राज्यों और केन्द्र की सरकारों समेत ‘विश्व व्यापार संगठन’ सरीखे देशी-विदेशी संस्थान अव्वल तो किसानी को किसानों के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं और दूसरे सीमित होती कृषि भूमि में बाजारों के लिये भरपूर उत्पादन के मार्फत मुनाफा कूटना चाहती हैं। ऐसे में किसानी अब किसानों की बजाय कारपोरेट का धंधा बनती जा रही है।
लगता है, अब भारत किसानों का देश नहीं कहलाएगा। यहाँ खेती तो की जाएगी, लेकिन किसानों के द्वारा नहीं, खेती करने वाले विशालकाय कारपोरेट्स होंगे। आज के अन्नदाता किसानों की हैसियत उन बंधुआ मजदूरों या गुलामों की होगी, जो अपनी भूख मिटाने के लिये कारपोरेट्स के आदेश पर अपनी ही जमीनों पर चाकरी करेंगे।
इस समय देश में खेती और किसानों के लिये जो नीतियाँ और योजनाएँ लागू की जा रही हैं उसके पीछे यही सोच दिखाई देती है। कारपोरेट हितों ने पहले तो षड्यंत्रपूर्वक देश की ग्रामीण उद्योग व्यवस्था तोड़ दी और गाँवों के सारे उद्योग धन्धे बन्द कर दिये। स्थानीय उत्पादकों को ग्राहकों के विरुद्ध खड़ा किया गया।
विज्ञापनों के जरिए स्थानीय उद्योगों में बनी वस्तुओं को घटिया व महंगा और कम्पनी उत्पादन को सस्ता व गुणवत्तापूर्ण बताकर प्रचारित किया गया और यहाँ की दुकानों को कम्पनी के उत्पादनों से भर दिया गया। इस गोरखधंधे में स्थानीय व्यापारियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अपने व्यापार और देशी उद्योगों के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर उसे कारपोरेट के हवाले कर दिया। अब उद्योग, व्यापार और खेती पर कारपोरेट्स एक-के-बाद-एक कब्जा करते जा रहे हैं।
प्राकृतिक संसाधन, उद्योग और व्यापार पर तो उन्होंने पहले ही कब्जा कर लिया था। अब वे खेती पर कब्जा जमाना चाहते हैं ताकि कारपोरेट उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरूरी उत्पादन कर सकें।
कारपोरेट खेती के हित में छोटे किसानों के पास पूँजी की कमी, छोटी जोतों में खेती का अ-लाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी खेती कर पाने में अक्षमता आदि के तर्क गढ़े गए। कहा गया कि पारिवारिक खेती करने वाले किसान उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नहीं हैं। इस तर्क की आड़ में कारपोरेट्स ने प्रत्यक्ष स्वामित्व या पट्टा या लम्बी लीज पर जमीन लेकर खेती करने या किसान समूह से अनुबन्ध करके किसानों को बीज, कर्ज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीक आदि उपलब्ध कराकर खेती करने का जुगाड़ कर लिया।
खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भण्डारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात-निर्यात आदि सभी पर कारपोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं। दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये जैव ईंधन, फलों, फूलों या खाद्यान्न की खेती भी वैश्विक बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते हैं। वे फसलें, जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ मिलेगा, पैदा की जाएँगी और अपनी शर्तोंं व कीमतों पर बेची जाएँगी। अनुबन्ध खेती और कारपोरेट खेती के अनुरूप नीतिगत सुधार के लिये उत्पादन प्रणालियों को पुनर्गठित करने और सुविधाएँ देने के लिये नीतियाँ और कानून बनाए जा रहे हैं।
दूसरी हरित क्रान्ति के द्वारा कृषि में आधुनिक तकनीक, पूँजी-निवेश, कृषि यंत्रीकरण, जैव तकनीक और जीएम फसलों, ई-नाम आदि के माध्यम से अनुबन्ध खेती, कारपोरेट खेती के लिये सरकार एक व्यवस्था बना रही है।
डब्ल्यूटीओ का समझौता, कारपोरेट खेती के प्रायोगिक प्रकल्प, अनुबन्ध खेती कानून, कृषि और फसल बीमा योजना में विदेशी निवेश, किसानों के संरक्षक सीलिंग कानून को हटाने का प्रयास, आधुनिक खेती के लिये इजराइल से समझौता, खेती का यांत्रिकीकरण, जैव तकनीक व जीएम फसलों को प्रवेश, कृषि मंडियों का वैश्विक विस्तारीकरण, कर्ज राशि में बढ़ोत्तरी, कर्ज ना चुका पाने में अक्षमता पर खेती की गैरकानूनी जब्ती, कृषि उत्पादों की बिक्री की शृंखला, सुपरबाजार, जैविक ईंधन, जेट्रोफा, इथेनॉल के लिये गन्ना और फलों, फूलों की खेती आदि को बढ़ावा देने की सिफारिशें, निर्यातोन्मुखी कारपोरेटी खेती और विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के तहत वैश्विक बाजार में खाद्यान्न की आपूर्ति की बाध्यता आदि सभी को एकसाथ जोड़कर देखने से कारपोरेट खेती की तस्वीर स्पष्ट होती है।
