बिन पत्ती सब सून

पेड़-पौधों पर पत्तियां केवल इसलिए नहीं लगतीं कि हम उनसे बंदनवार सजा लें या हरी पत्तेदार सब्जियां प्राप्त करें। पत्तियां इस पूरी सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। वे पौधों के कुल संसार को टिकाने, बढ़ाने में नाना प्रकार की भूमिकाएं निभाती हैं। सबसे प्रमुख भूमिका तो भोजन निर्माण की है, जो न सिर्फ इन पत्तियों के मालिक पेड़-पौधों के लिए बल्कि लगभग समस्त जीवधारियों के जीवन का आधार है। जब तक हरी हैं, जिंदा हैं, तब तक तो इनका उपयोग है ही पर ये तो सूखकर, मरकर, गिरकर भी अपना काम करती हैं।

वर्षा की पहली फुहार के साथ धरती पर हरियाली छाने लगती है और सावन-भादों आते-आते कोई जगह ऐसी नहीं बचती जहां छोटे-बड़े पौधे न दिखाई दें। यह सारी हरियाली पत्तियों की बदौलत ही तो है। जरा सोचिए, पेड़ों पर पत्तियां न होतीं तो क्या वे हमेशा ठूंठ ही न दिखाई देते, जैसे वे पतझड़ में दिखाई देते हैं? फूल आने से पहले पत्तियां ही पेड़-पौधों का श्रृंगार होती हैं। पौधों का तो ये अभिन्न अंग हैं ही, हमारे लिए भी इनका महत्व कम नहीं है। प्राणिमात्र की भोजन संबंधी सारी जरूरतों की पूर्ति इन्हीं हरी पत्तियों से होती है। पत्तियों के बिना मनुष्य सहित किसी भी जीव-जंतु का जीवन संभव नहीं है। जो भोजन हम करते हैं, उसका निर्माण इन्हीं पत्तियों में होता है। इसे हम अनाज, दाल, सब्जी, फल, तेल, शक्कर तथा अन्य कई रूपों में जानते हैं। शाकाहारी प्राणी अपना भोजन चारे के रूप में सीधे पत्तियों से प्राप्त करते हैं। हमारे खाने में सब्जियां न हों तो क्या मजा। पालक, सरसों का साग, चौलाई, मेथी, बथुआ और न जाने क्या-क्या, सब पत्तियां ही तो हैं। पत्तीदार सब्जियां विटामिनों तथा खनिज लवणों की प्रमुख स्रोत हैं। इनका सेवन अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। बरसते पानी में भजिए का आनंद लेना हो तो पोई, अरबी के पत्ते, गोफना और अजवाइन के पत्तों को भला कोई कैसे भूल सकता है!

खाने को स्वादिष्ट तथा पाचक बनाने में भी पत्तियों का योगदान कम नहीं। जैसे तेजपात, पुदीना, कढ़ी पत्ता या मीठी नीम। मीठी नीम नाम से ऐसा लगता है कि इसका हमारे परिचित पेड़ कड़वे नीम से कोई संबंध है। परंतु यह सही नहीं है। यह एक अलग ही जाति का पेड़ है जिसकी रिश्तेदारी सुगंधित झाड़ी मधुकामिनी से है। हां, इसकी पत्तियां जरूर नीम जैसी दिखती हैं। हरे धनिये की पत्तियों की तो शान ही निराली है। तैयार सब्जियों और पुलाव पर जब तक हरा धनिया न बिखेरा जाए, मजा ही नहीं आता। तैयार खाना परोसने के लिए भी तो ये ही पत्तियां काम आती हैं। भले ही ‘ढाक के तीन पात’ से बने पत्तल-दोने हों या केले के पत्ते। दक्षिण के घरों में ही नहीं, बाजार होटलों में भी केले के पत्तों पर भोजन करना-कराना आज भी प्रचलित है। पत्तल-दोने के अलावा पत्तों का उपयोग चटाई व झाड़ू बनाने में भी किया जाता है। खजूर और ताड़ की पत्तियां इसी काम में आती हैं। ताड़ के पत्तों से बनी चटाई को नीले थोथे के घोल में डुबोकर कच्चे घरों की टिकाऊ छतें बनाई जाती हैं।

