अतुल चौरसिया
अतुल चौरसिया
‘हमारे गांव में हम ही सरकार’
Posted on 23 Aug, 2013 04:48 PMमहाराष्ट्र के मेंढा गांव का उदाहरण बताता है कि स्वाभिमान और स्वावलंबन के साथ आजीविका का अवसर मिले तो नक्सलवाद से जूझते इलाकों में खुशहाली का नया अध्याय शुरू हो सकता है..देवाजी टोफा वह शख्स हैं जिन्होंने अधिकारों के लिए इस क्रांति की अलख जगाई थी। अंग्रेजों ने 1927 में भारतीय वन अधिनियम बनाकर एक तरह से जंगल पर निर्भर समाज को उससे बेदखल कर दिया था। 2006 में केंद्र सरकार द्वारा वनाधिकार कानून पास करने के साथ ही यह अधिकार एक बार फिर से बहाल हुआ। लेकिन हक की यह बहाली सिर्फ फाइलों में हुई थी। वन विभाग के अधिकारियों ने मेंढावासियों को उनका हक देने की राह में जमकर रोड़े अटकाए, मेंढा के पास बांस का अकूत भंडार था। इसके अलावा उसके 1,800 हेक्टेयर के जंगलों में चिरौंजी, महुआ, तेंदू पत्ता, हर्र, बरड़ आदि भी खूब होते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरोली की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल यही है कि यह नक्सल प्रभावित जिला है। आदिवासी और जंगल की बहुलता वाले इस जिले की धनौरा तहसील में एक गांव है मेंढा। मेंढा और लेखा नाम के दो टोलों का यह गांव देखने में कहीं से भी विशेष नहीं लगता। लेकिन अपनी करनी से इसने वह मिसाल कायम की है जिसमें नक्सलवाद से जूझते देश के कई इलाकों में खुशहाली का एक नया अध्याय कैसे शुरू हो, इसका संकेत छिपा है। मेंढा के नाम दो बड़ी उपलब्धियाँ हैं। यह देश का पहला गांव है जिसने सामुदायिक वनाधिकार हासिल किया और जिसकी ग्राम सभा को ट्रांजिट परमिट (टीपी) रखने का अधिकार मिला। इस अधिकार ने गांववालों को अपने जंगल का बांस अपनी मर्जी से बेचने की आजादी दी है। इससे वे न सिर्फ स्वाभिमान के साथ आजीविका कमा रहे हैं बल्कि वनों की सुरक्षा भी सुनिश्चित कर रहे हैं।
सबल, स्वावलंबी, अपने हित के फैसले खुद ले सकने वाला और स्वाभिमानी, महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की यही आत्मा थी। लेकिन विकास की आधुनिक परिभाषा में गांधी और उनके सिद्धांत पीछे छूटते गए।
यमुना नदी का मर्सिया
Posted on 09 Jul, 2012 10:52 AMयमुना, गंगा से ज्यादा अच्छी है क्योंकि यमुना में पानी की मात्रा एक चौथाई है और उसके इलाके चट्टानी नहीं होकर मिट्टी वाले हैं। जिससे यमुना पर गंगा के मुकाबले बांध बनाने की होड़ नहीं है फिर भी यमुना को मारने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। गंगा के बाद यमुना भारत की दूसरी पूजनीय नदी है। यमुना नदी को भी हम मां की संज्ञा प्रदान करते हैं। परन्तु जहां आज यमुना थोड़ा बहुत जिंदा हैं वहां उसे मारने की भरपूर कोशिश हो रही है और जहां यमुना नदी मर चुकी है। वहां उसकी लाश नोचने का काम कर रहे हैं ताकि यमुना किसी भी स्थिति में बच न सके।200 किलोमीटर पहाड़ों तथा थोड़ा मैदानी भागों में यात्रा करके यमुना पल्ला गांव पहुंचती है। यहां से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरू होती है। 22 किलोमीटर की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें हैं। एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला। वजीराबाद संयंत्र के पास बचा पानी निकालने के बाद दो करोड़ लोगों के भार से दबे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास बुझाता है। यमुना से पानी निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली ने नजफगढ़ नाले का मुंह खोल दिया है। आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर की शुरुआत में नदी का गला घोंट देता है।
सूरज ठीक सिर पर आ चुका है। धूप तेज है मगर हवा ठंडी। देहरादून से करीब 45 किलोमीटर दूर जिस जगह पर हम हैं उसे डाक पत्थर कहते हैं। डाक पत्थर वह इलाका है जहां यमुना नदी पहाड़ों का सुरक्षित ठिकाना छोड़कर मैदानों के खुले विस्तार में आती है। यमुना इस मामले में भाग्यशाली है कि पहाड़ अब भी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बने हुए हैं। उसकी बड़ी बहन गंगा की किस्मत इतनी अच्छी नहीं। जिज्ञासा होती है कि आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है। जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं। रावत खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, 'पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है। इसके अलावा यमुना पहाड़ों में जिस इलाके से बहती है वह चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते।