![अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान में। फोटो - सिविल सोसाइटी, लक्ष्मण आनंद](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-01/water_guru.869x568.jpg?itok=UcqQMz_o)
अनुपम मिश्र या हम सबके पमपम अब हमारे बीच नहीं हैं। वे चुपचाप चले गए। अनुपम का जिंदगी को जीने का तरीका भी यही था। टायर के सोल वाली रबर की चप्पल पहनकर जब ये चलते थे तो उनके पैर आवाज नहीं करते थे। अनुपम अपने सारे काम चुपचाप रहकर करते रहते थे। चुप रहकर काम करने को अनुपम ने अपने स्वभाव में कुछ इस तरह से पिरो लिया था कि अपने अंदर की 'तकलीफों को भी उन्होंने और किसी के साथ कभी नहीं बांटा।
लगभग 50 सालों को हमारी दोस्ती के दौरान उन्होंने कभी कोई मौका नहीं दिया कि मैं उन्हें उनके काम के अलावा कहीं और से कुरेद सकूं। उनके बारे में कुछ ऐसा जान सकूं जो किसी और को पता नहीं है। शायद ऐसा हो कि उनके बारे में सब कुछ इतना सार्वजानिक रहा कि कभी कुछ व्यक्तिगत हो ही नहीं पाया।
उनकी इस जानलेवा बीमारी से संघर्ष के दौरान भी फोन पर बातचीत या घर पर मुलाकात के समय भी हमेशा ही अनुपम अपनी चिरपरिचित मुस्कराहट के साथ आश्वस्त करते हुए मिले कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।
अनुपम में अद्भुत साहस था। ऐसा साहस केवल रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले और थके हुए जिंदगी भर पानी की खोज में जुटे रहने वाले यात्रियों में ही दूंढा जा सकता है।
पर्यावरण के लिए उनकी चिंता उनकी आत्मा से जुड़ी थी। ये उनके लिए महज एक काम भर नहीं था। साल 1973 के चिपको आन्दोलन और उसके हीरो चंडीप्रसाद भट्ट को उस जमाने में चर्चित बनाने में अनुपम ने बहुत मेहनत की थी।
अनुपम भी एक ऐसे हो यात्री थे। वे अगर खोज में नहीं जुटते तो राजस्थान के जैसलमेर जैसे इलाके के कई ऐसे तालाब दुनिया की नजरों से हमेशा के लिए ओझल रह जाते जिनके मीठे पानी के दम पर एक बड़ी आबादी तमाम संघर्षों के बावजूद अभी तक कायम है।
अनुपम चले गए हैं। अब उन खरे तालाबों की खोज कौन करेगा। अनुपम बार-बार आग्रह करते रहे कि मैं केवल एक बार उनके साथ जैसलमेर की यात्रा पर चलूं, पर ऐसा कभी हो ही नहीं पाया।
साल 1971 में मैं दिल्ली पहुंचा था और राजघाट कॉलोनी स्थित गांधी स्मारक निधि में अनुपम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। उनके साथ काम भी करता था और उनके पड़ोस में रहता भी था। प्रभाष जोशी हमारे लीडर थे। हम तीनों ही अक्सर साथ रहते थे। यात्राओं पर जाते थे और काम करते थे। प्रभाष जोशी के जाने के बाद अनुपम काफी अकेले पड़ गए थे। मैंने पहले ही दिल्ली छोड़ दिया था। गांधी शांति प्रतिष्ठान, सर्व सेवा संघ के सर्वोदय साप्ताहिक और फिर इंडियन एक्सप्रेस प्रकाशन समूह के साप्ताहिकों प्रजानीति और आसपास में हमने साथ-साथ काम किया है।
अनुपम बहुत अच्छे पत्रकार थे, पर कम हो लोग जानते हैं कि वो बेहद अच्छे फोटोग्राफर भी थे। उनको तस्वीरें बड़ी प्रमुखता से छापी जाती थी, पर अपने का पहलुओं कौ तरह यो अपने इस पहलू छुपा कर रखते थे। प्रभाष जोशी हमारे संपादक थे। चंबल घाटी में साल 1972 में जयप्रकाश नारायण के सामने हुए डाकुओं के आत्मसमर्पंण पर
हम तीनों की लिखी किताब ‘चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में’ काफी चर्चित रही। अनुपम के साथ चंबल घाटी में रहने और घूमने का काफी मौका मिला।
अनुपम ने कभी इस बात को अपना परिचय नहीं बनाया कि ये कविवर भवानी प्रसाद मित्र के बेटे हैं। अनुपम ने अपने संसार की स्वतंत्र रूप से रचना की और अपनी उपलब्धियों पर अहंकार को कभी हावी नहीं होने दिया।
अनुपम अंदर से समाजवादी विचारधारा के थे और समाजवादियों के एक बड़े समूह के साथ एक लंबे अरसे तक जुड़े रहे। आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार के गठन में समाजवादियों की भूमिका में भी अनुपम काफी सक्रिय थे।
1975 में आपातकाल लगने के बाद जब इंडियन एक्सप्रेस पर संकट आया और पहले प्रजानीति और बाद में आसपास को जब बंद करना पड़ा तो अनुपम ने गांधीवाद को अपने जीवन का रास्ता बना लिया। समाजवादियों के साथ वे जुड़े थे, पर सत्ता के समाजवाद को अपनी निष्कपट ईमानदारी के नजदीक फटकने तक नहीं दिया।
अनुपम का यूं चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति इसलिए है कि जिस गांधी मार्ग पर वे अपने स्नेहियों-शुभचिंतकों की जमात को साथ लेकर चल रहे थे, वह अब सूना हो जाएगा। अनुपम की उपस्थिति मात्र से दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर बना गांधी शांति प्रतिष्ठान जिस तरह की आवाजाही और गतिविधियों से संपन्न रहता था, वह अब निश्चित ही पहले की तरह नहीं रहने वाला है।
अनुपम का कमरा जिस तरह के सन्नाटे को छोड़ कर गया है, उसे तोड़ पाना शायद संभव नहीं हो पाएगा।अनुपम का चले जाना उनके चाहनेवालों के एक बड़े समुदाय की सामूहिक क्षति है और उसकी पूर्ति नहीं हो सकती है।
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