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दिल्ली
‘आज भी खरे हैं तालाब’ का दीवाना फरहाद
Posted on 27 Mar, 2012 04:44 PM‘आज भी खरे हैं तालाब’ का पहला संस्करण कोई अट्ठारह बरस पहले आया था। तब से अब तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली ने इसके पांच संस्करण छापे हैं। पुस्तक पर किसी तरह का कॉपीराइट नहीं रखा था। गांधी शांति प्रतिष्ठान के पांच संस्करणों के अलावा देश भर के अनेक अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं, आंदोलनों, प्रकाशकों और सरकारों ने इसे अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया है, इन अट्ठारह बरसों में। कुछ ने बताकर तो कुछ ने बिना बताए भी।‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कोई बत्तीस संस्करण और कुल प्रतियों की संख्या 2 लाख के आसपास छपी और बंटी।

आसान नहीं है परस्पर नदियों को जोड़ना
Posted on 10 Mar, 2012 01:41 AMवैसे ‘पानी हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। परंतु जो नदियां एक से अधिक राज्यों में बहती है

नदी जोड़ने का नापाक फैसला
Posted on 08 Mar, 2012 02:14 AM.thumbnail.jpg)

नदियों को ऊपर नहीं, भीतर से जोड़ने की जरूरत
Posted on 02 Mar, 2012 11:37 AMजिन नदियों को यह कहकर दूसरी नदियों से जोड़ा जा रहा है, उनके पानी में लगातार कमी आ रही है। नदियों में निर्मल जल न

प्रकृति को सहेजने की कोशिश
Posted on 13 Jan, 2012 05:11 PM75 साल के सत्यदेव सगवान ने सेना की नौकरी करते समय प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ भावनात्मक नाता जोड़ा। अपने परिश्रम से उन्होंने हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों को हरा-भरा किया है। अपने घर पर ही 2500 पौधों की नर्सरी तैयार की है। इनमें वट, पीपल, खेजड़ी, नीम, जामुन व कदम के पौधे हैं। सत्यदेव जी यह कहकर कि पेड़ भूमि क्षरण रोकने व वर्षा की स्थिति बेहतर करने साथ ही भूमंडल से ब्रह्मांडीय संपर्क भी सकारात्मक एवं सहज करते हैं, लोगों को पौधे रोपने के लिए प्रेरित करते हैं।
इंसान के क्षुद्र स्वार्थ ने पर्यावरण का गंभीर संकट पैदा कर दिया है। इस कारण कब बाढ़ आ जाए, और कब सूखे की मार पड़ जाए या कहां भूकम्प आ जाए, कहा नहीं जा सकता। इसका एकमात्र जिम्मेदार प्राणी मानव है और इसके निदान के लिए जलवायु सम्मेलनों से ही बात नहीं बनेगी। देश-दुनिया का पर्यावरण बचाने के लिए सभी को दिल से कोशिश करनी होगी जैसे गढ़वाल क्षेत्र की की डॉ. हर्षंवती बिष्ट, नैनीताल के वनखंडी महाराज, राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के स्कूल शिक्षक दिनेश व्यास और हरियाणा के 75 वर्षीय सत्यदेव सगवान कर रहे हैं।‘राजधानी दिल्ली और पानी’ मुद्दे पर एक सप्ताह के कई कार्यक्रमों में आपको आमंत्रण
Posted on 23 Nov, 2011 01:00 PMक्या आप जानते हैं कि दिल्ली भारत में किसी भी दूसरे शहर की तुलना में प्रति व्यक्ति अधिक पानी की खपत करती है? फिर भी प्यास अभी भी अतृप्त है। ‘राजधानी दिल्ली और पानी’ मुद्दे पर नवंबर 19-26 तक विभिन्न कार्यक्रम होंगे। हौज-खास स्थित जय भारत केन्द्र में हो रहे इन कार्यक्रमों में फोटो प्रदर्शनी, फिल्म स्क्रीनिंग, वार्ता आदि हो रहे हैं।
आरटीआई के बारे में क्या नहीं जानते हम
Posted on 21 Nov, 2011 02:48 PMआप सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हैं? क्या आपको मालूम है कि आप अपने पास के डाक घर से केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में सूचना अधिकारियों को बिना किसी डाक खर्च के अपना आवेदन, प्रथम अपील और दूसरी अपील कर सकते हैं?मेरा अपना आकलन है कि ये डाक घरों के जरिये मुफ्त में सूचनाएं मांगने का आवेदन पत्र भेज सकते हैं, यह जानकारी देश के 0.5 प्रतिशत लोगों को भी नहीं है. यह संसद जानती है. देश भर के 4707 डाकघर के लोग जानते हैं. लेकिन जिनके लिए सूचना का अधिकार कानून बनाया गया है, वे नहीं जानते.
लोकतंत्र में संचार व्यवस्था का अध्ययन