घर आए मेहमान का स्वागत बिना चाय-पान के अधूरा ही होता है। ताजगी तथा चुस्ती से भरपूर असम व दार्जीलिंग के बागानों से देश-विदेश में पहुंचने वाली चाय, थिया साइनेंसिस पौधे के शीर्ष की तीन कोमल पत्तियां हैं। चाय के बाद पान का जिक्र न हो तो मेजबानी का रंग अधूरा ही होता है। हजारों लोगों को शहर व गांव में रोजगार उपलब्ध कराने वाला पान भी एक बेल का पत्ता ही है। मुगल काल से ही पान शान और शौक का प्रतीक रहा है। खाने-पीने के अलावा पत्तियां तीज-त्यौहार के अवसरों पर घरों को सजाने-संवारने में भी काम आती हैं। आम, अशोक तथा मौलश्री के पत्तों से बने बंदनवार का उपयोग आज भी हमारे घरों में होता है। इन पेड़ों की पत्तियों से बंदनवार बनाने के पीछे बहुत समय तक हरा और कई दिनों तक ताजा बने रहना जैसे गुण हैं। औषधीय महत्व के तुलसी के पत्ते से भला कौन अनभिज्ञ हो सकता है?

मीठी नीम का पत्तामीठी नीम का पत्तापत्तियों का उपयोग फूलों के हार को सजाने तथा गुलदस्ता बनाने में भी होता है। रंग-बिरंगे फूलों से बनी मालाओं के बीच-बीच में करंज व बेशर्म तक के पत्तों का उपयोग सुंदरता को बढ़ा देता है। घरों की भीतरी सज्जा में मनी-प्लांट की सुंदर, चिकनी व गहरी हरी और चितकबरी पत्तियों का अपना ही महत्व है। घर-आंगन को सजाने के साथ-साथ स्वयं का श्रृंगार भी कम महत्व का नहीं है। जीवन के विभिन्न रंगों में मेहंदी के रंग का अपना विशिष्ट स्थान है। इसके बिना सोलह श्रृंगार अधूरे हैं। शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार या खुशी के अन्य अवसरों पर हाथों में मेहंदी रचाना एक परंपरा है। इसका प्रयोग बिना किसी जाति व धर्म के भेदभाव के खुलकर किया जाता है। आजकल मेहंदी के पत्तों का प्रयोग बालों को रंगने आदि के लिए भी किया जाता है। मेहंदी की पत्तियों का यह गुण उसमें उपस्थित पदार्थ लासोन के कारण होता है। यह प्रोटीन-युक्त पदार्थ त्वचा, बाल व रेशम से क्रिया कर उन्हें गहरा लाल-कत्थई रंग देता है।

जब कागज की खोज नहीं हुई थी, तब ताड़ व भोज पेड़ के पत्ते ही कागज का काम करते थे। अनेक प्राचीन ग्रंथ इन्हीं पत्तों पर लिखे गए हैं। बीड़ी शुष्क, पतझड़ी जंगलों के महत्वपूर्ण वृक्ष तेंदू के पत्ते से बनाई जाती है। तेंदू के वृक्ष मध्य प्रदेश के अलावा बिहार, महाराष्ट्र तथा समस्त प्रायद्वीपों में मिलते हैं। इस पत्ते के महत्वपूर्ण होने का कारण है इसकी विशिष्ट गंध, लचक तथा लंबे समय तक खराब न होने का गुण। इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे बीड़ी बनाने के काम में लिया जाता है। और इस बीड़ी में भरी तम्बाकू भी तो एक पत्ती ही है, जिसे पीकर और खाकर लोग अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ करते हैं।

लेकिन पेड़-पौधों पर पत्तियां केवल इसलिए नहीं लगतीं कि हम उनसे बंदनवार सजा लें या हरी पत्तेदार सब्जियां प्राप्त करें। पत्तियां इस पूरी सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। वे पौधों के कुल संसार को टिकाने, बढ़ाने में नाना प्रकार की भूमिकाएं निभाती हैं। सबसे प्रमुख भूमिका तो भोजन निर्माण की है, जो न सिर्फ इन पत्तियों के मालिक पेड़-पौधों के लिए बल्कि लगभग समस्त जीवधारियों के जीवन का आधार है। भोजन निर्माण के साथ-साथ कुछ पौधों की पत्तियां रूप बदलकर शिकारी भी बन जाती हैं और जीव-जंतुओं का शिकार करके भोजन जुटाने का काम भी करती हैं। इसके अलावा पत्तियां वाष्पोत्सर्जन और गैसों के आदान-प्रदान जैसे जरूरी काम करती हैं। पौधों पर फूल खिलने में भी पत्तियां एक अहम भूमिका अदा करती हैं। गाहे-बगाहे पत्तियां पौधों की रक्षा करने, उनके लिए सहारा खोजने वगैरह जैसे विविध काम भी करती हैं।

