‘आज भी खरे हैं तालाब’ का पहला संस्करण कोई अट्ठारह बरस पहले आया था। तब से अब तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली ने इसके पांच संस्करण छापे हैं। पुस्तक पर किसी तरह का कॉपीराइट नहीं रखा था। गांधी शांति प्रतिष्ठान के पांच संस्करणों के अलावा देश भर के अनेक अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं, आंदोलनों, प्रकाशकों और सरकारों ने इसे अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया है, इन अट्ठारह बरसों में। कुछ ने बताकर तो कुछ ने बिना बताए भी।
‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कोई बत्तीस संस्करण और कुल प्रतियों की संख्या 2 लाख के आसपास छपी और बंटी।बहुत प्यार मिला है इस छोटी-सी पुस्तक को। इसके असंख्य पाठकों में से एक ने इसे कागज से निकाल वास्तव में जमीन पर ही उतार दिया है। अब उन्हें लगता है कि इसे समाज से जो अनमोल प्यार मिला है, वह सब में बांट लेना चाहिए। इसलिए गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली का यह छठा संस्करण हमारे लिए अनमोल बन गया है। इसका कोई मोल नहीं है। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के दीवानों से अब कोई आर्थिक मूल्य नहीं लिया जाएगा उनका प्यार ही इसका प्रतिसाद होगा।
करीब बासठ चौसठ साल के जीवन में अनुपम मिश्र ने जो कुछ कमाया है वह यह किताब ही है। सीता बावड़ी से सजी हुई। सीता जी की ही तरह सर्व सुख दायिनी। सर्व सौभाग्य दात्री। किताब के कवर पेज की इस सीता बावड़ी के 'बीचोबीच एक बिन्दु है जो जीवन का प्रतीक है। मुख्य आयात के भीतर लहरें हैं, बाहर हैं सीढ़ियां। चारो कोनों पर फूल हैं जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं।' किताब जहां पन्नों का साथ छोड़कर मन का साथ पकड़ लेती है वहां बताती है कि यह सीता बावड़ी और कुछ नहीं बल्कि एक ऐसा प्रतीक है जो जमीन पर नहीं बल्कि भारतीय समाज के जीवन में मौजूद है गोदना बनकर। 'एक पूरे जीवन दर्शन को आठ दस रेखाओं में उतार पाना कठिन काम है लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा बहुत सहजता के साथ इस बावड़ी को गुदने की तरह अपने तन पर उकेरता है।'
शुरू से लेकर आखिर तक सीता बावड़ी से सजी यह किताब भारत में 'तालाब कैसे बनाएं' की बजाय 'तालाब ऐसे बनाएं' का विवरण है। तालाब की कहानी पेज नंबर 5 से शुरू होती है और पेज नंबर 86 पर खत्म हो जाती है। लेकिन साथ में बाइस पन्नों की संदर्भ सूची है तो ग्यारह पन्ने उन शब्दों को संजोने के लिए जोड़े गये हैं जिनका इस किताब में बार-बार पारायण किया गया है। किसी इक्यासी पृष्ठों की किताब में बाइस पन्ने संदर्भ और ग्यारह पन्ने शब्द सूची के लिए जोड़े जाएं तो समझ में आता है कि किताब लिखनेवाला कितना कठिन काम कर रहा है। उसे मालूम है कि वह जिन्हें तालाब पढ़ाने की कोशिश कर रहा है वह तालाब उनकी स्मृति में ही नहीं हैं। जिनके हैं, वे उसका मोल नहीं जानते।
