यह विनाश कुछ कहता है

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उत्तराखंड में बाढ़ से बढ़ती बर्बादी की हकीकत यह है कि जगह-जगह सुरंगों व झीलों में बांधने की हो रही नापाक कोशिशों के कारण नदियां गुस्सा गईं हैं। पानी आने और जाने के रास्ते को समझे बगैर जहां जगह मिली, वहीं खड़े कर दिए गए पक्के निर्माणों ने बाढ़ का प्रकोप बढ़ा दिया है। समझना जरूरी है कि जलनिकासी के प्राकृतिक मार्गों के अवरुद्ध होने से पानी रास्ता बदलने को विवश होता है। नए रास्ते में नए नुकसान करता है। चट्टाने खिसकने और बड़े पैमाने पर मिट्टी-कचरे के बहकर नदी में चले जाने की घटनाएं होती हैं; गाद बढ़ती है; नदियों का जलस्तर बढता है; कटाव बढ़ता है।

हम बचपन से यही सुनते आए हैं कि बाढ़ अपने साथ सोना लाती है; लेकिन नजारा इस बार फिर भिन्न है। किन्नौर घाटी में आसमान से आपदा बरसी। उत्तराखंड में तबाही का मंजर कुछ ऐसा है कि रास्ता सुझाए नहीं सूझ रहा। रूद्रप्रयाग से ऊपर बद्रीनाथ तक पहाड़ गिरने और रास्तों के ढह जाने से फंसे हजारों यात्रियों की जान सांसत में है। कितने गांव डुबे हैं? कुछ खबर नहीं है। उत्तरकाशी में ताश की तरह ढह गई इमारतों के संकेत और खतरनाक हैं। मौत के आंकड़ें हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश का बिजनौर इसकी हद में आ चुका है। हरियाणा, दिल्ली, मथुरा, सहारनपुर, बागपत, हस्तिनापुर, से लेकर बदायूं, बाराबंकी, पीलीभीत तक बाढ़ पहुंच ही चुकी है। शाहजहांपुर, हरदोई और फर्रुखाबाद भी अछूते नहीं रहने वाले। कहने वाले कह रहे हैं कि बारिश अभी ही 65 प्रतिशत अधिक है; आगे कई और रिकार्ड याद कीजिए कि पिछले बरस भी कमोबेश नजारा यही था। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले साल यह सारा परिदृश्य मध्य जुलाई का था; इस बरस मध्य जून का। जुलाई में बारिश होती ही है। इस सुनिश्चितता के चलते जुलाई में चारधाम यात्रियों की संख्या सिमट जाती है। जून में अधिक संख्या के चलते दिक्कत इस बार निश्चित ही ज्यादा है और राहत इंतजाम भी ज्यादा ही करने पड़ रहे हैं।

केदार घाटी में फटे बादलों से हुई तबाही जरूर इस बार ज्यादा खौफनाक है। अत्यंत चिंतित करने वाली! केदारनाथ मंदिर स्थित बाजार व धर्मशालाओं के अलावा नीचे गौरीकुण्ड में हुई तबाही चर्चा में है, लेकिन एक ही स्थान पर 14 किलोमीटर तक पूरी सड़क के बह जाने का संकेत यह है कि बर्बाद पूरी केदारघाटी ही हुई है। फर्क यह भी है कि पिछले साल पहले व्यापक सूखे ने चिंता की लकीरें खींची थी और फिर बाढ़ ने; इस बार सूखा सिर्फ गुजरात और महाराष्ट्र के हिस्से में ही आया। बाकी सब समान है। बिहार में तटबंध तोड़कर कोसी कब कोई नई राह चुन लेगी; इस संभावना से इस बार भी इंकार नहीं किया जा सकता। गुजरात के कच्छ और राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर या चुरु में कब एक बादल धड़ाम से बोल दे और पानी ही पानी हो जाए.. यह कहना इस बार भी है मुश्किल।

पिछले बरस कहीं ऐसी तबाही का कारण बारिश के साथ आए आंधी वाले हैकू तूफान को बताया गया, तो किसी ने इसे ‘अलनीनो प्रभाव’ कहा। कहा गया कि प्रशांत महासागर के तापमान में वृद्धि के कारण कम दबाव का क्षेत्र वहीं बन जाने के कारण वर्षा के क्षेत्र बदले। किसी ने कहा कि पृथ्वी के झुकाव में आए कोणीय बदलाव के कारण ऐसा हो रहा है। किसी ने ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन को इसके लिए दोषी ठहराया; कहा कि ये सारी बाढ़ इसलिए है चूंकि चार महीने तक धीरे-धीरे बरसने वाला पानी अब चंद दिनों में एक साथ बरस जाता है। इस बार भी कुछ ऐसे ही कारण बताये जायेंगे। लेकिन क्या लगातार सूखा, फिर अनिश्चित बाढ़ और इसके बढ़ते प्रकोप के कारण सिर्फ इतने ही हैं? अगर हम चार महीने बाद नवबंर में गैर परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों का दौरा करने निकल सकें, तो समझ में आ जायेगा कि असल कारण और भी हैं। कितने ही इलाके ऐसे हैं, जहां सप्ताह पहले सूखा था; आज बाढ़ है और चार महीने बाद फिर सूखा होगा। नदियों में पानी नहीं होगा। कुएं फिर अंधे ही दिखाई देंगे। वहां फिर पानी के लिए गुहार होगी। खेती फिर समर्सिबल पर आ टिकेगी।

