नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है। 27 फरवरी को मुख्य न्यायाधीश एचएस कापडिया की खंडपीठ ने इस परियोजना को यह कहते हुए वैध करार दे दिया कि इससे आम आदमी को फायदा होगा। इसके साथ ही बहस का नया पिटारा खुल गया है। विरोध के स्वर को देखते हुए अब तक ये माना जा रहा था कि ये योजना देश-व्यापी नहीं रह जाएगी और ख़ास-ख़ास जगहों पर ही इसे आजमाना ज्यादा मुफीद रहेगा। ये उम्मीद की जा रही थी कि इस दौरान किसी विवाद में योजना विरोधियों की ओर से कोर्ट का दखल लिया जाएगा। ये विकल्प अब भी खुला है लेकिन कोर्ट के रूख ने साफ़ कर दिया है कि सरकारें अब तेजी दिखाएं। सरकारी कार्यप्रणाली समझने वाले मान रहे हैं कि ऐसे मेगा प्रोजेक्ल्ट्स के लिए फंड का रोना देखने को नहीं मिलेगा । खर्च जुटा ही लिया जाएगा। योजना के अमल में कमीशन की माया की पूजा होगी और अगले कई सालों तक राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए पैसा आड़े नहीं आएगा।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।
क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा। जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का राईस बवेल कहलाता रहेगा? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर डिस्चार्ज होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है। पहले ये इलाका तीन फसली था अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में डॉल्फिन बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी, आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्य काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।
सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएंगी उसका भान फिलहाल अधिकाँश लोगों को नहीं है। इन पर देश-व्यापी विमर्श चलेगा। प्रकृति-प्रेमी , पर्यावरंविद, इकोसिस्टम के जानकार, कृषि विश्लेषक, अर्थ-शास्त्री, समाज-सेवी , एन जी ओ , संस्कृति-कर्मी और स्थानीय स्तर पर जन-हस्तक्षेप करने वाले समूह ( इनमें माओवादी थिंक-टेंक भी होंगे ) अपनी आशंका जताएंगे। ये विमर्श स्वस्थ भी होगा औए माथे पर सिकन भी पैदा करेगा। इसके उलट योजना समर्थक गुलाबी तस्वीर पेश करने से नहीं चूकेंगे। वे बताएंगे कि कैसे इस कदम से भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ-व्यवस्था बन सकेगा। सुखाड़ क्षेत्र को पानी और बाढ़ वाले इलाके कि जलजमाव से मुक्ति और साथ ही जल -बिजली की अपार संभावना बेशक ये सुहानी तस्वीरें हैं।
क्या बाढ़ सचमुच इतना बुरा है? क्या नदियों वाले इलाके के लोग बाढ़ नहीं चाहते? जल-जमाव से मुक्त होने के बाद क्या वे पश्चिमी भारत के लोगों की तरह ज्वार-बाजरा उपजाने के लिए लालाइत होंगे? और क्या ऐसा होने पर उनकी संस्कृति यानि जीवन-शैली नहीं बदल जाएगी? क्या राजस्थान चावल उत्पादक राज्य बन कर इठलाएगा? नदियाँ जोड़ी जाएँगी तो जमीन की प्रकृति बदलेगी। इसे कोई रोक नहीं पाएगा। इसका असर वहां रहनेवाले लोगों पर होगा। जब भविष्य में राजस्थान धान की पैदावार वाला राज्य बनेगा तब क्या छतीस-गढ़ देश का राईस बवेल कहलाता रहेगा? हम कैसे बंगाल को माछ खाने वाले समाज के रूप में जानते रह पाएंगे? यानि पहचान का संकट सामने खडा होगा।
अब बिहार का उदाहरण लें। मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है। आस-पास के जिलों में भी लीची के बाग़ लगाए जाते हैं । लेकिन वहां उत्पाद की मात्रा, और आकार तो बदलता ही है स्वाद में बुनियादी बदलाव भी आ जाता है । शाही लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर जिले की मिट्टी और पानी तय करती है। और इसके पीछे बूढ़ी गंडक नदी का हाथ है। यहाँ की मिट्टी के रासायनिक तत्त्व बूढ़ी गंडक पर आश्रित हैं। क्योंकि जिले में मिट्टी का लेयर इसी नदी ने बनाया है। वो अपने साथ उद्गम इलाके की मिट्टी बहा कर लाती है।
