ग्राम, ग्रामीण और गर्व की अनुभूति

भारत कई कृषि जलवायु क्षेत्र में बटा है और हमारी पारम्परिक फसलों की विविधता भी उसी वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित थी, लेकिन हमारे राजनेताओं और नौकरशाहों ने धान, गेहूं, कपास और सोयाबीन जैसी एकल फसल पद्धति को देश में लागू कर उस फसल विविधता का घनघोर अपमान किया है। भारतीय परिभाषा में खेत वह स्थान है जहां सभी जीवित प्राणी एक दूसरे के परस्पर सहयोग से अपना जीवनयापन सुख और शांति से करते हैं।

अंग्रेजों के शासन काल में भी ग्रामीणों की इतनी उपेक्षा नहीं हुई जितनी आजाद भारत में हो रही है। यह सही है कि अपनी मिलों का पेट भरने के लिए अंग्रेजों ने हमारी सुव्यवस्थित अन्न सुरक्षा को तोड़कर और किसानों को गुलाम बना उनसे नील, कपास, गन्ना, मसाले और इत्र की खेती करवाई। हमारे जंगल नष्ट कर पूरे भारत में रेल का जाल बिछाया और प्राकृतिक रूप से मिल रहे नमक के ऊपर गैरकानूनी कर लगाया। इन्हीं सबसे व्यथित होकर और अंग्रेजों की फौजी ताकत को देखकर जब गांधी ने उनके खिलाफ आजादी की अहिंसात्मक जंग छेड़ी तब उनके दिमाग में भारत का नक्शा स्पष्ट था। वे मानते थे कि हमारा ग्रामीण समाज ही सच्चा भारत है और उसकी उपेक्षा कर यह देश कभी वास्तविक आजाद नहीं हो सकता। इसीलिए सन् 1920 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में जब उन्होंने संयत और अहिंसात्मक ढंग से आजादी की लड़ाई लड़ने का प्रस्ताव पारित कराया। उसके बाद के एक साल में कांग्रेस की सदस्यता एक करोड़ हो गई जिनमें अधिकांश देहाती थे।

शहरी बुद्धिजीवियों के बारे में गांधी हमेशा कहते थे कि ये लोग भले ही मुझे आदर देते हों लेकिन मेरी बात मानते नहीं हैं। 6 जून 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर मंच पर बैठे और गहनों से जड़े राजा महाराजाओं को लताड़ते हुए उन्होंने कहा था कि आपने अपने आपको जिन आभूषणों से मढ़ा हुआ है वह भारत के गांवों की गरीब जनता का पैसा है और यदि आप उनका भला चाहते हो तो अपने गहने उतार दीजिए। क्योंकि भारत को आजादी आपसे नहीं इन्हीं गरीब किसानों से मिलने वाली है। देश को सन् 1947 में आजादी जरूर मिली लेकिन गांव वालों से सलाह मशविरा किए बगैर जब यहां बड़े-बड़े कल कारखाने और उद्योग लगाए गए और बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाएं लागू की गई तो गांव वाले हाशिये पर आ गए। वही सिलसिला आज भी बदस्तूर चालू है। अब तो हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि इस देश के दो अविभाजित हिस्से हो गए हैं।

इंडिया और भारत, इंडिया भले ही शायनिंग कर रहा हो लेकिन गांव वालों का भारत अंधेरे में चला गया है। किसी ने पल भर भी नहीं सोचा कि हमने लोकतंत्र को अपना लिया है और हमारी 75 प्रतिशत जनता तो ग्रामीण है तथा उनसे सलाह मशविरा किये बगैर, हम विकास को कैसे परिभाषित कर सकते हैं? पश्चिमी सभ्यता ने हमारे देश में इस कदर पैर फैला लिए हैं कि छोटे-छोटे गांवों में अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूल प्रारंभ हो गए हैं और गरीब से गरीब मजदूर का बेटा भी टाई लगाकर अंग्रेजी बोलना सीख रहा है। इसे हम विकास की संज्ञा देते हैं और भूल रहे हैं कि अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति बाबू पैदा करने पर आमादा थी क्योंकि उन्हें इनकी गरज थी। आज भी हमारे पढ़े लिखे जवान अमेरिका की ओर भाग रहे हैं। वे अपना दिमाग पैसे के पीछे बेच रहे हैं, जिससे इस देश का भला होने वाला नहीं है। ग्रामीण भारत का मुख्य व्यवसाय है खेती।

