दिल्ली

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बिन पत्ती सब सून
Posted on 11 Jul, 2012 12:36 PM

पेड़-पौधों पर पत्तियां केवल इसलिए नहीं लगतीं कि हम उनसे बंदनवार सजा लें या हरी पत्तेदार सब्जियां प्राप्त करें। प

कुछ लाख रसोइये चाहिए
Posted on 10 Jul, 2012 05:02 PM सौंदर्य केवल लघु होने से नहीं आता। लघुता का पाठ पढ़ाने वाले हमारे पर्यावरण वाले भूल जाते हैं कि प्रकृति लघु नहीं, अति सूक्ष्म रचना भी करती है और विशालकाय जीव भी बनाती है। छोटे-बड़े का यह संबंध भुला देना मनुष्य जाति की आफत बन गई है। दुनिया के जाने-माने जीवविज्ञानी विक्टर स्मेटाचैक इस संबंध के रहस्य को और हमारी परंपराओं को ज्ञान और साधना से जोड़ते हैं। वे विज्ञान और अहिंसा, भोजन और भजन की एक नई परिभाषा, हमारे नए जमाने के लिए गढ़ते हुए एक आश्चर्यजनक मांग कर रहे हैं: कुछ लाख रसोइये ले आओ जरा!

जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।

कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।
किस्मत काबू में ग्रीन स्टोव, क्लीन कारोबार
Posted on 10 Jul, 2012 11:32 AM दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से ग्रेजुएट अंकित माथुर और नेहा जुनेजा किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ज्यादा पैसा कमा सकते थे। लेकिन दोनों का लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना नहीं था। दोनों ने ऐसा स्टोव बनाया, जो लकड़ी की खपत एक चौथाई कर देता है। यही नहीं, लकड़ी से जलने वाले मिट्टी के चूल्हों के मुकाबले ग्रीन स्टोव धुआं भी 80 फीसदी तक कम फेंकता है।
ग्रीन स्टोव के साथ अंकित और नेहा
यमुना नदी का मर्सिया
Posted on 09 Jul, 2012 10:52 AM यमुना, गंगा से ज्यादा अच्छी है क्योंकि यमुना में पानी की मात्रा एक चौथाई है और उसके इलाके चट्टानी नहीं होकर मिट्टी वाले हैं। जिससे यमुना पर गंगा के मुकाबले बांध बनाने की होड़ नहीं है फिर भी यमुना को मारने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। गंगा के बाद यमुना भारत की दूसरी पूजनीय नदी है। यमुना नदी को भी हम मां की संज्ञा प्रदान करते हैं। परन्तु जहां आज यमुना थोड़ा बहुत जिंदा हैं वहां उसे मारने की भरपूर कोशिश हो रही है और जहां यमुना नदी मर चुकी है। वहां उसकी लाश नोचने का काम कर रहे हैं ताकि यमुना किसी भी स्थिति में बच न सके।

200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।

सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।
yamuna river
मरती गंगा
Posted on 06 Jul, 2012 03:55 PM लगभग 40 करोड़ लोगों को अपने पानी से सिंचने वाली गंगा विलुप्त होना तय माना जा रहा है। जैसे राष्ट्रीय पक्षी मोर और राष्ट्रीय पशु शेर धीरे-धीरे खत्म हो चुके हैं वैसे ही गंगा भी खत्म होने के कगार पर है। गंगा का राष्ट्रीय नदी होना ही उसके लिए खतरा है। क्योंकि जबसे गंगा को राष्ट्रीय नदी का सम्मान मिला है तब से कुछ ज्यादा ही गंगा को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अब गंगा शहरों का सीवर तथा कचरा ढोने वाली मालगाड़ी हो गई है। बांध, बैराज, खनन तथा शहरों से निकला कचरा गंगा के प्रवाह में ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। गंगा पर हो रहे अतिक्रमण के बारे में बताती निराला की रिपोर्ट।

गंगा, दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। इस पर बनते बांधों, इससे निकलती नहरों, इसमें घुलती जहरीली गंदगी और इसमें होते खनन को देखते हुए यह सुनकर हैरानी नहीं होती। गंगा के बेसिन में बसने वाले करीब 40 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस पर निर्भर हैं। गंगा के पूरी तरह से खत्म होने में भले ही अभी कुछ समय हो लेकिन उस पर आश्रित करोड़ों जिंदगियां खत्म होती दिखने लगी हैं।

‘25 साल पहले गंगा की सफाई के नाम पर हमारे इलाके में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगा। शहर के गंदे नालों का पानी आया तो पहले-पहल तो खेतों में क्रांति हो गई। फसल चार से दस गुना तक बढ़ी। लेकिन अब तो हम अपनी फसल खुद इस्तेमाल करने से बचते हैं। लोग भी अब हमारे खेत की सब्जियां नहीं लेते, क्योंकि वे देखने में तो बड़ी और सुंदर लगती हैं मगर उनमें कोई स्वाद नहीं होता। दो घंटे में कीड़े पड़ जाते हैं उनमें। वही हाल गेहूं-चावल का भी है। चावल या रोटी बनाकर अगर फौरन नहीं खाई तो थोड़ी देर बाद ही उसमें बास आने लगती है। अब तो हम लोगों ने फूलों की खेती पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। फूल भगवान पर चढ़ेंगे। उनको तो कोई शिकायत नहीं होगी।’
यमुना भी एक नदी थी
Posted on 05 Jul, 2012 04:49 PM