1993 से लेकर 2012 अब तक इस किताब की कोई दो लाख प्रतियां छपकर लोगों के हाथ में पहुंच चुकी हैं। करीब दो दशक की इस किताब यात्रा के ढेरों किस्से हैं। बड़े प्रकाशक, सरकार और छोटे छोटे संगठन तक न जाने कितने लोगों ने इसे 'रिप्रिंट' किया। कुछ ने तालाब के आगर बने तो कुछ ने तालाब से जेब भरी। लेकिन 'तालाब' है कि खरी की खरी रही। छपाई, रंगाई पोताई में क्षमता अनुसार लोगों ने मिलावट जरूर की लेकिन मूल बात से छेड़छाड़ नहीं हुई। दो दशक की इस किताब यात्रा में एक मिथक को भी तोड़ा है। जैसा कि खुद अनुपम मिश्र मानते हैं कि तालाब बनने का शास्त्र सिवाय समाज के और कहीं उपलब्ध नहीं है लेकिन इस किताब के कारण कोई मुंबई के फरहाद प्रेरित हो गये और जां पहुंचे वहां जहां टांका और कुंई का खजाना सूख रहा था। फरहाद ने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया लेकिन जो सूख रहा था उसे हरा भरा करने के लिए सम्मान के साथ कुछ आर्थिक मदद जरूर कर दी। यह फरहाद ही हैं जिन्होंने अनुपम की किताब को अनमोल कर देने का मोल चुकाया है।
लेकिन आज इन सब बातों का जिक्र कर देने का एक खास कारण है। वह कारण है कि जिस किताब का छपने के बीस साल के दौरान कभी लोकार्पण समारोह नहीं हुआ अब वह लोकार्पित हो गई है। कॉपीराइट तो उस पर पहले से ही नहीं था। लेकिन अब उसका कोई मोल भी नहीं है। फरहाद की पेशकश थी कि इस किताब के कारण हमारा जीवन बदला है इसलिए इसको मोलभाव से मुक्त कर दीजिए। कम से कम गांधी शांति प्रतिष्ठान का पर्यावरण कक्ष अब इस बात का हिसाब किताब नहीं रखेगा कि कितनी किताब बिकी और कितने मोल मिला। अब यह किताब सप्रेम भेंट है। सादर समर्पित है, उन सबको जो इस किताब के योग्य हैं। किताब की योग्यता पर कोई शक नहीं, दो दशक में उसने साबित कर दिया है कि अनमोल हो जाना अभी भी संभव है।
आज की वैज्ञानिक दुनिया मे तालाब निरा अवैज्ञानिक अवधारणा सा लगता है। जब हम अस्सी फुट ऊपर उठकर टंकी बना सकते हैं तो आठ या अठारह फुट गहरा गड्ढा खोदकर पानी जमा करने का क्या तुक है। प्रगति का मतलब ही है शीर्ष की ओर उठते चले जाना और हमने ऐसी प्रगति की है कि पानी भी अस्सी फुट ऊपर टिका दिया है। लेकिन जैसे कबीर कहते हैं कि ऊंचे पानी ना टिकै वैसे ही तालाब का तर्कशास्त्र समझाता है कि पानी को धरती पर बनाये रखने का तालाब से बेहतर कोई विज्ञान न कभी हुआ है और न कभी होगा। करोड़ों साल पहले जो धरती आग का गर्म गोला हुआ करती थी उसपर पानी कहां से आया यह जानना थोड़ा मुश्किल है लेकिन जो पानी आया उसे सहेजकर रखने की कला का नाम तालाब है। हो सकता है ज्ञानी जन का मन इसे मानने से थोड़ी मुश्किल में पड़ जाए लेकिन मन को दशकभर मथेंगे तो जो तत्व निकलकर हाथ लगेगा वह तालाब ही होगा।
‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कोई बत्तीस संस्करण और कुल प्रतियों की संख्या 2 लाख के आसपास छपी और बंटी।बहुत प्यार मिला है इस छोटी-सी पुस्तक को। इसके असंख्य पाठकों में से एक ने इसे कागज से निकाल वास्तव में जमीन पर ही उतार दिया है। अब उन्हें लगता है कि इसे समाज से जो अनमोल प्यार मिला है, वह सब में बांट लेना चाहिए। इसलिए गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली का यह छठा संस्करण हमारे लिए अनमोल बन गया है। इसका कोई मोल नहीं है। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के दीवानों से अब कोई आर्थिक मूल्य नहीं लिया जाएगा उनका प्यार ही इसका प्रतिसाद होगा।
