संदर्भः भूमि अधिग्रहण बिल व प्रादेशिक नीतियां

land acquisition
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मुआवजा बढ़ाने से ज्यादा कृषि व सामुदायिक भूमि बचाने की नीति बनाने की जरूरत


हम प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी उतना ही हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उनका हक देना हमे अपनी नीति में याद नहीं रहता।

भूमि अधिग्रहण के मामले में अब तक सभी सरकारों ने अपनी-अपनी नीति को अपनी-अपनी अदा में सर्वश्रेष्ठ कहा है। किंतु भूमि अधिग्रहण को लेकर सभी सरकारें उद्योगों के साथ पूरी शिद्दत से खड़ी हैं। यह गलत नहीं है। किंतु खेती, जंगल, मवेशी, पानी, पहाड़ और धरती से किसी सरकार को हमदर्दी नहीं है। यह गलत है। इस गलती के उदाहरण पूरे देश में हैं। गौरतलब है कि एक ओर हमारे पूर्व में अधिग्रहित औद्योगिक क्षेत्र बड़े पैमाने पर खाली पड़े हैं; बंजर भूमि का विकल्प भी हमारे पास मौजूद है। किंतु हमारे उद्योगपति उन्हें न अपनाकर, उद्योग के लिए उपजाउ भूमि ही चाहते हैं। क्यों? उद्योग के लिए उपजाऊ जमीन का क्या काम? काम है। क्योंकि उद्योगों के नाम पर ली गईं जमीनें उद्योग कम, भविष्य में उसे बेचकर कमाने की दृष्टि से ज्यादा ली गईं हैं। वेदान्ता, रिलायन्स, जिंदल से लेकर उद्योगों के लिए किए गये किसी भी ताजा अधिग्रहण को उठाकर देख लीजिए, जरूरत कम है, किंतु जमीन ज्यादा अधिग्रहित की गई है। इसी से जरुरत व नीयत का भेद स्पष्ट हो जाता है। यह भूमि की लूट का दौर है लेकिन खेती व खुद को बचाना है, तो भूमि तो बचानी ही होगी।

किसान खेत को बेचकर सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी अन्न, फल व सब्जियां उगाता है। उसके उगाये चारे पर ही हमारे मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर भी अपनी आजीविका के लिए अप्रत्यक्ष रूप से इसी कृषि भूमि व किसानों पर ही निर्भर करते हैं। इस तरह यदि किसी अन्य उपयोग के लिए कहीं बड़े पैमाने पर कृषि भूमि जाती है, तो इसका खामियाजा कई दूसरों को भी भुगतना पड़ता है। उन्हे कौन मुआवजा देगा? अधिग्रहण से लोग अपनी पुश्तैनी जड़, रिश्ते व परिवेश से कट जाते हैं। इसका मुआवजा कोई कैसे दे सकता हैं। तो क्या वे आर्थिक गरीबी झेलें? नहीं। ऐसे में देश के लिए भोजन पैदा करने वाले किसानों के साथ-साथ अपनी कमाई के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे निर्भर वर्गों की पढ़ाई-लिखाई-स्वास्थ्य व समृद्धि के रास्ते आसान बनाने की जिम्मेदारी पूरे राष्ट्र की बनती है। किंतु राष्ट्र भ्रष्टाचार और जमीन से कमाई के लालच में फंसा हुआ है। जिस तरह से प्राकृतिक उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का खेल चल रहा है, उससे साफ है कि ज्यादा कमाकर कृषि उत्पाद आयात कर लेने का मंसूबा भी चलने वाला नहीं।

