अज्ञेय

अज्ञेय
गंगा कूल 2
Posted on 26 Aug, 2013 12:24 PM
गंगा- कूल सिराने ओ लघु दीप-
मूक दूत से जाओ सिंधु समीप!

ढुलक-ढुलक! नयनों से आंसू धार!
कहां भाग्य ले उनके पांव पखार।

लाहौर : 1935

प्रियतम देखो 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:21 PM
प्रियतम! देखो ! नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-श्रृंगों को ठुकराकर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आई है!

समुद्र से मिल जाने के पहले इसने अपनी चिर-संचित स्मृतियां, अपने अलंकार आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहां वह एक परित्यकत केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
भीम-प्रवाहिनी नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:36 AM
भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जलाकर उसमें छोड़ता जा रहा हूं।

प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूं- ‘यही मेरा अंतिम दीप है।’
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