करीब बासठ चौसठ साल के जीवन में अनुपम मिश्र ने जो कुछ कमाया है वह यह किताब ही है। सीता बावड़ी से सजी हुई। सीता जी की ही तरह सर्व सुख दायिनी। सर्व सौभाग्य दात्री। किताब के कवर पेज की इस सीता बावड़ी के 'बीचोबीच एक बिन्दु है जो जीवन का प्रतीक है। मुख्य आयात के भीतर लहरें हैं, बाहर हैं सीढ़ियां। चारो कोनों पर फूल हैं जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं।' किताब जहां पन्नों का साथ छोड़कर मन का साथ पकड़ लेती है वहां बताती है कि यह सीता बावड़ी और कुछ नहीं बल्कि एक ऐसा प्रतीक है जो जमीन पर नहीं बल्कि भारतीय समाज के जीवन में मौजूद है गोदना बनकर। 'एक पूरे जीवन दर्शन को आठ दस रेखाओं में उतार पाना कठिन काम है लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा बहुत सहजता के साथ इस बावड़ी को गुदने की तरह अपने तन पर उकेरता है।'
शुरू से लेकर आखिर तक सीता बावड़ी से सजी यह किताब भारत में 'तालाब कैसे बनाएं' की बजाय 'तालाब ऐसे बनाएं' का विवरण है। तालाब की कहानी पेज नंबर 5 से शुरू होती है और पेज नंबर 86 पर खत्म हो जाती है। लेकिन साथ में बाइस पन्नों की संदर्भ सूची है तो ग्यारह पन्ने उन शब्दों को संजोने के लिए जोड़े गये हैं जिनका इस किताब में बार-बार पारायण किया गया है। किसी इक्यासी पृष्ठों की किताब में बाइस पन्ने संदर्भ और ग्यारह पन्ने शब्द सूची के लिए जोड़े जाएं तो समझ में आता है कि किताब लिखनेवाला कितना कठिन काम कर रहा है। उसे मालूम है कि वह जिन्हें तालाब पढ़ाने की कोशिश कर रहा है वह तालाब उनकी स्मृति में ही नहीं हैं। जिनके हैं, वे उसका मोल नहीं जानते।
आज इन सब बातों का जिक्र कर देने का एक खास कारण है। वह कारण है कि जिस किताब का छपने के बीस साल के दौरान कभी लोकार्पण समारोह नहीं हुआ अब वह लोकार्पित हो गई है। कॉपीराइट तो उस पर पहले से ही नहीं था। लेकिन अब उसका कोई मोल भी नहीं है। फरहाद की पेशकश थी कि इस किताब के कारण हमारा जीवन बदला है इसलिए इसको मोलभाव से मुक्त कर दीजिए। कम से कम गांधी शांति प्रतिष्ठान का पर्यावरण कक्ष अब इस बात का हिसाब किताब नहीं रखेगा कि कितनी किताब बिकी और कितने मोल मिला। अब यह किताब सप्रेम भेंट है। सादर समर्पित है, उन सबको जो इस किताब के योग्य हैं।
अपनी जब-जब अनुपम मिश्र से मुलाकात होती है ऐसा लगता है मानों अनुपम जी से नहीं बल्कि तालाब से मिल रहा हूं। मानों, तालाब में अभिव्यक्त होने के बाद खुद अनुपम ने अपने आपको अभिव्यक्त करना बंद कर दिया है। वह उनकी चरम अभिव्यक्ति है। एक दशक बाद अब समझ में आता है कि यह लगाव अनायास और सिर्फ किताब होने के कारण नहीं है। वह पानी के उस शाश्वत दर्शन के कारण है जो बड़ी सरलता से एक किताब में सिमट आई है। लेकिन उन्नीस साल में बूंद-बूंद करके किताब ने समाज के आगौर से पाठकों का जो आगर भरा है उसकी संख्या अब कई लाख है। अनुपम मिश्र तालाब की शुरूआत करते हुए कहते हैं कि 'सैकड़ों हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए।' लेकिन अनुपम जी के इस तालाब में डुबकी मारने वाले लाखों लोग तो सचमुच शून्य से ही प्रकट हुए हैं। सबसे पहला प्रकाशन 1993 में 3000 प्रतियां प्रकाशित किया गांधी शांति प्रतिष्ठान ने। यह जो गांधी शांति प्रतिष्ठान है इसमें एक पर्यावरण कक्ष बना और अनुपम मिश्र को उस कक्ष का बंदी बना दिया गया। पर्यावरण कक्ष इस 'बंदी' ने पहली बार हिन्दी में एक संदर्भ ग्रंथ तैयार किया जिसका नाम था हमारा पर्यावरण। हमारा पर्यावरण की तैयारी के दिनों के ही शायद दिमाग में तालाब बसा होगा, वह भी राजस्थान की यात्राओं और संपर्क के कारण। राजस्थान में तालाब की समृद्ध परंपरा है। वैसे तो पूरे देश में है। 