जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद
वरुणा की कछार
Posted on 23 Jul, 2013 03:10 PM

अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के विराग की प्यार।
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन-कुंज
जगत-नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप, सुमनों के पुंज।
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्जवल व्यापार।
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूँजता था जिस से संसार।
अरी वरुणा की शांत कछार।
तपस्वी के विराग की प्यार।

river
वर्षा में नदी कूल
Posted on 23 Jul, 2013 03:06 PM
सघन सुंदर मेघ मनहर गगन सोहत हेरि।
धरा पुलकित अति अनंदित रूप धरि चहुँ फेरि।।
लता पल्लवित राजै कुसुमित सों गुंजित।
सुखमय शोभा लखि मन लोभा कानन नव रंजित।।
विज्जुलि मालिनि नव कादंबिनि सुंदर रूप सुधारि।
अमल अपारा नव जल धारा सुधा देत मनु ढारि।।
सुखद शीतल करत हीतल विमल अनिल सुधीर।
तरंगिनि – कूल अनुकूल आह चलत मेटत पीर।।
तरंग चलत चपल लेत हिलोर अपार।
हृदय का सौंदर्य
Posted on 23 Jul, 2013 03:03 PM
नदी की विस्तृत वेला शांत
अरुण मंडल का स्वर्ण-विलास;
निशा का नीरव चंद्र-विनोद,
कुसुम का हँसते हुए विकास।

एक से एक मनोहर दृश्य,
प्रकृति की क्रिड़ा के सब छंद;
सृष्टि में सब कुछ है अभिराम,
सभी में है उन्नति या ह्रास।

बना लो अपना हृदय प्रशांत,
तनिक तब देखो वह सौंदर्य;
चंद्रिका से उज्जवल आलोक,
मल्लिका-सा शोभन मृदुहास।
दीप
Posted on 23 Jul, 2013 02:59 PM
धूसर संध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अंधकार अवसाद कालिमा लिए रहा बरसाने को।
गिरि संकट में जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल-कल नाद नहीं था उसमें मन की बात न कहता था।
इसे जाह्नवी-सा आदर दे किसने भेंट चढ़ाया है,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया है।
जला करेगा वक्षस्थल पर बहा करेगा लहरी में,
नाचेंगी अनुरक्त विथियाँ रंजित प्रभा सुनहरी में।
निशीथ नदी
Posted on 22 Jul, 2013 12:17 PM
विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो करके
नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा
प्रेमी के दृगतारा से ये निर्निमेष हैं
देख रहे से रूप अलौकिक सुंदर किसका
दिशा, धरा, तरु-राजि सभी ये चिंतित से हैं।
शांत पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है
दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा सी
तारा-ज्योति मिली है तम में, कुछ प्रकाश है
कूल युगल में देखो कैसी यह सरिता है
×