बुंदेलखंड कभी पानी को सहेजने के लिए जाना जाता था। बड़े-बड़े तालाब और नदियों की वजह से बुंदेलखंड के लोग हमेशा पानीदार रहते थे। विकास के अंधी दौड़ में बुंदेलखंड की तालाब तथा नदियों की जो हालत हुई है उससे पानी का संकट उत्पन्न हो गया है। बुंदेलखंड में पानी की समस्या से बचने के लिए वॉटरशेड विकास पर काम किया जा रहा है जिससे चित्रकूट में वॉटरशेड विकास से क्षेत्र की सूखी धरती की प्यास बुझने लगी है। वॉटरशेड के बारे में जानकारी दे रहे हैं भारत डोगरा।
पर हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वॉटरशेड विकास की तीन परियोजनाओं ने एक नई उम्मीद जगाई है। यह उपाय मूलत: वर्षा के जल के संग्रहण और संरक्षण पर आधारित है। इस संग्रहण के लिए भूमि का ऐसा प्रबंधन किया जाता है कि वर्षा का पानी तेजी से न बह जाए, बल्कि जगह-जगह रुकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके, वहां की धरती में ही समा जाए। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बचा रहे। तालाबों में पानी भर जाए, कुओं व हैंडपंपों का जल-स्तर ऊपर आ जाए और धरती में इतनी आर्द्रता बनी रहे कि हरियाली पनप सके।
इटवां पंचायत में इस काम के लिए राष्ट्रीय कृषि व भूमि विकास बैंक ने धन दिया और टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने। मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने। इन तीनों पंचायतों में जल संरक्षण परियोजना विकसित करने और उसे लागू करने का काम अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया।
इनमें से एक परियोजना पूरी हो गई है और शेष दो पर अभी काम चल रहा है। अभी तक इन पर लगभग 2 करोड़ रुपया खर्च हुआ है, जिनमें से 60 प्रतिशत राशि यानि 120 लाख रुपया सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया। साथ में बेहतर जल संरक्षण, खेती और हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीनों वॉटरशेडों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला ही।
मनगवां वॉटरशेड में 2007 में जहां खरीफ में मात्र 3 प्रतिशत कृषि भूमि जोती जाती थी, वहां 2011 में 30 प्रतिशत भूमि जोती गई। यहां जहां 2007 में रबी फसल 47 प्रतिशत भूमि पर बोई गई, वहां वर्ष 2011 में 90 प्रतिशत भूमि पर खेती हुई। जहां वर्ष 2007 में इस वाटरशेड में 6170 कि.ग्रा. धान का उत्पादन हुआ, वहां वर्ष 2011 में यहां 52081 कि.ग्रा. हुआ। इसके अलाव स्थानीय लोगों को अपनी ही खेती को सुधारने के लिए अच्छी मजदूरी मिली।
इनमें से सारा काम बेहद पारदर्शी ढंग से हुआ और सारे भुगतान बैंकों के माध्यम से चेक द्वारा किए गए। योजना बनाने और उसे लागू करने में गांववासियों की पूरी भागीदारी रही। उनकी सजला समितियां बनाई गईं, किसानों के क्लब बने व महिलाओं के स्वयं सहायता समूह। गांववासियों को समय पर जरूरी सलाह मिली, और उनकी भी सलाह ली गई। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विशेष सतर्कता बरती गई। मेहनत से न अधिकारी हटे, न सामाजिक कार्यकर्ता और न ही मजदूर।
इस तरह की छोटी परियोजनाओं का बड़ा सबक यह है कि जल संकट हल करने के लिए हमेशा ऐसी विशाल योजनाओं पर निर्भर होना जरूरी नहीं है, जिनसे बड़े पैमाने पर विस्थापन होते हैं या पर्यावरण के लिए कोई नया संकट खड़ा हो जाता है। ऐसी योजनाओं पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हो व जिनके लाभ बहुत देर से मिलें। हम कम बजट वाले टिकाऊ तरीकों से भी अपना मकसद हासिल कर सकते हैं।
ऐसी योजनाओं पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हो व जिनके लाभ बहुत देर से मिलें। हम कम बजट वाले टिकाऊ तरीकों से भी अपना मकसद हासिल कर सकते हैं।