सच तो यह है कि भारत कई कृषि जलवायु क्षेत्र में बटा है और हमारी पारम्परिक फसलों की विविधता भी उसी वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित थी, लेकिन हमारे राजनेताओं और नौकरशाहों ने धान, गेहूं, कपास और सोयाबीन जैसी एकल फसल पद्धति को देश में लागू कर उस फसल विविधता का घनघोर अपमान किया है। भारतीय परिभाषा में खेत वह स्थान है जहां सभी जीवित प्राणी एक दूसरे के परस्पर सहयोग से अपना जीवनयापन सुख और शांति से करते हैं। जहां अमीर और गरीब जरूर रहते हैं लेकिन एक दूसरे की मदद से गांवों में सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के साथ भाईचारे से पेश आते हैं और यदि कोई विवाद हो तो आपस में ही सुलझा लेते है? गांधी की स्वदेश की परिभाषा भी यही थी कि अपने आसपास उपलब्ध संसाधनों से ही विकास साधा जाए।

100 साल पहले हिन्द स्वराज्य में लिखे गांधी के विचार आज भी प्रासंगिक लगते हैं। अण्णा हजारे को आज हमारे सामने गांधी के समकक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन उनका व्रत भी स्वदेशी नहीं है। भारतीय गांवों की विकेन्द्रित शासन व्यवस्था को ठीक करने के बजाए वे केन्द्रित लोकसभा को ठीक करने में बिला वजह अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। विकास कन्वेयर बेल्ट की तरह कभी भी ऊपर से नीचे नहीं आता बल्कि एक वृक्ष की तरह नीचे मिट्टी में अंकुरित होकर ऊपर उठता है। ग्रामीण समाज नहीं उठेगा तो देश का विकास कैसे संभव हैं? हमारे राजनेता और योजनाकार देश के हर गांव को शहर बनाने में लगे हैं और वह भी केन्द्र या राज्य शासन की राजधानियों के वातानुकुलित कमरों में बैठकर। जबकि गांधी के प्रकल्प साबरमती और सेवाग्राम की झोपड़ियों में रहकर बने थे।

विनोबा का ऐतिहासिक भूदान और सर्वोदय आंदोलन पवनार आश्रम में बैठकर बना था। इतना ही नहीं हमारी चिरायु खेती और जीवनपद्धति भी हमारे ऋषिमुनियों ने झोपड़ियों में बैठकर तैयार की थी, इसीलिए वे आज भी चल रही हैं, जबकि राज्यों और केन्द्र शासित शासन व्यवस्था की रोज धज्जियां उड़ रही हैं। राजनैतिक दल जोड़-तोड़ कर शासन करने को लालायित हैं। ग्रामीण भारत को यदि सुधरना है तो यह सुधार भोपाल या दिल्ली से नहीं होगा। गांव वालों को ही कमर कसनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी ऊपर से थोपे गए प्रकल्पों को ग्राम पंचायत अपने हित में बगैर सोचे मंजूरी नहीं देगी। प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के पीछे भागने के बजाए उन्हें मजबूर करना होगा कि पहले हमसे मंजूरी लेकर ही विकास साधे। यह सुनिश्चित करना होगा कि अपनी समस्याएं हल करने हम उनके पीछे नहीं भागेंगे।

देर सबेर अगर यह होता है तो हम देखेंगे कि न केवल भ्रष्टाचार कम हुआ है, बल्कि योजनाएं भी तेजी से लागू हो रही हैं। गांव वाले अपनी आजादी से ज्यादा जिम्मेदार बनते हैं, वे खुश हैं और अपने गांव के प्रति जवाबदेह हैं। इसलिए हर किसान गर्व से कहे कि ‘मैं ग्रामीण हूं।’

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