दिल्ली

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व्यतिक्रम
Posted on 29 Sep, 2013 01:29 PM नदी ने धारा बदली
कि धारा ने नदी?
इतने वर्षों
हम अपने को उघारते रहे
कि ढकते-मूँदते
कुछ भी ज्ञात है नहीं।

काली शक्ल को उजली
मानने में क्या तुक था?
अपने देश को अपनाना
क्या कुछ कम नाजुक था?

उलटबाँसी एक फाँसी है-
लगते ही मुक्ति देगी।
जिसको लेना हो, ले।
आधी भीतर
आधी बाहर
साँस मुझे कोई दे!
दूर, यमुना पार
Posted on 29 Sep, 2013 01:27 PM रात गहरी-
खो गया हो ज्यों तिमिर में पंथ:
सितारों के तले-
बहता अनंत प्रवाह
दूर, यमुना पार...
दिख रही है
बत्तियाँ वे टिमटिमाती
ज्यों निबिड़ वन में
कहीं से रोशनी दिख जाए-
...किंतु राही भटकता रह जाए
उन तक पहुँच पाने में!

बीच का व्यवधान नील अदृश्य-
केवल
हरहराती ध्वनि:
तथा सब मौन, नीरव शांत!
अवगाहन
Posted on 29 Sep, 2013 01:25 PM वह मेरा सहजन!
हाय! वह मेरा सखा!
आज नदी में उतरता है।

उसने सब कपड़े उतारकर
किनार पर फेंक दिए,
यह सोचे बिना कि कार्तिक में कितनी ठंड होती है,
सुबह-सुबह नहाने की ठान ली।
पैनी हवाओं ने
जब उसके जिस्मको झिंझोड़ा,
तो उसने एक कदम थोड़ा पीछे हटकर उठाया।
अब वह फिर दूसरा कदम आगे धरता है।
लो, अब वह नदी में उतरता है।
विसर्जन
Posted on 29 Sep, 2013 01:24 PM दिन पवित्र, वेला मंगलमय
नदियों में
नावों के उत्सव।
घाटों पर ये कलश-कलसियाँ
पितर पुण्य के
ये अशेष रव।
कर दो आज विसर्जन कर दो
फिर यह वेला नहीं आएगी।

‘भटका मेघ’ से

स्वरों का समर्पण
Posted on 29 Sep, 2013 01:22 PM डबडब अँधेरे में, समय की नदी में
अपने-अपने दिए सिरा दो;
शायद कोई दिया क्षितिज तक जा
सूरज बन जाए!!

हरसिंगार जैसी यदि चुए कहीं तारे,
अगर कहीं शीश झुका
बैठे हों मेड़ों पर
पंथी पथहारे,
अगर किसी घाटी भटकी हो छायाएँ,
अगर किसी मस्तक पर
जर्जर हों जीवन की
त्रिपथगा ऋचाएँ;

पीड़ा की यात्रा के ओर पूरब-यात्री!
अनपहचाना घाट
Posted on 29 Sep, 2013 01:21 PM धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहिचानते हैं।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहिचानते हैं।

और मैं कितनी शती से यहां तुझको जोहता हूँ।
दुपहर
Posted on 29 Sep, 2013 01:19 PM नदी के किनारे कोई आसमान धो रहा है
दुपहर है,
महुए का पेड़ सो रहा है।

शाम, धुआँ और नदी


शाम है, धुआँ है,एक नदी है
और इस नदी में
कुछ लहरे हैं,
जो बहुत उदास हैं।

अभी यहां पछुआ थी और एक गान था।
अभी यहाँ आँसू थे और एक पाल था।
अब सब चले गए...सब चले गए।
शाम है, धुआँ हैं,
एक नदी है;
और इस नदी में कुछ लहरें हैं
मैली होती जा रही हैं नदियां
Posted on 29 Sep, 2013 01:16 PM राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ज्यादातर जगहों पर जल गुणवत्ता मानक तय पैमाने पर खरे नहीं उतर रहे हैं। जैव रसायन, ऑक्सीजन मांग
एम.सी. मेहता ने मांगा प्रधानमंत्री से इस्तीफ़ा
Posted on 29 Sep, 2013 10:20 AM एक सन्यासी निगमानंद की मौत के बाद कोई हंगामा नहीं हुआ, समाज ने ठीक
MC Mehta
परमाणु ऊर्जा पर जन घोषणापत्र
Posted on 27 Sep, 2013 04:41 PM आज व्यापक तौर पर परमाणु ऊर्जा को जीवन, जीविका तथा पर्यावरण पर खतरे
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