेतु धनराशि जारी करने को लेकर अदालत ने आगामी 26 सितम्बर को फिर सुनवाई तय की है। उत्तर प्रदेश के सामाजिक संगठनों द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़े पैमाने पर निवेदन किए जाने की जरूरत है कि वह आदेश के दायरे में आने वाले सभी शहरों के जिलाधीशों से मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था संबंधी समयबद्ध कार्य योजना का हलफनामा ले। पालना होने पर उनके दण्ड से भी अभी ही अवगत करा दे, ताकि 2014 में मिली छूट अंतिम हो और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन को लेकर यह आदेश एक नजीर बने और इससे प्रेरित हो देश की सभी नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक की राह खुले। हो सकता कि तब शंकराचार्य जी धर्म संसद कर इस बाबत् भी कोई धर्मादेश जारी कर दें।
गत् वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद शायद गंगा-यमुना बहनों ने राहत की सांस ली होगी कि अगली बार उन्हें कम-से-कम उत्तर प्रदेश में तो मूर्ति सामग्री का प्रदूषण नहीं झेलना पड़ेगा। किंतु उत्तर प्रदेश शासन की जान-बूझकर बरती जा रही ढिलाई और अदालत द्वारा दी राहत ने तय कर दिया है कि इस वर्ष भी गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन जारी रहेगा।
जब राशि आवंटन ही नहीं, तो वैकल्पिक व्यवस्था कैैसी ?
उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव महोदय ने अभी हाल ही में बयान दिया था कि गंगा को किसी भी हालत में प्रदूषित नहीं होने दिया जाएगा। किंतु 19 सितम्बर, 2014 को शासन ने अदालत के सामने फिर हाथ खड़े कर दिए। अदालत ने कहा कि इलाहाबाद शहर को छोड़कर गंगा-यमुना किनारे के शेष 21 जिलों में मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाई है। लिहाजा, गंगा-यमुना में ही मूर्ति विसर्जन की छूट दी जाए। दिलचस्प है कि जारी ताजा आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सशर्त छूट भी दे दी है। शर्त यह है कि मूर्ति विसर्जन कराते वक्त स्थानीय प्रशासन सुनिश्चित करें कि मूर्ति विसर्जन के बाबत् केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी मार्ग-निर्देशों का पूरी तरह पालना हो।
कोर्ट के आदेश को लेकर उप्र. शासन इलाहाबाद कोर्ट के आदेश की पालना करने के प्रति कितना प्रतिबद्ध है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए शासन ने अभी तक राशि ही जारी नहीं की है। ऐसे में वैकल्पिक व्यवस्था की उम्मीद करें, तो करें कैसे?
तीन साल, तीन बहाने
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है; लगातार तीसरी साल यह छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश शासन पिछले तीन साल से अदालत के सामने कोई-न-कोई बहाना बनाकर यह छूट हासिल कर रहा है।
गौरतलब है कि ‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे।
प्रशासन ने समय की कमी का रोना रोते हुए वर्ष-2012 में यह छूट हासिल कर ली थी और यह वादा किया था कि वह अगले वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था कर लेगा। वर्ष-2013 में उसने स्थानीय खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कानून-व्यवस्था बिगड़ने का डर दिखाकर कोर्ट से फिर छूट हासिल की। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर यह रोक वर्ष-2014 से पूरे उत्तर प्रदेश में लागू हो जाएगी। इसके लिए उसने गंगा-यमुना प्रवाह मार्ग के जिलाधिकारियों को आवश्यक निर्देश व आवश्यक धन जारी करने का निर्देश भी उप्र. शासन को दे दिए थे।
रोक को इच्छुक नहीं शासन
‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे, पर इसे अमल में नहीं लाया गया। हर साल नए बहाने गढ़े गए। प्रश्न यह है कि आखिर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा अदालत के समक्ष बार-बार हाथ जोड़ कर काम चला लेने के इस रवैये के पीछे के क्या कारण है? क्या कोर्ट का दिया आदेश अव्यावहारिक है? क्या वैकल्पिक व्यवस्था करने में कोई तकनीकी दिक्कत है अथवा समाज इसके लिए तैयार नहीं? इलाहाबाद शहर में प्रशासन द्वारा तालाब बनाकर की गई वैकल्पिक व्यवस्था के बाद सब प्रश्न बेमानी हो जाते हैं, सिवाय इसके कि उप्र. शासन इस आदेश को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। वह मानता है कि गंगा-यमुना में पहले ही इतना प्रदूषण है, थोड़ा और हो गया, तो क्या फर्क पड़ेगा?
मार्गदर्शी निर्देश
उल्लेखनीय है कि केेन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष-2010 में अलग-अलग प्रकार की जल संरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी निर्देश जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक, मूर्ति विसर्जन से पहले जैविक-अजैविक पदार्थों को मूर्ति से उतारकर अलग-अलग रखना जरूरी है। वस्त्रों को उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना चाहिए। सिंथेटिक पेंट (रंग) के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक ऐसा जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके।
मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जल संरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत् नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के सैद्धांतिक मार्गदर्शी निर्देशों को लागू कराने के लिए जनजागृति की जिम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।
समाज करे पहल
उत्तर प्रदेश का राज भले ही इच्छुक न हो, समाज चाहे तो इन निर्देशों का पालन कर मिसाल पेश कर सकता है। समाज भी जागे और नदी की पीड़ा के बहाने यह समझे कि नदियों के मलिन होने से उसकी आर्थिकी, भूगोल, खेती और सेहत... सब कुछ मलिन हो रहे हैं। इससे उबरने के लिए जरूरी है कि हम खुद वैकल्पिक व्यवस्था करने की खुद पहल करें। नदियों में मूर्ति विसर्जन की बजाय या तो भूमि विसर्जन करें अथवा स्थानीय तालाबों में विसर्जन करें। यह करते वक्त केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मार्ग-निर्देशों का पालन करना न भूलें। ऐसा कर हम अपनी नदियों का सहयोग करेंगे, और अपनी सेहत का भी।
.... ताकि बने नजीर
वैकल्पिक व्यवस्था हेतु धनराशि जारी करने को लेकर अदालत ने आगामी 26 सितम्बर को फिर सुनवाई तय की है। उत्तर प्रदेश के सामाजिक संगठनों द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़े पैमाने पर निवेदन किए जाने की जरूरत है कि वह आदेश के दायरे में आने वाले सभी शहरों के जिलाधीशों से मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था संबंधी समयबद्ध कार्य योजना का हलफनामा ले। पालना होने पर उनके दण्ड से भी अभी ही अवगत करा दे, ताकि 2014 में मिली छूट अंतिम हो और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन को लेकर यह आदेश एक नजीर बने और इससे प्रेरित हो देश की सभी नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक की राह खुले। हो सकता कि तब शंकराचार्य जी धर्म संसद कर इस बाबत् भी कोई धर्मादेश जारी कर दें।
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Post By: Shivendra