अशोक वाजपेयी
अशोक वाजपेयी
दुनिया कुछ ठीक-सी
Posted on 17 Feb, 2015 04:30 PMअब एक दिन क्याथोड़-सा समय भी नहीं होता
जब दुनिया कुछ ठीक-सी लगे
सुबह उठो तो हरियाली में चहकती चिड़ियां
और हलकी ठंडी हवा में कांपती पत्तियां
सुन्दर तो लगती हैं
पर यह यकीन नहीं दिला पातीं
कि सब ठीक चल रहा है
कहने को यह उनका काम भी नहीं है
सुबह-सुबह रेडियो पर आती है भजनावली
या कि गुजरी तोड़ी या अहीर भैरव की सुरलहरियां
सद्यः स्नाता
Posted on 08 Oct, 2014 04:16 PMपानीछूता है उसे
उसकी त्वचा के उजास को
उसके अंगों की प्रभा को-
पानी
ढलकता है उसकी
उपत्यकाओं शिखरों में से-
पानी
उसे घेरता है
चूमता है
पानी सकुचाता है
लजाता गरमाता है
पानी बावरा हो जाता है
पानी के मन में
उसके तन के
अनेक संस्मरण हैं
सिर्फ बहता चलता है जल
Posted on 05 Oct, 2013 03:09 PMनदी बिलकुल शांत कभी नहीं हो पाती चाहकर भीकोई न कोई आवाज या सन्नाटा गूँजता हुआ-सा
उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से नीरव टकराते उसके जल में।
नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर
प्रतिपल जाती हुई अपने विलय की ओर
फिर थी उच्छल
धूप अँधेरे लू-लपट
सुख की झूलती हुई डालों
दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से
हर सर्वनाम को लीलता हुआ
शाम देर गए
Posted on 05 Oct, 2013 03:07 PMशाम देर गए घर लौटना हैकाम से
उसे, जंगल में पछिया गई चिड़िया को
और सुनसान के गले में पड़ी हँसुली-सी
ईब को।
कौन लौटता है : वह या ईब
या सिर्फ उसका घर
सरककर पास आ जाता है।
‘एक पतंग अनंत में’ में संकलित, 1983
वहीं से
Posted on 05 Oct, 2013 03:05 PMवहीं से लौटना होगा घरवहीं से फूटेगी ईब
वहीं से होगा एक शुभारंभ।
वहीं से
कारीगर गारे से भरेगा दरारें
वहीं से जलघास टटोलेगी अतल
वहीं से वह करेगी स्वीकार।
‘एक पतंग अनंत में’ में संकलित, 1983
ईब के किनारे
Posted on 05 Oct, 2013 03:04 PMईब के किनारेवह थी।
उसका अप्रतिहत लावण्य था।
ईब का पानी न उसे जानता था
और न उस लालची आकाश को जो
उस पर झुका था।
ईब के किनारे लोग थे
अनजान लेकिन व्यस्त।
रेत पर चट्टानों के नीचे
रेंगते कीड़ी-मकोड़ों का मनोरम संसार था
मैंने पहली बार नाम सुना ईब का
मैंने नहीं देखा ईब को
फिर भी पाया
ईब के किनारे वह ईब थी