मतलब ये कि बारिश और तापक्रम के अलावा मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व उस क्षेत्र की वनस्पति के स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि कमला नदी के छारण से पटे मधुबनी जिले के आम के स्वाद का मुकाबला मुजफ्फरपुर जिले के बगीचों का आम नहीं कर पाता है। मधुबनी जिले की मिट्टी का तल मोटे तौर पर कमला द्वारा हिमालय से लाइ गई गाद से बना है। जाहिर तौर पर यहाँ की वनस्पति पर इसका असर होगा। यही वजह है कि मैदानी इलाके में भी विभिन्न इलाकों की प्राकृतिक छटा में अंतर होता है। नतीजतन लोगों के मिजाज में अंतर पैदा होने के साथ ही उस सांकृतिक क्षेत्र की एकरूपता के बीच विविधता के दर्शन होते हैं। नदी जोड़ योजना इस संतुलन पर चोट करेगा। संतुलन कई स्तरों पर टूटेगा।
मुजफ्फरपुर और मधुबनी की पहचान बदल जाने को वाध्य होगी क्योंकि हर नदी में दूसरी नदियों का पानी मिला होगा। मिट्टी और पानी के रासायनिक तत्त्व का संतुलन बिगड़े बिना नहीं रहेगा। कहने को कह सकते हैं कि बाढ़ के समय स्थानीय स्तर पर कई नदियों का पानी एक दुसरे से मिल जाता है। सवाल दुरूस्त है। क्लासिकल उदाहरण कुशेश्वरस्थान से लेकर खगरिया तक के जलजमाव क्षेत्र का लें। यहाँ बूढ़ी गंडक और कोसी के बीच की सभी नदियों का पानी आकर डिस्चार्ज होता है। यानि सभी नदियों के रासायनिक तत्त्व गडम-गड। यहाँ के खेतों में आम या लीची लगावें निश्चय ही उसका स्वाद मधुबनी और मुजफ्फरपुर के उत्पाद से अलग होता है।
एक और उदाहरण लें। मधुबनी के कई इलाकों को बाढ़ से बचाने के लिए कमला और बलान नदियों को जोड़ दिया गया। नतीजा ये कि जिले के कई इलाकों में कमला के छारण सामान्य समय में पानी के लिए तरसते है। जबकि कमला-बलान की संयुक्त धारा वाले इलाके जल-जमाव झेल रहे हैं। इन इलाकों का एग्रीकल्चरल पैटर्न बदल गया है। किरतपुर क्षेत्र को लें जहां के लोग कभी मकई और अरहड़ की फसल लेते थे पर अब ये इतिहास की बात है। जलजमाव के विरोध में यहाँ अभी भी आन्दोलन चल रहा है। पहले ये इलाका तीन फसली था अब बमुश्किल दो फसल हो पाता है। यानि अर्थ तंत्र पर सीधा प्रहार। योजनाएं कैसे इको-सिस्टम बदल देती है इसे कमला-बलान नदी के सिलसिले में देख सकते हैं। कभी इस नदी में डॉल्फिन बड़ी संख्यां में लुका-छिपी करती थी, आज इसके दर्शन मुश्किल। वजह है फरक्का बैराज।
कहा जा रहा है कि नदियों को जोड़ने की परियोजना इंटर-बेसिन और इंट्रा बेसिन यानि दोनों स्तरों पर चलेगा।इंटर-बेसिन स्तर की पेचीदगियों के नमूने हमने ऊपर देखे। जाहिर तौर पर इंटर-बेसिन मामले में काफी मुश्किलें आएंगी। इसके लिए उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करना होगा। ये जटिल सिस्टम होगा। लेकिन ये तय है कि दोनों ही स्तरों पर हजारों नहरें बनाई जाएँगी।कई मौजूदा नहरें काम आ जाएँगी। लेकिन बांकी नहरों का क्या हस्र होगा? कई मौजूदा नहरें पानी के लिए तरसेंगी और बेकाम हो जाएँगी।
नदी जोड़ो परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म देगा। लाखो लोग बेघर हो जाएंगे। जाहिर तौर पर मेधा पाटकरों की बड़ी फ़ौज खडी हो जाएगी। एन जी ओ की संख्या और उसका स्वरूप बदलेगा।एक छोटा उदाहरण आँखें खोलने वाला होगा। ईस्ट-वेस्ट कारीडोर योजना के तहत कोसी इलाके में कई लोग बेघर हुए हैं।इनकी संख्या कम है फिर भी दरभंगा और सहरसा में कई एन जी ओ इनके रहबरी में उग आए हैं। इनका मुख्य काम दूर दिल्ली के पत्रकारों को इस इलाके बुलाना और उनसे पीड़ितों के संबंध में ह्यूमन एंगल वाले स्टोरी छपवाना। इन रिपोर्टों के एवज में विदेशी फंड ऐंठे जाते हैं। आपको हैरानी होगी कि इन बाहरी रिपोर्टरों को खबर लेने में जो खर्चा आता है उसे भी विदेशी एजेंसियों से एन जी ओ वाले वसूल लेते हैं। और रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को पता तक नहीं चलता। स्थानीय पत्रकारों से परहेज किया जाता है।
नदी जोड़ो योजना के अमल में आने के बाद पानी के बंटवारे का मसला अलग से चिता पैदा करेगा। तमिलनाडू और कर्नाटक के बीच का पानी का विवाद जग-जाहिर है। इतिहास में इसको लेकर कितने ही युध्ह लड़े गए। अनुमान करें देश भर में इस तरह के कितने झंझट फैलेंगे। योजना की विशाल लागत के लिए निजी कम्पनियां आएंगी। वे भारत सरकार पर कितना असर डालेगी उसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। संभव है कोर्ट का रूख बाद के समय में लचीला बने।
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