अज्ञेय
अज्ञेय
पानी बरसा
Posted on 04 Oct, 2014 12:25 PMओ पिया, पानी बरसाघास रही हुलसानी
मानिक के झूमर-सी झूमी मधु-मालती
झर पड़े जीते पीत अमलतास
चातकी की वेदना बिरानी
बादलों का हाशिया है आसपास-
बीच लिखी पांत काली बिजली की-
कूंजों की डार, कि असाढ़ की निशानी
ओ पिया, पानी
मेरा जिया हरसा
खड़खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात
देखने को आंखें घेरने को बांहें
‘अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर’
Posted on 26 Aug, 2013 04:53 PM‘उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!’अनमना भी सुन सका मैं
गूँजते से तप्त अंतःस्वर तुम्हारे तरल कूजन में।
‘अरे, उस धूमिल विजन में?’
स्वर मेरा था चिकना ही, ‘अब घना हो चला झुरमुट।
नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली!
उस पार की रेती उदास है।’
‘केवल बातें! हम आ जाते अभी लौटकर छिन में-’
मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में।
अंतः सलिला
Posted on 26 Aug, 2013 03:50 PMरेत का विस्तारनदी जिसमें खो गई
कृश-धार :
झरा मेरे आँसुओं का भार
-मेरा दु:ख धन,
मेरे समीप अगाध पारावार-
उसने सोख सहसा लिया
जैसे लूट ले बटमार।
और फिर आक्षितिज
लहरीला मगर बेट्ट
सूखी रेत का विस्तार-
नदी जिसमें खो गई
कृश-धार
किंतु जब-जब जहां भी जिसने कुरेदा
नमी पाई : और खोदा-
हुआ रस-संचार :
नदी के द्वीप
Posted on 26 Aug, 2013 03:20 PMहम नदी के द्वीप हैं।हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल,
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप।
हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
बंधु हैं नदियाँ
Posted on 26 Aug, 2013 03:16 PMइसी जमुना के किनारे एक दिनमैंने सुनी थी दुःख की गाथा तुम्हारी
और सहसा कहा ता बेबस : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकाकर की।
इसी जमुना के किनारे आज
मैंने फिर कहा है वह : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी,
गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।
न जाने फिर
हम नदी के साथ-साथ
Posted on 26 Aug, 2013 12:43 PMहम नदी के साथ-साथसागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:
नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहां-तहां चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे
नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर घुल गई
हमारी ही गांठ न खुली
दीठ न धुली
हम फिर, लौटकर फिर गली-गली
नदी तट: एक चित्र
Posted on 26 Aug, 2013 12:41 PMनदी की बांकगोरी चमक बालू की
विदा की आर्द्र लालिम
मेघ की रेखा
नीरव बलाका।
(नारा (जापान), 6 सितंबर, 1957, ‘सदानीरा-2’ में संकलित
नदी का पुल – 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:39 PMऐसा क्यों हो कि मेरे नीचे सदा खाई होजिसमें मैं जहां भी पैर टेकना चाहूं
भंवरे उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊं
पर जिनके आवागमन के लिए राह बनाऊं
उनके द्वार निरंतर
दोनों ओर से रौंदा जाऊं?
जबकि दोनों को अलगाने वाली नदी निरंतर बहती जाए, अनवरुद्ध?
बर्कले (कैलिफोर्निया), 29, अक्तूवर, 1969
द्वीप, नौका, नदी, सागर
Posted on 26 Aug, 2013 12:37 PMद्वीप, नौका, नदी, सागर और हमारीरुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह
समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी
और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने
सच्चे रूप की पहचान कराती है –
हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।
कलकत्ता, वसंत पंचमी, 1987
नदी की बांक पर छाया
Posted on 26 Aug, 2013 12:25 PMनदी की बांक परछाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वेध्य होता हूं
दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बांधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आंकती है
आंक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अंधेरे विवर में
चुप झांक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही