ना कर इतना तकबूर तू जहां इक रोज फानी है, तेरे आला हो गुजरे ना कुछ बाकी निशानी है। मतलब यह कि अपने आप पर इंसान इतना गुरूर मत कर, यहां पर सब कुछ खत्म हो जाने वाला है। तेरे बड़े-छोटे चले गए हैं, जिनकी आज कोई निशानी भी नहीं बची है। शमशान घाट में लिखे इसी कथन को सत्य मानते हुए एक शख्स अपना जीवन ऐसी सेवा को समर्पित कर चुका है, जिसे करना हर किसी के बस की बात नहीं।
यहां से करीब 30 किलोमीटर दूर पूर्व क्रिकेटर एवं पटौदी रियासत के नवाब मंसूर अली खान के इस छोटे से शहर में रहने वाले इस शख्स का नाम है श्यामलाल। अपने एकमात्र बेटे की नौ साल की उम्र में असामयिक मौत ने एक शख्स को इस कदर बदल दिया कि वह पेड़-पौधों और पक्षियों में अपनी खुशी ढूंढने लगा।
इससे वह प्रकृति के इतना करीब आया कि इन्हें ही अपनी औलाद मानकर सेवा करने लगा है। शमशान घाट को वह ‘असली घर’ मानता है और वहीं पर शारीरिक श्रम करके पेड़-पौधों व पक्षियों की सेवा को जीवन समर्पित कर चुका है। रेवाड़ी में सरकारी नौकरी में रहकर भी वह पेड़-पौधों और पक्षियों की सेवा में इस तरह से लीन हो चुका है कि वह इन सबकों ही अपना संसार मान चुका है। वर्ष 2006 में बोरवेल में गिरकर उसके सात साल के बेटे की मौत हुई थी। उसके बाद से उसने कोई औलाद पैदा नहीं की और न ही अपनी पत्नी के संपर्क में गया।
शमशान घाट में सेवा करते हुए श्यामलाल कहते हैं कि इंसान का असली घर यही है। पिछले 11 साल से वह यहां अपनी सेवाएं दे रहे हैं। पटौदी के निर्माणाधीन बस अड्डे के पास शमशान घाट और सड़क के किनारे पड़ी करीब दस फुट गहरी करीब ढाई एकड़ जमीन पर से गंदगी का साम्राज्य उसे हटाया। इसके बाद वहां पर विभिन्न प्रकार के पौधे रोपे। आज उसके द्वारा लगाए गए अनेकों किस्म के पौधे छाया, फल तो दे ही रहे हैं, साथ में लोगों के लिए दवाई के रूप में भी काम आ रहे हैं।
श्यामलाल के मुताबिक उसने यहां पर अर्जुन, पीपल, गुलर, पीलखन, आंवला, जामुन, नीम, ईमली, सिरस, सोंधणा, कढ़ी पत्ता, ग्वारपाठा, अमरूद आदि के पड़ लगा रखे हैं। ये सभी पेड़ किसी न किसी रूप में इंसान के लिए दवाई बनाने के काम आते हैं। चाहे कड़ाके की सर्दी हो या फिर जेठ महीने की भरी दुपहरी में पड़ती गर्मी, श्यामलाल का समय इसी शमशान घाट और यहां बनी बगिया में ही गुजरता है।
ड्यूटी पर जाने से पहले और आने के बाद वह यहां जरूर आता है। छुट्टी के दिन पूरा समय वह यहां पौधों में पानी देने और साफ-सफाई में ही लगाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि बिजली के खंभे पर काम करते हुए वह एक दुर्घटना का शिकार हुआ और उसके दोनों पैरों में चोट लग गई, इसके बावजूद भी वह धीरे-धीरे चलकर अपनी सेवा को कम नहीं होने देता। श्यामलाल का कहना है कि हौसला होना चाहिए, कदम तो अपने आप चल पड़ते हैं।
यहां से करीब 30 किलोमीटर दूर पूर्व क्रिकेटर एवं पटौदी रियासत के नवाब मंसूर अली खान के इस छोटे से शहर में रहने वाले इस शख्स का नाम है श्यामलाल। अपने एकमात्र बेटे की नौ साल की उम्र में असामयिक मौत ने एक शख्स को इस कदर बदल दिया कि वह पेड़-पौधों और पक्षियों में अपनी खुशी ढूंढने लगा।
इससे वह प्रकृति के इतना करीब आया कि इन्हें ही अपनी औलाद मानकर सेवा करने लगा है। शमशान घाट को वह ‘असली घर’ मानता है और वहीं पर शारीरिक श्रम करके पेड़-पौधों व पक्षियों की सेवा को जीवन समर्पित कर चुका है। रेवाड़ी में सरकारी नौकरी में रहकर भी वह पेड़-पौधों और पक्षियों की सेवा में इस तरह से लीन हो चुका है कि वह इन सबकों ही अपना संसार मान चुका है। वर्ष 2006 में बोरवेल में गिरकर उसके सात साल के बेटे की मौत हुई थी। उसके बाद से उसने कोई औलाद पैदा नहीं की और न ही अपनी पत्नी के संपर्क में गया।
शमशान घाट में सेवा करते हुए श्यामलाल कहते हैं कि इंसान का असली घर यही है। पिछले 11 साल से वह यहां अपनी सेवाएं दे रहे हैं। पटौदी के निर्माणाधीन बस अड्डे के पास शमशान घाट और सड़क के किनारे पड़ी करीब दस फुट गहरी करीब ढाई एकड़ जमीन पर से गंदगी का साम्राज्य उसे हटाया। इसके बाद वहां पर विभिन्न प्रकार के पौधे रोपे। आज उसके द्वारा लगाए गए अनेकों किस्म के पौधे छाया, फल तो दे ही रहे हैं, साथ में लोगों के लिए दवाई के रूप में भी काम आ रहे हैं।
श्यामलाल के मुताबिक उसने यहां पर अर्जुन, पीपल, गुलर, पीलखन, आंवला, जामुन, नीम, ईमली, सिरस, सोंधणा, कढ़ी पत्ता, ग्वारपाठा, अमरूद आदि के पड़ लगा रखे हैं। ये सभी पेड़ किसी न किसी रूप में इंसान के लिए दवाई बनाने के काम आते हैं। चाहे कड़ाके की सर्दी हो या फिर जेठ महीने की भरी दुपहरी में पड़ती गर्मी, श्यामलाल का समय इसी शमशान घाट और यहां बनी बगिया में ही गुजरता है।
ड्यूटी पर जाने से पहले और आने के बाद वह यहां जरूर आता है। छुट्टी के दिन पूरा समय वह यहां पौधों में पानी देने और साफ-सफाई में ही लगाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि बिजली के खंभे पर काम करते हुए वह एक दुर्घटना का शिकार हुआ और उसके दोनों पैरों में चोट लग गई, इसके बावजूद भी वह धीरे-धीरे चलकर अपनी सेवा को कम नहीं होने देता। श्यामलाल का कहना है कि हौसला होना चाहिए, कदम तो अपने आप चल पड़ते हैं।
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