हरियाणा जहां अपने कारखानों के जहरीले कचरे को दिल्ली भेज रहा है वहीं दिल्ली भी उत्तर प्रदेश को अपने गंदे नालों और सीवर का बदबूदार मैला पानी ही सप्लाई कर रही है। दिल्ली में यमुना की सफाई के नाम पर अब तक साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। ढाई हजार करोड़ रुपए अभी और खर्च होने हैं। दिल्ली में यमुना में अठारह बड़े नाले गिरते हैं, जिनमें नजफगढ़ का नाला सबसे बड़ा और सबसे अधिक प्रदूषित है। इस नाले में शहरी इलाकों के अड़तीस और ग्रामीण इलाकों के तीन नाले गिरते हैं।

यमुना से कृष्ण का अटूट नाता रहा है और इसकी पवित्रता को बरकरार रखने के लिए उन्होंने कालिया नाग को खत्म किया था। लेकिन द्वापर में प्रदूषित होने से बची यमुना कलयुग में जहर उगलते कारखानों और गंदे नालों की वजह से मैली हो गई है। यमुना की निर्मलता और स्वच्छता को बनाए रखने के दावे तो किए जा रहे हैं, लेकिन इस पर कायदे से अब तक अमल नहीं हो पाया है। अपने उद्गम से लेकर प्रयाग तक बहने वाली इस नदी की थोड़ी-बहुत सफाई बरसात के दिनों में इंद्र देव की कृपा से जरूर हो जाती है। लेकिन यमुनोत्री से निकली इस यमुना की व्यथा बेहद त्रासद है। अतीत में यमुना को भी पवित्रता और प्राचीन महत्ता के मामले में गंगा के बराबर ही अहमियत मिलती थी। पश्चिम हिमालय से निकल कर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमाओं की विभाजन रेखा बनी यह नदी पंचानवे मील का सफर तय कर उत्तरी सहारनपुर के मैदानी इलाके में पहुंचती हैं।
पृथ्वी को वसुंधरा बनाती वर्षा
Posted on 04 Jul, 2012 11:10 AM यह ज्येष्ठ मास है। ग्रीष्म अपने पूर्ण प्रताप में है। इस ताप में वर्षा की इच्छा बसी है। कहते हैं-
‘जब जेठ तपै निरंता, तब जानौ बरखा बलवंता।’
निराला ने इस स्थिति-द्वंद्व का चित्रण इन पंक्तियों में किया है-
‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल
सूखी भूमि सूखे तरु सूखे सिल आल बाल
बंद हुआ अलि गुंज धूलि धूसर हुए कुंज
किंतु देखो व्योम-उर पड़ी बंधु मेघ-माल।’


कहने की जरूरत नहीं कि कविता में चित्रित जलने वाला जीवन निराला का भी है और लोक और प्रकृति का भी। इस घोर ताप का ही फल है आकाश (और निराला के कंठ में भी) पड़ने वाली मेघ माला (निराला के पक्ष में यश की माला) इस द्वंद्व में जीवन-राग है। यह राग कभी-कभी विलाप भी बनकर रह जाता है किंतु यह सच है, प्रकृति का नियम है,ग्रीष्म और वर्षा का कारण-कार्य संबंध।
वर्षा होने से सबसे ज्यादा खुशी किसानों को होती है
पर्यावरण के बिना जीवन असंभव
Posted on 02 Jul, 2012 04:43 PM वर्तमान युग औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण का युग है। जहाँ आज हर काम को सुगम और सरल बनाने के लिए मशीनों का उपयोग होने लगा हैं, वहीं पर्यावरण को नुकसान भी पहुंचा रहे हैं। पर्यावरण, ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य उपहार है, जो संपूर्ण मानव समाज का एकमात्र महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य भौतिक तत्वों- पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि से मिलकर पर्यावरण का निर्माण हुआ हैं। यदि म
विकास की भेंट चढ़ते जलाशय
Posted on 02 Jul, 2012 10:10 AM पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में जहां जल संकट से निजात पाने की अत्यंत जरूरत महसूस की जा रही है, वहीं दिल्ली में सूखते जलाशय भी खतरे की घंटी से कम नहीं है। जलाशय के सूखने का मतलब लगातार जल संकट की स्थिति उत्पन्न होना। विकास की अंधी दौड़ में कंक्रीट में बदली जा रही धरती की विनाश लीला रचने वालों को जब इस बात का अहसास होगा, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी। ऐसे में जरूरत है पृथ्वी के प्रहरियों की ज
ग्राम, ग्रामीण और गर्व की अनुभूति
Posted on 30 Jun, 2012 10:05 AM

भारत कई कृषि जलवायु क्षेत्र में बटा है और हमारी पारम्परिक फसलों की विविधता भी उसी वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित थी, ल

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