विनाश की ओर बढ़ता विकास
Posted on 21 Nov, 2011 02:17 PMसबसे बड़ी चिंता ये है कि हमने इतना प्रदूषण पैदा कर दिया है कि हमारी समुद्र की सतह पर जो गर्मी रहा करती थी, वो बढ़ रही है और गर्मी बढ़ने के कारण जो हवाएं ठीक से चलनी चाहिए, उसमें विघ्न पड़ गया है। उस विघ्न का भी नाम उन्होंने अलनीनो इफेक्ट कह रखा है। उसके कारण से जो बिचारे बादल आ रहे थे, वे बीच में रुक गए और बाकी के लौट गए बेचारे। अगर बादलों को हवा नहीं ले के आएगी, तो बादलों के पांव तो कोई होते नहीं हैं। अपने आप तो वो चल कर आ नहीं सकते हैं। उनको हवाएं ही लाएंगी। और वो हवाएं अगर गड़बड़ हो गई हैं, तो क्या होगा?
कल मैं पटना से चला। वो हफ्ते में दो दिन चलने वाली गाड़ी है, इसलिए उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी। मैं जाकर अपनी जगह पर बैठा। सामने एक विदेशी लेटे हुए थे। थोड़ी दूर गाड़ी आगे निकली। उन्होंने देखा कि उस डिब्बे में बैठे हुए लोग आकर मेरे दस्तखत लेने की कोशिश कर रहे हैं, मुझसे बात कर रहे हैं। उनको लगा कि ऐसे लेटे रहना शायद ठीक नहीं है। उन्होंने उठकर किसी से जाकर बात की होगी कि ये कौन हैं। फिर उन्होंने मुझसे माफी मांगी और कहा कि मैं इतनी देर पैर पसारे आपके सामने इस तरह से लेटा हुआ हूं तो ये मैं असभ्यता कर रहा था। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं आज आपके साथ यात्रा कर रहा हूं।वे जर्मनी के पत्रकार थे। एक साल की छुट्टी लेकर दुनिया घूमने के लिए निकले हुए हैं। अभी वो बिलकुल चले आ रहे थे चीन से। वे चीन से नेपाल आए और नेपाल से दार्जिलिंग आए और दार्जिलिंग से बस पकड़कर पटना। पटना स्टेशन के बाहर भोजन वगरैह करके बहुत थके हुए थे, इसलिए लेट गए होंगे। जवान आदमी, ठीक बात कर रहे थे। पूछा कि आप क्यों जा रहे हैं वहां। मैंने बताया कि वहां सर्व सेवा संघ में आधुनिक सभ्यता के संकट पर ‘हिन्द स्वराज’ की चर्चा है। जर्मनी के किसी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में पढ़े अच्छे पत्रकार थे वे। उन्होंने कहा कि हां संकट तो सही है लेकिन
संदर्भः भूमि अधिग्रहण बिल व प्रादेशिक नीतियां
Posted on 22 Oct, 2011 02:55 PMमुआवजा बढ़ाने से ज्यादा कृषि व सामुदायिक भूमि बचाने की नीति बनाने की जरूरत

नीति बनाकर ही हो नदियों का संरक्षण
Posted on 18 Oct, 2011 12:03 PMयदि नदियों को और खुद को बचाना है, तो सामाजिक जवाबदारी व हकदारी दोनों साथ सुनिश्चित करनी ही पड़