27 सौ साल पहले के श्रृंगवेरपुरम के तालाब के तो अवशेष मौजूद हैं लेकिन जब लोग अपने ही जुड़े नहीं रह पाये हैं तो तालाब से खुद को जोड़कर भला क्योंकर रख पाते? यह कोशिश इस किताब ने किया।1993 से लेकर 2012 अब तक इस किताब की कोई दो लाख प्रतियां छपकर लोगों के हाथ में पहुंच चुकी हैं। करीब दो दशक की इस किताब यात्रा के ढेरों किस्से हैं। बड़े प्रकाशक, सरकार और छोटे छोटे संगठन तक न जाने कितने लोगों ने इसे 'रिप्रिंट' किया। कुछ ने तालाब के आगर बने तो कुछ ने तालाब से जेब भरी। लेकिन 'तालाब' है कि खरी की खरी रही। छपाई, रंगाई पोताई में क्षमता अनुसार लोगों ने मिलावट जरूर की लेकिन मूल बात से छेड़छाड़ नहीं हुई। दो दशक की इस किताब यात्रा में एक मिथक को भी तोड़ा है। जैसा कि खुद अनुपम मिश्र मानते हैं कि तालाब बनने का शास्त्र सिवाय समाज के और कहीं उपलब्ध नहीं है लेकिन इस किताब के कारण कोई मुंबई के फरहाद प्रेरित हो गये और जां पहुंचे वहां जहां टांका और कुंई का खजाना सूख रहा था। फरहाद ने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया लेकिन जो सूख रहा था उसे हरा भरा करने के लिए सम्मान के साथ कुछ आर्थिक मदद जरूर कर दी। यह फरहाद ही हैं जिन्होंने अनुपम की किताब को अनमोल कर देने का मोल चुकाया है।
लेकिन आज इन सब बातों का जिक्र कर देने का एक खास कारण है। वह कारण है कि जिस किताब का छपने के बीस साल के दौरान कभी लोकार्पण समारोह नहीं हुआ अब वह लोकार्पित हो गई है। कॉपीराइट तो उस पर पहले से ही नहीं था। लेकिन अब उसका कोई मोल भी नहीं है। फरहाद की पेशकश थी कि इस किताब के कारण हमारा जीवन बदला है इसलिए इसको मोलभाव से मुक्त कर दीजिए। कम से कम गांधी शांति प्रतिष्ठान का पर्यावरण कक्ष अब इस बात का हिसाब किताब नहीं रखेगा कि कितनी किताब बिकी और कितने मोल मिला। अब यह किताब सप्रेम भेंट है। सादर समर्पित है, उन सबको जो इस किताब के योग्य हैं। किताब की योग्यता पर कोई शक नहीं, दो दशक में उसने साबित कर दिया है कि अनमोल हो जाना अभी भी संभव है।
आज की वैज्ञानिक दुनिया मे तालाब निरा अवैज्ञानिक अवधारणा सा लगता है। जब हम अस्सी फुट ऊपर उठकर टंकी बना सकते हैं तो आठ या अठारह फुट गहरा गड्ढा खोदकर पानी जमा करने का क्या तुक है। प्रगति का मतलब ही है शीर्ष की ओर उठते चले जाना और हमने ऐसी प्रगति की है कि पानी भी अस्सी फुट ऊपर टिका दिया है। लेकिन जैसे कबीर कहते हैं कि ऊंचे पानी ना टिकै वैसे ही तालाब का तर्कशास्त्र समझाता है कि पानी को धरती पर बनाये रखने का तालाब से बेहतर कोई विज्ञान न कभी हुआ है और न कभी होगा। करोड़ों साल पहले जो धरती आग का गर्म गोला हुआ करती थी उसपर पानी कहां से आया यह जानना थोड़ा मुश्किल है लेकिन जो पानी आया उसे सहेजकर रखने की कला का नाम तालाब है। हो सकता है ज्ञानी जन का मन इसे मानने से थोड़ी मुश्किल में पड़ जाए लेकिन मन को दशकभर मथेंगे तो जो तत्व निकलकर हाथ लगेगा वह तालाब ही होगा।
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