पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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गंगा की सांझ
Posted on 17 Aug, 2013 11:11 AM अभी गिरा रवि, ताम्र कलश-सा,
गंगा के उस पार,
क्लांत पांथ, जिह्वा विलोल
जल में रक्ताभ प्रसार;
भूरे जलदों से धूमिल नभ,
विहग छंदों – से बिखरे –
धेनु त्वचा – से सिहर रहे
जल में रोओं – से छितरे!

दूर, क्षितिज में चित्रित – सी
उस तरु माला के ऊपर
उड़ती काली विहग पांति
रेखा – सी लहरा सुंदर!
उड़ी आ रही हलकी खेवा
दो आरोही लेकर,
मैं गंगा हूँ माँ भी हूँ मैं
Posted on 17 Aug, 2013 09:18 AM मैं गंगा हूँ माँ भी हूँ मैं

कहते जग की कल्याणी मैं

शिव के ललाट में धारी हूँ

उनके करवट लेने से ही

मैं प्रलयंकर बन जाती हूँ

जो गरल पी गए थे हंस कर...

उन सर्जक की अभिलाषा हूँ

मैं सदियों से बन मोक्ष दात्री

अमृत घट, प्रलय ले साथ-साथ

हिमवान पिता का प्रणव घोष
मैं गंगा हूँ
Posted on 16 Aug, 2013 04:26 PM मैं गंगा हूँ-गंगा मैया,

हाँ, यही तो प्रसिद्ध नाम है मेरा,

भागीरथी, जान्हवी, मंदाकिनी, विष्णुपदी
अन्य कई नाम भी है मेरे,

महाराजा भागीरथ बने थे
भू-लोक पर मेरे अवतरण के कारक,

मैंने ही मोक्ष प्रदान किया था सगर पुत्रों को,

भारत राष्ट्र की आत्मा मुझमें बसती है,

यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा,
प्रिय, जीवन-नद अपार
Posted on 16 Aug, 2013 02:40 PM प्रिय, जीवन-नद अपार,
विशद पाट, तीव्र धार, गहर भंवर, दूर पार,-
प्रिय, जीवन-नद अपार।


(1)
इस तट पर ना जाने कब से रम रहे प्राण,
ना जाने कितने युग बीत चुके शून्य मान,
पर, अब की उस तट से आई है वेणु-तान,
खींच रही प्राणों को बरबस ही बार-बार?
प्रिय, जीवन-नद अपार।

(2)
किस विधि नद करूं तरित? पहुंचूं उस पार, सजन?
नौका-निर्वाण
Posted on 16 Aug, 2013 02:30 PM यह रात मौन – व्रत धारे,
ओढ़े यह चादर काली,
लक्षावधि झिलमिल आंखे
क्यों दिखा रही मतवाली?

अंतरतर का अंधियारा
यह फैल पड़ा भूतल में,
सब ओर यही है छाया-
वन-उपवन में, जल-थल में।

कैसे बन गया अंधेरा
मेरा वह रूप उजेला?
कैसे लुट गया अचानक
मेरे प्रकाश का मेला?

क्या तुम सुनना चाहोगे?
वह तो है एक कहानी;
धारा
Posted on 03 Aug, 2013 11:30 AM बहने दो,
रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है,
यौवन-मद की बाढ़ नदी की
किसे देख झुकती है?
गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो-
अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।
सुना, रोकने उसे कभी कुंजर आया था,
दशा हुई फिर क्या उसकी?
फल क्या पाया था?

तिनका-जैसा मारा-मारा
फिरा तरंगों में बेचारा-
गर्व गँवाया-हारा;
अगर हठ-वश आओगे,
तरंगों के प्रति
Posted on 30 Jul, 2013 12:44 PM किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर
आती हो तुम सजी मंडलाकार?
एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर
गाती हो ये कैसे गीत उदार?
सोह रहा है हरा क्षीण कटि में, अंबर शैवाल,
गाती आप, आप देती सुकुमार करों से ताल।
चंचल चरण बढ़ाती हो,
किससे मिलने जाती हो?
तैर तिमिर-तल भुज-मृणाल से सलिल काटती,
आपस में ही करती हो परिहास,
हो मरोरती गला शिला का कभी डाँटती,
गीत
Posted on 30 Jul, 2013 12:43 PM अस्ताचल रवि, छलछल-छवि,
स्तब्ध विश्व कवि, जीवन-उन्मन,
मंद पवन बहती सुधि रह-रह
परमिल की कह कथा पुरातन।

दूर नदी पर नौका सुंदर,
दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर,
वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की
बिना गेह की बैठी नूतन।

ऊपर शोभित मेघ छत्र सित,
नीचे अमिट नील जल दोलित;
ध्यान-नयन-मन, चिन्त्य प्राण-धन
,किया शेष रवि ने कर अर्पण।
लघु तटिनी
Posted on 30 Jul, 2013 12:41 PM लघु तटिनी, तट छाईं कलियाँ,
गूँजी अलियों की आवलियाँ।

तरियों की परियाँ हैं जल पर,
गाती हैं खग-कुल, कल-कल-स्वर,
तिरती हैं सुख-सुकर पंख-भर,
घूम-घूमकर सुघर मछलियाँ।

जल-थल-नभ आनंद-भास है,
किसी विश्वमय का विकास है,
सलिल-अनिल उर्मिल विलास है,
निस्तल-गीति-प्रीति की तालियाँ।

परिचय से संचित सारा जग,
राग-राग से जीवन जगमग,
पतित पावनी, गंगे!
Posted on 29 Jul, 2013 01:30 PM पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!

कलकाचल-विमल धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!
सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहार
जल-धारा-धाराधर-
मुखर, सुकर-कर-अंगे!

रचनाकाल : 16 जनवरी, 1950। ‘अर्चना’ में संकलित

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