स्वरों का समर्पण

डबडब अँधेरे में, समय की नदी में
अपने-अपने दिए सिरा दो;
शायद कोई दिया क्षितिज तक जा
सूरज बन जाए!!

हरसिंगार जैसी यदि चुए कहीं तारे,
अगर कहीं शीश झुका
बैठे हों मेड़ों पर
पंथी पथहारे,
अगर किसी घाटी भटकी हो छायाएँ,
अगर किसी मस्तक पर
जर्जर हों जीवन की
त्रिपथगा ऋचाएँ;

पीड़ा की यात्रा के ओर पूरब-यात्री!
अपनी यह नन्हीं-सी आस्था तिरा दो
शायद यह आस्था किसी प्रिय को
तट तक ले जाए!!

‘भटका मेघ’ से

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