• कहना न होगा कि मुआवजा समाधान नहीं है।
• इस सत्य के बावजूद भूमि अधिग्रहण की हमारी नीतियों का जोर जमीन बचाने की बजाय कृषि भूमि की बिक्री व मुआवजा बढ़ाने की नीति ज्यादा है। केंद्र सरकार का बिल भी कमोबेश मुआवजे की ही चर्चा ज्यादा करता है।
• अधिक चिंतित करने वाली बात यह है कि खेती से अपनी रोजी व भारत की अर्थव्यवस्था चलाने वाला भारतीय किसान भी खेती की जमीन बचाने की बजाय उसके बदले में ज्यादा से ज्यादा वसूलने की लड़ाई लड़ता दिखाई दे रहा हैं। उसे भी बस मुआवजे की ही चिंता है; जबकि असल चिंता होनी चाहिए - प्रकृति के प्रत्येक जीव का जीवन चलाने के लिए जरूरी कृषि भूमि व सामुदायिक संपत्तियों की। इनके अलावा ऐसी नियामतों की... जिनका निर्माण इंसान ने नहीं कुदरत ने किया है, जिनकी कुदरत के संचालन में अहम् भूमिका है। पेट को रोटी देने वाली खेती, पीने को पानी देने वाले भूमिगत एक्युफर, तालाब, झीलें, नदी व कुएं। सेहत व सांसों के लिए जरूरी जंगल, छोटी वनस्पतियां, सूक्ष्म जीव तथा धरती को टिकाकर रखने वाले पहाड़, पठार, समुद्र व ग्लेशियर।
• जीवन जीने के ऐसे संसाधनों को बेचने अथवा इन्हें नुकसान पहुंचाकर इनसे कमाने को अनुमति देना जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन है।

वास्तव में यदि देश की खाद्य या जल ही नहीं, बल्कि संपूर्ण पर्यावरणीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना हैं, तो कृषि व सामुदायिक भूमि को बचाना ही होगा। कुदरत की बेशकीमती नियामतों को उनकी भूमि हासिल करने का अधिकार लौटाना ही होगा। जैसे 33 फीसदी जंगल भूमि जरूरी मानी गई है, इसी तरह हमें खेती, नदी, तालाब, चारागाह से लेकर आवास-शिक्षा-स्वास्थ्य-उद्योग-व्यापार आदि के लिए जमीनों की सीमा रेखा बनानी होगी। तद्नुसार हमें फारेस्ट रिजर्व की तर्ज पर एग्रो रिजर्व, रिवर रिजर्व, कामनलैंड रिजर्व, रेजिडेन्शियल रिजर्व, इंडस्ट्रियल रिजर्व आदि क्षेत्र विकसित करने होंगे। इसका प्रतिशत पूरे देश में एक जैसा नहीं हो सकता। तय करने का आधार भू सांस्कृतिक क्षेत्र हो सकते हैं। यह दूरदृष्टि वाली स्थानीय नीति व क्षेत्र विकास योजना बनाकर ही सुनिश्चित किया जा सकता है। विकास योजना बनाते वक्त प्रकृति का संरक्षण प्राथमिकता पर रहे। यह तो सुनिश्चित करना ही होगा।

दुर्भाग्य से हम प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी उतना ही हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उनका हक देना हमे अपनी नीति में याद नहीं रहता। दिल्ली की मुख्यमंत्री ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी के एक पत्र के जवाब में लिखा कि वह दिल्ली में यमुना की खाली पड़ी जमीन को अनुपयोगी कैसे छोड़ सकती हैं। उन्हे नदी के प्रवाह को आजादी देने वाली जमीन अनुपयोगी लगी। यह समझ बदलनी होगी।

कुल मिलाकर जरूरी है कि तंत्र में शुचिता व सदाचार को आगे बढ़ाने वाले प्रयासों को ताकत देने के साथ-साथ कि जमीन से कमाई के इंसानी लालच पर लगाम लगाई जाये। जमीन बेचकर ज्यादा से ज्यादा मुआवजा पाने की लड़ाईयाँ भी जमीन से कमाई का ही लालच है। “किसान तु हा धरती कय भगवान” धरती के भगवान के लिए यह लालच ठीक नहीं है। अदालत ने रास्ता दिखा दिया है। अब वक्त आ गया है कि देश के नीति निर्णायकों को इस बात के लिए विवश किया जाये कि भूमि अधिग्रहण की नीति व कानूनों मे बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की सावधानियाँ बनी रहे।

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