विकास की भेंट चढ़ते जलाशय

पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में जहां जल संकट से निजात पाने की अत्यंत जरूरत महसूस की जा रही है, वहीं दिल्ली में सूखते जलाशय भी खतरे की घंटी से कम नहीं है। जलाशय के सूखने का मतलब लगातार जल संकट की स्थिति उत्पन्न होना। विकास की अंधी दौड़ में कंक्रीट में बदली जा रही धरती की विनाश लीला रचने वालों को जब इस बात का अहसास होगा, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी। ऐसे में जरूरत है पृथ्वी के प्रहरियों की जो इन जलाशयों को बचाने की दिशा में अथक प्रयास कर सकें।

जलाशयों के सूखने-सिकुड़ने और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाने के पीछे बड़ी वजह उनके रखरखाव पर ध्यान न दिया जाना है। गाद, मलबा, कचरा भरते जाने के कारण उनका पेटा उथला और पाट सिकुड़ता जाता है। फिर, शहरी विकास परियोजनाओं के बीच आ चुके गांवों की पंचायतें भी सूखते-समाप्त होते झीलों-तालाबों को व्यावसायिक नजरिए से देखने लगी हैं। सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह प्राकृतिक जलस्रोतों की सुरक्षा-संरक्षा के पुख्ता इंतजाम करे।

भूजल का गिरता स्तर दिल्ली सरकार और यहां के निवासियों के लिए चिंता का विषय है। इसके मद्देनजर वर्षाजल संचय के उपाय करने, नलकूपों के मनमाने इस्तेमाल पर लगाम कसने, पानी की बर्बादी रोकने पर जोर दिया जाता रहा है। इसी महीने दिल्ली सरकार ने दो सौ वर्ग मीटर से ज्यादा के भूखंडों पर बनने वाले भवनों में वर्षाजल संचय का प्रबंध करना अनिवार्य कर दिया। मगर जलाशयों के संरक्षण और रखरखाव को लेकर वह कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा यहां कराए गए महज एक जिले के सर्वेक्षण से लगाया जा सकता है। दस्तावेजों के मुताबिक दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के पचास गांवों में दो सौ चौदह जलाशय हैं। उनमें से केवल एक सौ तिरासी बचे हैं। मगर उच्च न्यायालय में दिए दिल्ली सरकार के हलफनामे में इनकी तादाद एक सौ अड़सठ बताई गई है। उच्च न्यायालय ने सरकार को इन जलाशयों के संरक्षण और इनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाने के उपाय करने का निर्देश दिया था।

मगर एक स्वयंसेवी संगठन के अध्ययन से जाहिर हुआ है कि मौजूदा झीलों-तालाबों में ज्यादातर अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं, उन पर रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें बना ली गई हैं। ऐसे अतिक्रमण के खिलाफ दायर किए गए अधिकतर मुकदमों में फैसला आ चुका है और अदालत जलाशयों से अवैध निर्माण हटाने का आदेश दे चुकी है। मगर इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह समझना मुश्किल नहीं है कि नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण आदि जलाशयों को पाट कर उन पर चलाई जा रही अवैध गतिविधियों को रोकने में क्यों विफल रहे हैं। इसका अंदाजा पार्कों, सार्वजनिक भवनों आदि के लिए चिह्नित भूखंडों, वन क्षेत्र और पुरातात्विक महत्व की जमीन पर हुए अवैध निर्माण और अतिक्रमण हटाने को लेकर बरती जाती रही उदासीनता, आनाकानी और समय-समय पर चले गए सियासी पैतरों से लगाया जा सकता है।

जलाशयों के सूखने-सिकुड़ने और आखिरकार उनका अस्तित्व समाप्त हो जाने के पीछे बड़ी वजह उनके रखरखाव पर ध्यान न दिया जाना है। गाद, मलबा, कचरा भरते जाने के कारण उनका पेटा उथला और पाट सिकुड़ता जाता है। अब चूंकि झीलों-तालाबों के महत्व और उपयोगिता का पारंपरिक बोध खासकर शहरी इलाकों में नहीं बचा है, सामुदायिक प्रयास से गाद वगैरह निकालने का काम नहीं किया जाता। फिर, शहरी विकास परियोजनाओं के बीच आ चुके गांवों की पंचायतें भी सूखते-समाप्त होते झीलों-तालाबों को व्यावसायिक नजरिए से देखने लगी हैं। नतीजतन, जलाशयों को पाटे जाने का स्थानीय लोगों की ओर से विरोध होना चाहिए, अक्सर वह नहीं होता। जलाशयों के दम तोड़ देने से भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।

सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह प्राकृतिक जलस्रोतों की सुरक्षा-संरक्षा के पुख्ता इंतजाम करे। मगर जहां राजनीतिक पार्टियां अवैध कॉलोनियों के बसने और उजड़ने को केवल अपना वोट बैंक मजबूत करने के अवसर के रूप में देखती हों, वहां उनसे भला इस बात की कितनी उम्मीद की जा सकती है कि वे जलाशयों की फिक्र करेंगी। लालडोरा का रकबा तय करने को लेकर सरकार और पंचायतों के बीच धींगामुश्ती अब तक खत्म नहीं हो पाई है। रसूख वाले भवन निर्माता पंचायतों के और सार्वजनिक भूखंडों पर छाती ठोंक कर इमारतें खड़ी कर लेते हैं। यमुना के कछार में सरेआम अवैध बस्तियां बसाने की गतिविधियां चल रही हैं। इन्हें रोकने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय का सख्त निर्देश है, पर इस दिशा में कुछ होता नहीं दिखता। दिल्ली में पानी के लिए हाहाकार अब आए दिनों की बात हो गई है। क्या प्राकृतिक जल-स्रोतों को बचाए बगैर इस संकट से निपटा जा सकता है?

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