हम कह रहे हैं कि वर्षा का वार्षिक औसत घट रहा है; फिर बाढ़ क्यों बढ़ रही है? क्यों है सूखा, बाढ़ और फिर नामुराद सूखा? इस ‘क्यों’ का उत्तर तलाशना बेहद जरूरी है। तभी समझ में आयेगा कि अंधाधुंध विकास को कुछ लोग विनाश क्यों पेड़ों की बेलगाम कटाई! मिट्टी और उसकी नमी को बचाकर रखने वाली छोटी वनस्पति का समूल नाश! तालाबों, झीलों और नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों पर बसावट. ... कब्जे! खनन! जब जल संग्रहण संरचनाओं तक पानी आने के रास्तों में बाधा उत्पन्न होती है, तो वे सूखे रह जाते हैं। एक साथ बड़ी मात्रा में हुई बारिश के बावजूद पानी जमीन के नीचे संचय नहीं हो पाता। वह कहीं और चला जाता है। हम कहते हैं कि सूखा है। ये सभी कारण बाढ़ में भी सहयोगी हैं। उत्तराखंड में बाढ़ से बढ़ती बर्बादी की हकीकत यह है कि जगह-जगह सुरंगों व झीलों में बांधने की हो रही नापाक कोशिशों के कारण नदियां गुस्सा गईं हैं।

पानी आने और जाने के रास्ते को समझे बगैर जहां जगह मिली, वहीं खड़े कर दिए गए पक्के निर्माणों ने बाढ़ का प्रकोप बढ़ा दिया है। समझना जरूरी है कि जलनिकासी के प्राकृतिक मार्गों के अवरुद्ध होने से पानी रास्ता बदलने को विवश होता है। नए रास्ते में नए नुकसान करता है। चट्टाने खिसकने और बड़े पैमाने पर मिट्टी-कचरे के बहकर नदी में चले जाने की घटनाएं होती हैं; गाद बढ़ती है; नदियों का जलस्तर बढता है; कटाव बढ़ता है; बर्बादी मैने देखा कि दिल्ली बाढ़ नियंत्रण विभाग की वेबसाइट यमुना में पीछे से पानी छोड़े जाने की मात्रा कल तक शून्य ही दिखा रही थी। उसने 26 सितंबर, 2012 के बाद से अपनी वेबसाइट पर कोई नया आंकड़ा डाला ही नहीं। सतत् निगरानी में हुई ऐसी कोताही के कारण बांध क्षेत्रों में बांध के फाटक एकाएक खोलने की गलती होती है। नतीजा भयानक तबाही में तब्दील होता है। 2011 में टिहरी के छोड़े पानी से हरदोई तक डुबे इलाके से हमें सबक लेना चाहिए।

तवा बांध से हुई मौतों से हमें सीखना चाहिए कि गलती कहां है। समझने की जरूरत यह भी है कि जो बाढ़ कभी तीन दिन टिकती थी, अब वही पखवाड़े लंबे प्रवास पर क्यों आती है? सोचना चाहिए कि जो वृक्ष व छोटी वनस्पतियां बादलों को अपनी ओर आकृषित वर्षा करा सकती हैं; वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को नियंत्रित करने में मददगार सिद्ध हो सकती हैं... वे ही अपनी जड़ों में पानी व मिट्टी को रोककर बाढ़ से भी बचा सकती हैं। छोटी वनस्पतियां नदियों में बढ़ती गाद कम कर सकती हैं। बरसे पानी को बहाकर जल संग्रहण संरचनाओं तक पहुंचाने के जो रास्ते बाधामुक्त रहकर हमारे भूजल के भंडार को भरा रखते हैं; हमें अकाल में भी बेपानी मौत से बचाते हैं; वे ही बाढ़ और फिर बाद में सूखे के कष्ट से भी बचा सकते हैं। वे ही नदियों तक पहुंचने वाले जल की मात्रा को नियंत्रित कर सकते हैं।

बढ़ते दुष्प्रभाव के कारणों में एक बड़ा कारण यह भी है कि मौसम व वर्षा ने अपने आने-जाने का समय और अन्य तौर-तरीके बदले हैं, लेकिन तद्नुरूप हम बाढ़ और सूखे के साथ जीना सीखने को तैयार नहीं हैं। हमने न तो बसावट ढांचे में आवश्यक बदलाव किया और न ही हम खेती का समय, प्रकार व अपने तौर-तरीके बदलने को तैयार हैं। बाढ़ के साथ जीने वाला बिहार-बंगाल का समाज हमें अच्छी तरह समझा सकता है कि यदि बाढ़ मानवकृत न होकर प्राकृतिक हो, तो बाढ़ सिर्फ विनाश नहीं है; यह समृद्धि भी है। प्राकृतिक बाढ़ थोड़ा-बहुत नुकसान करती है, तो वह हमारे खेतों में ढेर सारा सोना भी लाती है; तालाबों को मछलियों से भर देती है, भूजल स्तर बढ़ाती है; ऊपरी कचरे को अपने साथ बहा ले जाती है; साथ-साथ धरती के भीतर घुसा दिए गए जहर को भी। यह बात और है कि अब हमने बाढ़ की बजाय सामान्य दिनों की नदी को ही कचरा ढोने वाली मालगाड़ी समझ लिया है। निष्कर्ष यह कि बाढ़ और सूखा कुदरती कम, हमारे बिगाड़ और लालच के कारण ज्यादा है।

जैसे बोरवेल, ट्युबवेल और समर्सिबल सूखे का समाधान नहीं है, वैसे ही तटबंध, गंगा एक्सप्रेसवे, रिवर फ्रंट व्यू डेव्लपमेंट या नदी जोड़ जैसी परियोजनाएं बनाकर बाढ़ का समाधान नहीं हो सकता। किसी भी समस्या का निवारण उसके कारण में स्वतः मौजूद होता है। यह सभी जानते हैं। जरूरत है, तो सिर्फ करने की। क्या हम करेंगे?

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