बारिश की कमी से परेशान किसानों के समझ पलायन ही एक मात्र विकल्प था, परन्तु क्योंटरा में किसानों ने अरण्डी की खेती और उसके पत्तों पर रेशम कीट पालन का विकल्प तलाशा।
संदर्भ
विकास खंड अमरौधा जनपद कानपुर देहात के किसान गेहूं, काली-पीली सरसों, जौ आदि की खेती बहुतायत मात्रा में करते थे किंतु विगत कई वर्षों से क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा न होने के कारण लोगों के लिए खेती एक संकट बन गई। लोग खेती से मुंह मोड़कर दिल्ली, गुजरात, मुम्बई आदि शहरों में जाकर मजदूरी करने लगे। क्योंटरा गांव में इस समस्या से संघर्ष कर रहे लोगों को बुजुर्गों ने अरंडी की खेती करने की प्रेरणा दी और शुरू हुई अरंडी की खेती एवं अरंडी रेशम कीट पालन।
परिचय
अरंडी के तेल का औषधीय उपयोग है। अनेक बीमारियों आदि में अरंडी का तेल अचूक दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त अरंडी का तेल व खली का साबुन बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। अरंडी का तना कीटनाशक बनाने के काम में आता है तथा पत्ते एवं जड़ें दवाओं के निर्माण में प्रयोग की जाती हैं। अरंडी की फसल मिश्रित बोने पर नीचे वाली फसल मे नमी बनी रहती है और सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पौधे को काटकर जैविक खाद बनाई जाती है। इस प्रकार अरंडी एक बहुउपयोगी फसल है।
प्रक्रिया
भूमि का चयन
अरंडी की खेती के लिए ऊंची-नीची ज़मीन तथा जहां पानी का जमाव न होता हो, ऐसा खेत उपयुक्त होता है। इसे कम पानी वाले सूखे एवं गर्म जलवायु वाले स्थानों पर उगाया जा सकता है।
खेत की तैयारी
मई के अंतिम सप्ताह व जून के प्रथम सप्ताह में खेत की दो बार जुताई करते हैं,जिससे तेज सूर्य के प्रकाश में मृदा का शोधन हो तथा बरसात का पानी समुचित रूप से भूमि के अंदर तक जा सके और खेत की तैयारी करने में सरलता हो। जबकि बीज बोने से पहले भूमि को 2-3 बार हल या ट्रैक्टर द्वारा 20-25 सेमी. की गहराई तक जुताई करनी चाहिए तथा खेत से फसलों के अवशेष को भी निकाल देना चाहिए।
बीज की बुवाई एवं बीज मात्रा
अरंडी की बुवाई मुख्यतः दो प्रकार से की जाती है। एक तो इसे अन्य फ़सलों के साथ मिश्रित करके बोया जाता है, दूसरे इसे खेतों की मेड़ों पर लगाते हैं। सामान्यतः इसकी बुवाई मिश्रित फसल के रूप में ही करते हैं। एक एकड़ में 7 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।
बुवाई का समय व विधि
अरंडी की बुवाई सामान्यतया वर्षा होने पर उचित रहती है, लेकिन बोने का उचित समय जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर माह माना जाता है। इसका अंकुरण बुवाई के 7-10 दिनों के अंदर होता है।
बुवाई की विधि
सामान्यतः अरंडी की बुवाई गड्ढों में की जाती है। मगर किसान इसे छिटकवां अथवा कतार में भी बोते हैं। कतार से कतार की दूरी 5x5 फीट की होती है। कतार में बोने पर एक एकड़ में 1050 पौध लगते हैं। गड्ढों में बुवाई करन की दशा में प्रत्येक गड्ढों में 2-3 किग्रा. सूखी गोबर की खाद मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिलाकर प्रयोग करना चाहिए।
निराई-गुड़ाई
बुवाई के तीन सप्ताह बाद यानी 21 दिन बाद पहली निराई व विरलीकरण करके पौधे की दूरी ठीक कर ली जाती है। अरंडी के जीवन काल में तीन बार निराई की जाती है।
सिंचाई
वर्षा होने पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती, मगर बिल्कुल सूखे की स्थिति में कभी-कभार सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
तैयार होने का समय व तुड़ाई
सामान्यतः अरंडी की फसल 5-6 माह में पक कर तैयार हो जाती है। इसके पकने का समय मार्च होता है। पकने के बाद इसकी फली को तोड़ लेते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में बरूआ कहते हैं। पुनः इसे गोबर में दबा कर रख देते हैं। जब यह अच्छी तरह सड़ जाता है, तो फली अपने-आप निकल आती है। फली तोड़ने के बाद डण्ठल की कटाई कर लेते हैं।
उपज
एक बीघे में औसतन 4-5 कुन्तल अरंडी प्राप्त होती है। इसके एक किग्रां. बीज से 550 ग्राम तेल प्राप्त होता है।
अरंडी से अन्य लाभ
रेशम कीट पालन से अतिरिक्त आय अरंडी बोने के दो माह बाद पत्तों की उपलब्धता हो जाती है। तब उस पर रेशम कीट पालन किया जाता है। रेशम कीट पत्तों से ही अपना भोजन लेता है। अरंडी के पत्ते और कोई भी जानवर नहीं खाते। एकमात्र रेशम कीटों का भोजन होने से ये सुरक्षित रहते हैं। एक एकड़ खेत में अरंडी के पत्तों पर 14000 कीट पाले जाते हैं। एक कीट रेशम बनाने में 25 दिन का समय लेता है। इस प्रकार अपने पूरे जीवन काल में एक अरंडी पौधे से तीन बार रेशम कीट पालन किया जाता है। एक एकड़ खेत में पाले गये रेशम कीट से 21 किग्रा. रेशम ककून प्राप्त होता है।
बीट से खाद बनाना
रेशम के कीटों से निकली बीट का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है। इसका प्रयोग सब्जी की फसल में किया जाता है। एक एकड़ अरंडी पर किए गए रेशम कीट पालन से एक कुन्तल बीट की प्राप्ति होती है।
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