बढ़ते पारे के प्रकोप से सारे देश के एक बड़े भाग में प्यास से त्राहि-त्राहि मचने लगी है। रूठते नलों और हांफते हैंडपंपों के आस-पास प्यासे लोगों और खाली बर्तनों की भीड़ बढ़ने लगी है। पानी के संकट से अधिक त्रस्त रहने वाला ऐसा ही एक क्षेत्र है बुंदेलखंड और उसमें भी चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल-संकट के कारण चर्चा में आता रहा है। इस क्षेत्र की जल समस्या को हल करने के लिए सरकार ने पहले तो कई चरणों में पानी को लिस्ट कर टंकियों व पाईपलाईन की योजना चलाई, फिर ओहन जैसे कई बांध भी बनाए। पर पाठा की प्यास नहीं बुझी।पर हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वॉटरशेड विकास की तीन परियोजनाओं ने एक नई उम्मीद जगाई है। यह उपाय मूलत: वर्षा के जल के संग्रहण और संरक्षण पर आधारित है। इस संग्रहण के लिए भूमि का ऐसा प्रबंधन किया जाता है कि वर्षा का पानी तेजी से न बह जाए, बल्कि जगह-जगह रुकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके, वहां की धरती में ही समा जाए। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बचा रहे। तालाबों में पानी भर जाए, कुओं व हैंडपंपों का जल-स्तर ऊपर आ जाए और धरती में इतनी आर्द्रता बनी रहे कि हरियाली पनप सके।
इटवां पंचायत में इस काम के लिए राष्ट्रीय कृषि व भूमि विकास बैंक ने धन दिया और टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने। मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने। इन तीनों पंचायतों में जल संरक्षण परियोजना विकसित करने और उसे लागू करने का काम अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया।
इनमें से एक परियोजना पूरी हो गई है और शेष दो पर अभी काम चल रहा है। अभी तक इन पर लगभग 2 करोड़ रुपया खर्च हुआ है, जिनमें से 60 प्रतिशत राशि यानि 120 लाख रुपया सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया। साथ में बेहतर जल संरक्षण, खेती और हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीनों वॉटरशेडों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला ही।
योजना बनाने और उसे लागू करने में गांववासियों की पूरी भागीदारी रही। उनकी सजला समितियां बनाई गईं, किसानों के क्लब बने व महिलाओं के स्वयं सहायता समूह। गांववासियों को समय पर जरूरी सलाह मिली, और उनकी भी सलाह ली गई।
इनकी वजह से यहां के चार हजार मवेशियों के साथ अन्य जीव-जंतुओं को भी पूरे साल प्यास बुझाने के लिए जल स्त्रोत मिल गए। दूसरे शब्दों में, तकनीकी कुशलता, सावधानी व ईमानदारी से खर्च किया जाए, तो जितने बजट में किसी महानगर के पॉश इलाके में एक लैट मिलता है, उतने धन में दस हजार गांववासियों व पांच हजार पशुओं की प्यास बुझाने के साथ खेती की पैदावार बढ़ाने जैसा महत्वपूर्ण काम एक साथ हो सकता है।मनगवां वॉटरशेड में 2007 में जहां खरीफ में मात्र 3 प्रतिशत कृषि भूमि जोती जाती थी, वहां 2011 में 30 प्रतिशत भूमि जोती गई। यहां जहां 2007 में रबी फसल 47 प्रतिशत भूमि पर बोई गई, वहां वर्ष 2011 में 90 प्रतिशत भूमि पर खेती हुई। जहां वर्ष 2007 में इस वाटरशेड में 6170 कि.ग्रा. धान का उत्पादन हुआ, वहां वर्ष 2011 में यहां 52081 कि.ग्रा. हुआ। इसके अलाव स्थानीय लोगों को अपनी ही खेती को सुधारने के लिए अच्छी मजदूरी मिली।
इनमें से सारा काम बेहद पारदर्शी ढंग से हुआ और सारे भुगतान बैंकों के माध्यम से चेक द्वारा किए गए। योजना बनाने और उसे लागू करने में गांववासियों की पूरी भागीदारी रही। उनकी सजला समितियां बनाई गईं, किसानों के क्लब बने व महिलाओं के स्वयं सहायता समूह। गांववासियों को समय पर जरूरी सलाह मिली, और उनकी भी सलाह ली गई। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विशेष सतर्कता बरती गई। मेहनत से न अधिकारी हटे, न सामाजिक कार्यकर्ता और न ही मजदूर।
इस तरह की छोटी परियोजनाओं का बड़ा सबक यह है कि जल संकट हल करने के लिए हमेशा ऐसी विशाल योजनाओं पर निर्भर होना जरूरी नहीं है, जिनसे बड़े पैमाने पर विस्थापन होते हैं या पर्यावरण के लिए कोई नया संकट खड़ा हो जाता है। ऐसी योजनाओं पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हो व जिनके लाभ बहुत देर से मिलें। हम कम बजट वाले टिकाऊ तरीकों से भी अपना मकसद हासिल कर सकते हैं।
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