विश्वनाथ त्रिपाठी

विश्वनाथ त्रिपाठी
पृथ्वी को वसुंधरा बनाती वर्षा
Posted on 04 Jul, 2012 11:10 AM
यह ज्येष्ठ मास है। ग्रीष्म अपने पूर्ण प्रताप में है। इस ताप में वर्षा की इच्छा बसी है। कहते हैं-
‘जब जेठ तपै निरंता, तब जानौ बरखा बलवंता।’
निराला ने इस स्थिति-द्वंद्व का चित्रण इन पंक्तियों में किया है-
‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल
सूखी भूमि सूखे तरु सूखे सिल आल बाल
बंद हुआ अलि गुंज धूलि धूसर हुए कुंज
किंतु देखो व्योम-उर पड़ी बंधु मेघ-माल।’


कहने की जरूरत नहीं कि कविता में चित्रित जलने वाला जीवन निराला का भी है और लोक और प्रकृति का भी। इस घोर ताप का ही फल है आकाश (और निराला के कंठ में भी) पड़ने वाली मेघ माला (निराला के पक्ष में यश की माला) इस द्वंद्व में जीवन-राग है। यह राग कभी-कभी विलाप भी बनकर रह जाता है किंतु यह सच है, प्रकृति का नियम है,ग्रीष्म और वर्षा का कारण-कार्य संबंध।
वर्षा होने से सबसे ज्यादा खुशी किसानों को होती है
प्रकृति का रोमांच है बरखा
Posted on 25 Jul, 2011 11:04 AM
मानसून शब्द भारत के बाहर से आया हुआ लगता है। बाहर से आया हो या देशज हो, ध्यान में आते ही बादलों की गड़गड़ाहट और मूसलाधार बारिश का दृश्य और आवाज मन पर छा जाती है। भारतीय साहित्य मेघ और वर्षा से भरा है। घोर ग्रीष्म-ताप के बाद वर्षा आती है।
धान रोपने की तैयारी में जुटा कृषक
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