जब तक हरी हैं, जिंदा हैं, तब तक तो इनका उपयोग है ही पर ये तो सूखकर, मर कर, गिर कर भी अपना काम करती हैं। जाड़े के बाद अचानक पतझड़ी जंगलों के सारे पेड़ों के पत्ते पीले पड़कर झड़ जाते हैं। ये पत्ते भला क्यों झड़ जाते हैं? प्रति वर्ष पतझड़ में लाखों टन क्लोरोफिल कुछ ही सप्ताह में नष्ट हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? पत्तियों का ये हरा पदार्थ कहां गायब हो जाता है? इन सवालों के जवाब जानने का प्रयास वैज्ञानिक लंबे समय से कर रहे हैं। पतझड़ की प्रक्रिया कई कारणों से महत्वपूर्ण है। इसके कारण ऊष्ण-कटिबंधीय देशों का सारा नजारा ही बदल जाता है। उपग्रह इस मौसम में जो चित्र भेजते हैं उनमें पृथ्वी कुछ ज्यादा ही रंगीन नजर आती है। इन चित्रों में गहरे हरे, पीले, लाल व भूरे रंग के बदलाव की स्पष्ट तरंगें देखने को मिलती हैं।

यूरोपीय देशों में पतझड़ में प्रकृति के इस बदले हुए रूप को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। वहां पर्यटन स्थलों के होटल बहुत पहले ही आरक्षित हो जाते हैं। पूर्वी-उत्तरी अमेरिका में तो पतझड़ आने पर पर्यटन से करोड़ों डॉलर की कमाई हो जाती है। पत्तियों में क्लोरोफिल का विघटन स्थानीय मौसम व पेड़-पौधों की प्रजातियों पर निर्भर करता है। इन सबका मिला-जुला नजारा बहुत लुभावना होता है। रंग परिवर्तन की यह लहर ध्रुवों से ऊष्ण-कटिबंधों की ओर दक्षिणी यूरोप में 60 से 70 किलोमीटर प्रतिदिन की रफ्तार से चलती है, और सारा क्लोरोफिल 2-3 सप्ताह में नष्ट हो जाता है। कटिबंधों से दूर ध्रुवीय प्रदेशों में और पहाड़ों पर चीड़ के सदाबहार वनों में पतझड़ नहीं आता। इनकी पत्तियां पूरे साल धीरे-धीरे झड़ती रहती हैं। पृथ्वी पर ऊष्ण-कटिबंधीय जमीनी पौधों में प्रति वर्ष लगभग 30 करोड़ टन क्लोरोफिल नष्ट हो जाता है। पूरी पृथ्वी पर लगभग 12 खरब टन क्लोरोफिल टूटकर रंगहीन पदार्थ में बदल जाता है। इसी तरह दो करोड़ टन पीला केरॉटीन भी विघटित होकर अन्य पदार्थों में बदल जाता है।

अरबी के पत्तेअरबी के पत्तेक्लोरोफिल का टूटना व अन्य पदार्थों में बदलना पत्तियों के पक जाने की जटिल क्रियाओं के कारण होता है। इस दौरान पत्ती के उपयोगी पदार्थ (जैसे शर्करा, प्रोटीन या डी.एन.ए.) पत्तियों से निकलकर पेड़ के अन्य भागों, जैसे कंदों या जड़ों में चले जाते हैं। इस तरह पत्ती जब झड़ती है तो वह मात्र एक कंकाल होती है। पत्तियों के पकने की शुरुआत उनके पीले पड़ने से होती है। इस समय उनके भोजन निर्माण कारखानों (क्लोरोप्लास्ट) के अवयव बिखरने लगते हैं और कुछ सरल पदार्थों में टूट-बिखर जाते हैं। ऐसी पत्ती अब भोजन नहीं बना सकती और अंत में पीली-भूरी होकर झड़ जाती है। सन् 1890 में विएना में वनस्पति शास्त्र के वैज्ञानिक एंटोन जोसेफ केरनर ने देखा कि पतझड़ से पहले क्लोरोफिल के कण सिकुड़कर चमकीले कणों में बदल जाते हैं। इनको उन्होंने ‘अंतिम ‘व्यर्थ’ पदार्थ’ कहा जरूर पर प्रकृति में कोई भी चीज व्यर्थ नहीं होती।

