वाराणसी गंगा में शैवाल खतरनाक बदलावों के दे रहे संकेत

वाराणसी गंगा में शैवाल खतरनाक (फोटो साभार - एडॉब)
वाराणसी गंगा में शैवाल खतरनाक (फोटो साभार - एडॉब)

हिन्दुस्तान, वाराणसी। गंगा जल में मानसून से पहले शैवालों का आना गंगा की पारिस्थितिकी में खतरनाक बदलाव का संकेत दे रहे हैं। बीएचयू के इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरनमेंट ऐंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईईएसडी) के वैज्ञानिकों के शोध में कई तथ्य उजागर हुए हैं। ऐसे जल में स्नान से न सिर्फ कई रोग होते हैं बल्कि दुर्लभ परिस्थितियों में मौत भी हो सकती है।

बीएचयू के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रो. राजन गुप्ता, आईईएसडी के डॉ. कृपा राम और उनकी टीम ने वाराणसी की अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम से एकत्र नमूनों में गंगा नदी में पाए जाने वाले शैवाल की गुण-दोष बताए। सभी नमूनों में 'क्लेमाइडोमोनस' नामक शैवाल पाया गया। इसकी उपस्थिति मीठे पानी में होती है। यह हरा शैवाल क्लोरोफाइसी फैमिली का सदस्य है। वाहीं मिर्जापुर क्षेत्र से एकत्रित कुछ नमूनों में ऑसिलेटोरिया, एंकिस्ट्रोडेसमस और डेस्मिड्स शैवाल भी पाए गए हैं।

लंबे समय तक रहना घातकः 

'क्लैमाइडोमोनस' शैवाल कुछ हद तक जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और उसमें रहने वाले सूक्ष्मजीवों के लिए अच्छा है। लेकिन इसके लंबे समय तक बने रहने अथवा व्यापक और घने होने से पारिस्थितिकी तंत्र और जीवों को नुकसान पहुंचा सकता है। शैवाल की परत मोटी होने पर यह अधिक गहराई पर सूर्य के प्रकाश को अवरुद्ध करती है। ऐसे में वायुमंडलीय ऑक्सीजन का आदान-प्रदान सीमित हो जाता है और घुलित ऑक्सीजन (डीओ) में कमी आ जाती है। इसके अलावा, कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से भी डीओ में कमी आ सकती है। ऐसे में मछलियां और अन्य जलीव जीव मर सकते हैं।

त्वचा और यकृत रोक का कारणः 

शैवालीय फूल विभिन्न विषाक्त पदार्थों ब्रेवेटॉक्सिन, सेक्सिटॉक्सिन, माइक्रिसिस्टिन का उत्पादन करते हैं। इससे त्वचा प्रभावित होती है। यदि कोई ऐसा दूषित पानी लगातार पीता है, तो इससे त्वचा और यकृत रोग हो सकता है। तंत्रिका तंत्र प्रभावित हो सकता है। दुर्लभ परिस्थितियों में लगातार दूषित पानी पीने और उसमें नहाने से व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।

इन परिस्थितियों में बनते हैं नदियों में शैवाल

प्री-मानसून, गर्मी के मौसम या पहली बारिश के तुरंत बाद वाराणसी और मिर्जापुर क्षेत्र के पास गंगा में ऐसे शैवाल की वृद्धि देखी जा रही है। गगा तटीय ये वे क्षेत्र हैं जहां औद्योगिक, अनुपचारित शहरी अपशिष्ट का सीधा मिश्रण होता है। शैवालीय प्रस्फुटन यूट्रोफिकेशन के कारण होता है। गर्मियों में जब नदी के पानी की मात्रा कम होती है तो स्थिर पानी भी शैवाल के उत्पन्न होने की स्थिति बनाता है।

समस्या क्या है

वाराणसी के एक दो घाटों पर नहीं बल्कि 84 घाटों में से ज्यादातर पर गंगा का पानी हरा हो चुका है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह हरा शैवाल (Algal Bloom) है और यह बेहद जहरीला (Toxic) है। इस समय गंगा का पानी पीने या अन्य काम में उपयोग के लिए अनुचित हो सकता है। इसमें माइक्रोसिस्टिस (Microcystis) नामक साइनोबैक्टीरिया पाया जाता है, जो दिमाग और खून संबंधी समस्याओं का कारण बन सकता है। वैज्ञानिकों ने गंगा में इस अचानक बढ़े हुए प्रदूषण की जांच की मांग की है।

