विवेकानंद माथने

विवेकानंद माथने
नई फसल बीमा नीति की वास्तविकता
Posted on 19 Jun, 2016 03:19 PM

प्रधानमंत्री ने नई फसल बीमा नीति की धूमधाम से शुरुआत की है। इसमें कान को सीधे नहीं हाथ घुमाकर पकड़ा गया है। पैसा निजी जेब से जाए या सरकारी खजाने से अंततः सार्वजनिक धन मुनाफाखोर बीमा कम्पनियों के झोले में ही जाएगा।

आज का जलवायु संकट मनुष्य द्वारा प्रकृति से छेड़छाड का परिणाम है। वैश्विक तापमान वृद्धि औद्योगिक सभ्यता की देन है। इसी के कारण किसानों को सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं हर साल झेलनी पड़ रही हैं। अनियमित वर्षा व पर्यावरण असंतुलन के कारण देश के अनेक हिस्सों में कृषि और किसानों को लगातार नुकसान उठाना पड़ रहा है, जिसके लिये किसी भी स्थिति में किसान जिम्मेदार नहीं है। आज पूरा किसान समुदाय मृत्युशय्या पर पड़ा है। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी है कि, प्राकृतिक आपदाओं से किसानों को नुकसान की भरपाई दे और उसके लिये एक स्थायी व्यवस्था की स्थापना करे। लेकिन सरकार अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करना चाहती। गौरतलब है किसानों को दी जानेवाली सब्सिडी का लाभ किसानों को नहीं बल्कि कम्पनियों को ही मिलता है।
भारत में किसान आत्महत्याओं का सच
Posted on 05 Feb, 2016 12:47 PM

आँकड़ों की बाजीगरी से किसानों की आत्महत्याओं के दुखद पहलू को छुपाया नहीं जा सकता। आँकड़ों क

लूट पानी की
Posted on 12 Dec, 2012 02:32 PM
पानी जीवन, जीविका और प्रकृति चक्र का प्रमुख आधार है जो प्राकृतिक रूप से सर्वत्र उपलब्ध है और सजीव सृष्टि के लिए हवा और धूप की तरह ही प्रकृति ने उसे सबके लिए उपलब्ध कराया है, वह पानी, भारत में बाजार की वस्तु बन चुका है। अब यहां सतही जल और भूमि जल पर मालिकाना हक प्राप्त किया सकता है और उस हक को खरीदा-बेचा जा सकता है। अब की व्यापारी/कंपनी किसी नदी, जलाशय या भूमिजल का हक खरीद सकता है, उसका मालिक बन सकता है और उस हक को बेच सकता है। ग़ुलाम भारत की लूट की कहानी हम जानते ही हैं। अँग्रेज़ व्यापार करने के नाम से आये और भारत को ग़ुलाम बनाकर लूट करते रहे। आज़ादी की लड़ाई ने लोगों के मन में यह उम्मीद जगाई थी कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद यह लूट समाप्त होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत आज़ाद हुआ, लेकिन लूट जारी है, उसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है। इस लूट के स्वरूप में कुछ बदलाव हुआ है। लूट के लिए नए-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं। श्रम के शोषण, औद्योगिक उत्पादन और सेवा उद्योग के माध्यम से की जानी वाली लूट के साथ-साथ अब देश के नैसर्गिक संसाधनों की खुली लूट भी की जा रही है। कोयला, खनिज, पेट्रोलियम, गैस, पानी, ज़मीन, जैव विविधता, जंगल आदि जैसी प्रकृति की देने को ही अब लूटा जा रहा है। इनमें से कई ऐसे स्रोत हैं, जिसके दोहन से वह हमेशा के लिए समाप्त होंगे।
मानवता को रौंदता विकास
Posted on 27 Oct, 2018 10:26 PM

आधुनिक समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द है-विकास। मौजूदा दौर में जिस तरह की अवधारणाएँ विकास के नाम पर थोपी जा

इंडस्ट्रियल प्रदूषण
भविष्य का कृषि संकट - कारपोरेट खेती
Posted on 18 Sep, 2018 02:09 PM
कारपोरेट खेती (फोटो साभार - स्क्रॉल)खेती को उद्योग में तब्दील करने की बातें कई सालों से होती रही हैं, लेकिन अब कारपोरेट हितों के चलते इसे अमलीजामा पहनाने की तैयारियाँ जोर-शोर से दिखाई देने लगी हैं।
कारपोरेट खेती
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