कुछ समय बाद वैज्ञानिकों ने यह देखा कि क्लोरोफिल को अल्कोहल, एसीटोन व ईथर जैसे कार्बनिक पदार्थों में घोला जा सकता है। इस घुली अवस्था में भी क्लोरोफिल से निकला इलेक्ट्रॉन ऑक्सीजन से क्रिया करके उसे सक्रिय मूलक में बदल देता है। सक्रिय ऑक्सीजन क्लोरोफिल के कणों पर आक्रमण कर उसे एक निष्क्रिय, रंगहीन पदार्थ में बदल देती है। क्लोरोफिल के रंगहीन हो जाने की समस्या से डिब्बाबंद पदार्थों के उत्पादक भी परेशान थे। ताजा बताए गए डिब्बाबंद हरे मटर धीरे-धीरे भूरे रंग में बदल जाते हैं। उत्पादकों ने देखा कि यदि डिब्बों में ताजा, हरे मटर तांबे की सूक्ष्म मात्रा के साथ रखे जाएं तो वे लंबे समय तक हरे बने रहते हैं तथा उनकी चमक और भी बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देखा कि क्लोरोफिल अणु के बीच में जो मैग्नीशियम का परमाणु होता है, यदि उसकी जगह तांबे या जस्ते का परमाणु हो तो ऐसा क्लोरोफिल ज्यादा टिकाऊ होता है।

इस क्लोरोफिल को टिकाऊ बनाकर उसकी खूब कीमत वसूली जाती है। डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के उत्पादक इस तकनीक का लाभ उठाते हैं। विदेशी बाजार क्लोरोफिल-युक्त खाद्य पदार्थों से भरे पड़े हैं। अब हमारे बड़े शहरों के बड़े बाजारों, मॉलों में भी यह सब बिकने लगा है। खाने के तेलों, दही, फलों के रस व सब्जियों में तांबा-युक्त क्लोरोफिल मिलाया जा रहा है। इसका उपयोग महंगे सौंदर्य पदार्थों में भी होने लगा है। हर्बल शैंपू, झाग-युक्त नहाने की क्रीम, टूथपेस्ट और दुर्गंधनाशक पदार्थों में भी नकली क्लोरोफिल मिलाया जाता है। तांबा युक्त क्लोरोफिल प्रकृति में नहीं पाया जाता है। इस तरह का क्लोरोफिल प्रकाश संश्लेषण भी नहीं कर सकता है। क्लोरोफिल को रासायनिक परिवर्तन द्वारा टिकाऊ बनाकर खाद्य व सौंदर्य उद्योग का व्यापार विदेशों में खूब फल-फूल रहा है।

क्लोरोफिल अणु बहुत ही अस्थिर होते हैं। प्रकृति ने उनका यह स्वभाव कुछ सोचकर ही बनाया है। इसमें हम विज्ञान और तकनीक का सहारा लेकर कितनी भी छेड़छाड़ करें, इससे हरी पत्ती का मूल स्वभाव बदलने वाला नहीं। सोलह आने सच है: बिन पत्ती सब सून। पतझड़ में पत्तियों का पीला पड़ना और झड़ना एक अनिवार्यता है। इसी में तो इस धरती पर जीवन व्यवस्थित और निर्बाध रूप से चलता रहेगा। पतझड़ आने वाली बहार का संदेशवाहक है। एक का अंत और दूसरे की शुरुआत-प्रकृति का यही अटल नियम है।

श्री किशोर पंवार इंदौर के होलकर विज्ञान महाविद्यालय में वनस्पति विभाग में प्राध्यापक और वहां के पर्यावरण विभाग के प्रमुख हैं। विज्ञान की जटिल मानी गई अवधारणाओं पर सरल ढंग से लिखते हैं। ये अंश एकलव्य, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक ‘बिन पानी सब सून’ से लिए गए हैं।

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