इस समय देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ रॉथशिल्ड, रिलायंस, पेप्सी, कारगिल, ग्लोबल ग्रीन, रॅलीज, आयटीसी, गोदरेज, मेरी को आदि के द्वारा पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों में आम, काजू, चीकू, सेब, लीची, आलू, टमाटर, मशरुम, मक्का आदि की खेती की जा रही है।
उच्च शिक्षित युवा जो आधुनिक खेती करने, छोटी दुकानों में सब्जी बेचने, प्रसंस्करण करने आदि के काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश कारपोरेटी व्यवस्था स्थापित करने के प्रायोगिक प्रकल्पों पर काम कर रहे हैं।
भारत में किसी भी व्यक्ति या कम्पनी को एक सीमा से अधिक खेती खरीदने, रखने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबन्धित करता है। इसके चलते कारपोरेट घरानों को खेती पर सीधा कब्जा करना सम्भव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने के प्रयास किये जा रहे हैं।
कुछ राज्यों में अनुसन्धान और विकास, निर्यातोन्मुखी खेती के लिये कृषि व्यवसाय फर्मों को खेती खरीदने की अनुमति दी गई है, कहीं पर कम्पनियों के निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती खरीदी की गई है, तो कहीं राज्य सरकारों ने नाम मात्र राशि लेकर पट्टे पर जमीन दी है। बंजर भूमि खरीदने या किराये पर लेने की अनुमति दी जा रही है।
कृषि में किसानों की आय दोगुनी करने के लिये नीति आयोग का सुझाव यह है कि किसानों को कृषि से गैर कृषि व्यवसायों में लगाकर आज के किसानों की संख्या आधी की जाये, तो बचे हुए किसानों की आमदनी अपने आप दोगुनी हो जाएगी।
आयोग कहता है कि कृषि कार्यबल को कृषि से इतर कार्यों में लगाकर किसानों की आय में काफी वृद्धि की जा सकती है। अगर जोतदारों की संख्या घटती रही तो उपलब्ध कृषि आय कम किसानों में वितरित होगी। वे आगे कहते हैं कि वस्तुतः कुछ किसानों ने कृषि क्षेत्र को छोड़ना शुरू भी कर दिया है और कई अन्य कृषि को छोड़ने के लिये उपयुक्त अवसरों की तलाश कर रहे हैं। किसानों की संख्या 14.62 करोड़ से घटाकर 2022 तक 11.95 करोड़ करना होगा। जिसके लिये प्रतिवर्ष 2.4 प्रतिशत किसानों को गैर-कृषि रोजगार से जोड़ना होगा।
एक रिपोर्ट के अनुसार आज देश में लगभग 40 प्रतिशत किसान अपनी खेती बेचने के लिये तैयार बैठे है। केन्द्रीय वित्त मंत्री ने संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या 20 प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। अर्थात यह 20 प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूँजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगे। यह सम्भावना उन किसानों के लिये नहीं है जो खेती में लुटने के कारण परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है। इसका अर्थ यह है कि आज के शत-प्रतिशत किसानों की खेती पूँजीपतियों के पास हस्तान्तरित होगी और वे किसान कारपोरेट होंगे।
किसानों की संख्या 20 प्रतिशत करने के लिये ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि किसान स्वेच्छा से या मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाए जिसके द्वारा किसानों को झाँसा देकर फँसाया जा सके। किसान को मेहनत का मूल्य न देकर सरकार खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाए रखना चाहती है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके।
जो किसान खेती नहीं छोड़ेंगे उनके लिये अनुबन्ध खेती के द्वारा कारपोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। देश में बाँधों, उद्योगों और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। अब बची हुई जमीन धीरे-धीरे उन कारपोरेट्स के पास चली जाएगी जो दुनिया में खेती पर कब्जा करने के अभियान पर निकले हैं। लूट की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाकर उसे स्थायी और अधिकृत बनाना कारपोरेट की नीति रही है।
भारत में जब अंग्रेजी राज स्थापित हुआ था तब जमींदारी कानून के द्वारा लूट की व्यवस्था बनाई गई थी। लगान लगाकर किसानों को लूटा गया था। अनुबन्ध खेती, कारपोरेट खेती जमींदारी का नया प्रारूप है। अब केवल लगान नहीं, खेती के हर स्तर पर लूट की व्यवस्था बनाकर खेती ही लूटी जा रही है। देश खाद्यान्न सुरक्षा, आत्मनिर्भरता को हमेशा के लिये खो रहा है। यह परावलम्बन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी बड़ा खतरा है। भारत फिर से गुलामी की जंजीरों में बँधता जा रहा है।
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