आजतक में छपी एक खबर के अनुसार प्रसिद्ध पर्यावरण-प्रदूषण वैज्ञानिक डॉ. कृपा राम ने बताया कि गंगा में हरे शैवाल तब ज्यादा दिखते है जब न्यूट्रिएंट्स बढ़ जाता है. यह बारिश की वजह से उपजाऊ भूमि से बहकर आया पानी गंगा में मिलता है. फिर अच्छी मात्रा में न्यूट्रिएंट्स मिलने से फोटोसिंथेसिस करने लगता है. न्यूट्रिएंट्स में मुख्य रूप से फॉस्फेट, सल्फर और नाइट्रेट के मिलते ही हरे शैवाल की मात्रा बढ़ जाती है. अगर पानी स्थिर होता है और साफ रहता है तो सूर्य की किरणें पानी के अंदर तक जाती हैं. उसकी वजह से फोटोसिंथेसिस बढ़ जाती है.

फोटोसिंथेसिस की प्रक्रिया मार्च से मई तक बढ़ती है। इस समय गंगा में पानी का बहाव कम होता है। ये न्यूट्रिएंट्स एग्रीकल्चर लैंड, सीवेज या बारिश से भी आ सकते हैं। नदियों में एलगल ब्लूम यानी शैवाल का पनपना आम बात है। नदी का इको सिस्टम खुद को बैलेंस करता है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन इसमें बहुत ज्यादा टॉक्सिक यानी जहरीले पदार्थ होते हैं। ऐसे पानी से नहाने पर चर्म रोग की समस्या हो सकती है और पानी पीने से लीवर की समस्या हो सकती है। इसलिए इस तरह के पानी का इस्तेमाल न करना बेहतर होता है। माइक्रोसिस्टिस (Microcystis) साफ पानी का साइनोबैक्टीरिया है। कई बार इनके पनपने से माइक्रोसिस्टिस एरुगिनोसा (Microcystic Aeruginosa) विकसित होते हैं। ये स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। इसमें दो तरह के जहरीले पदार्थ पैदा होते हैं: पहला है माइक्रोसिस्टिन और दूसरा है साइनोपेपटोलिन (Cyanopeptolin)। माइक्रोसिस्टिस नाम ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसमें “माइक्रोस” छोटा और “सिस्टिस” ब्लैडर का मतलब होता है। यानी छोटे-छोटे गुब्बारे जैसी आकृति के होते हैं।

माइक्रोसिस्टिस की 14 प्रजातियां धरती पर मौजूद हैं. रिसर्चगेट नाम की साइट पर 2017 एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें गंगा नदी में जहरीले साइनोबैक्टीरिया के पनपने की विस्तृत जानकारी दी गई थी. इसमें भी गंगा नदी में न्यूट्रीएंट के बढ़ने की वजह से जहरीले शैवाल पनपने की जानकारी दी थी. इस रिपोर्ट में बताया गया था कानपुर के जाजमऊ इलाके के उद्योगों की वजह से गंगा में प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है. इस रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी में मई महीने में शैवाल का पनपना सबसे ज्यादा रहता है और अगस्त के महीने में सबसे कम. यानी पानी का बहाव बढ़ता है तो ये साफ हो जाते हैं.

गंगा में तेज प्रवाह ही है समाधान

गंगा जल में बड़ी मात्रा में शैवाल मिलने के बाद इसका तात्कालिक उपाय सिर्फ जल का तेज प्रवाह है। तेज प्रवाह तभी होगा जब जल की मात्रा अधिक होगी। मौजूदा परिस्थितियां अगर बनी रहीं तो शैवाल की समस्या भी बनी रहेगी। यह मानना सिर्फ बीएचयू के इंस्टीट्यूट ऑफ एनवार्यनमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के वैज्ञानिकों का ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का भी मानना है।

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Post By: Kesar Singh
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