वनाधिकार कानून और महिलाएं

पर्यावरण मंत्रालय वन भूमि को अपने नियंत्रण में रखने के लिए वृक्षारोपण और उद्योगों के नाम पर विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर रहा है। वृक्षारोपण के तहत वन विभाग द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है। वनाधिकार कानून के तहत वनाधिकार समितियों का गठन करके समुदाय की सलाह के अनुसार वृक्षारोपण होना चाहिए, लेकिन संयुक्त प्रबंधन समितियों का गठन करके संसद द्वारा बनाए गए कानून को विफल करने की कोशिश की जा रही है।

देश को आजादी मिलने के साठ साल बाद 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित किया गया, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत निवासी (वनाधिकारों को मान्यता) कानून। यह कानून बेहद है। यह केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का कानून है। इसमें वनभूमि एवं वनों पर महिलाओं के समान अधिकार को मान्यता देने की बात कही गई है। हालांकि कानून के अंदर अभी भी काफी कमियाँ हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस कानून ने समुदाय के वनों के अंदर सामुदायिक अधिकार, जैसे लघु वनोपज एवं अन्य अधिकारों को मान्यता दी है। आधुनिकता के इस दौर में हम चाहे जितना महिला-पुरुष में गैर बराबरी खत्म हो जाने की बात करते रहें, लेकिन आम समाज की तरह इस रोग के जीवाणु देश में जल, जंगल और जमीन पर लोगों के अधिकारों के संदर्भ में बने कानूनों में भी मौजूद हैं। वनाधिकार कानून आने से पहले जो कानून प्रचलित थे, जब उनमें संबंधित समुदायों को ही उपेक्षित रखा गया तो ऐसे में महिलाओं को अधिकार देने की बात ही बेमानी है। संविधान के अनुच्छेद 14 में महिला और पुरुष के बराबरी के अधिकार को एक बुनियादी अधिकार के रूप में स्थापित किया गया है तथा लिंग के आधार पर किसी भी भेदभाव को गैर संवैधानिक माना गया है लेकिन जब महिलाओं को जल, जंगल और जमीन का अधिकार देने की बात आती है तो देखने में आता है कि ऐसे तमाम कानूनों में महिलाओं की उपेक्षा ही की गई है।

हाल में पारित हुए वनाधिकार कानून को छोड़कर किसी भी कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। महिलाओं के भूमि संबंधी अधिकारों को हमेशा उनकी संपत्ति के सवाल के साथ जोड़कर देखा जाता है। उन्हें सिर्फ पारिवारिक विरासत को लेकर बने कानूनों के आधार पर सीमित अधिकार दिए जाने की बात की जाती है, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे मामलों में भी ज्यादातर उन्हें स्वतंत्र रूप से अधिकार नहीं दिया जाता। कुल मिलाकर जिनसे महिलाओं का सामाजिक-राजनीतिक सशक्तिकरण हो सकता था और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती थी, उन अधिकारों को मान्यता देने में हमारी संसद और सरकारें नाकाम रही हैं।वनाधिकार कानून में पहली बार वनों पर महिलाओं के मालिकाना हक की बात कही गई है और व्यक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकारों पर भी महिलाओं के मालिकाना हक को दर्ज करने के कानूनी प्रावधान किए गए हैं, लेकिन वन एवं वन भूमि पर गरीब आदिवासियों का नियंत्रण स्थापित हो जाने के डर के चलते वन विभाग, प्रशासन, राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार ने इन समुदायों को मालिकाना हक देने के लिए अभी तक कोई इच्छा नहीं दिखाई है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के शिवालिक जंगलों में घाड़ क्षेत्र की रहने वाली खेतिहर मजदूर महिला सोना खिन्न होकर कहती है कि सरकार तो हमें चाहती ही नहीं। यह बयान पिछड़े इलाके में रहने वाली शिक्षा से वंचित एक आम औरत का है, लेकिन यह बयान एक बहुत बड़ी राजनीतिक सच्चाई की मुखर अभिव्यक्ति है।

सरकार इन्हें इसलिए नहीं चाहती, क्योंकि वनाधिकार कानून की मंशा के अनुसार जब जंगल महिलाओं और वंचित समुदायों के मालिकाना हक में आ जाएंगे तो वह बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को बड़े पैमाने पर न तो कौड़ियों के दाम वन भूमि उपलब्ध करा पाएगी, न प्राकृतिक संसाधनों का कोई सौदा होगा और न वन विभाग, पुलिस, प्रशासनिक अधिकारियों एवं माफियाओं-दलालों आदि को जंगल से किसी तरह की अवैध कमाई हो सकेगी। खासतौर पर वन विभाग के अधिकारी-कर्मचारी बड़े पैमाने पर होने वाली इस अवैध कमाई से सूदखोरी का काम नहीं कर पाएंगे। आजादी से लेकर अब तक वन विभाग ने महिलाओं एवं समुदाय विशेष का वनों से अलगाव पैदा करने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। इसलिए ऐसा कोई भी कानून, जो वनों एवं प्राकृतिक संसाधनों पर महिलाओं और समुदाय विशेष के नियंत्रण की बात करता हो, उसे वन विभाग किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देना चाहता। मालूम हो कि वनाधिकार कानून वनों में रहने वाले आदिवासी समुदायों द्वारा पिछले 250 वर्ष से तिलका माझी, सिदहू कान्हू एवं बिरसा मुंडा आदि के नेतृत्व में लगातार किए जा रहे संघर्षों का ही नतीजा है।

अंतत: संसद को वनाश्रित समुदाय के लिए यह कानून पारित करना पड़ा। यह संघर्ष अब वन क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं की अगुवाई में और भी तीखा हो गया है। वनों के इतिहास में और आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि महिलाओं के व्यक्तिगत भूमि के अधिकार सहित सामुदायिक और प्रबंधन के अधिकार को भी मान्यता दी गई है। इस मुद्दे पर देश के कई महिला संगठनों ने इस संदर्भ में बनी संयुक्त संसदीय समिति को भी प्रस्ताव दिए थे। हालांकि पूरी तरह से अभी भी इन अधिकारों को महिलाओं को केंद्र में रखकर दर्ज नहीं किया गया है, जो नितांत जरूरी था। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अगर देखें तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में प्रकृति के कहीं ज्यादा नजदीक होती हैं और उनमें सामुदायिकता का भाव भी अधिक होता है। यही कारण है कि वनाधिकार कानून में महिलाओं के जिन अधिकारों को मान्यता दी गई है, उनका अपना एक महत्व है। अब वनों से संबंधित किसी भी मामले पर केवल पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं होगा, बल्कि ये अधिकार किसी पुरुष को तभी मिलेंगे, जब उसके साथ परिवार की महिला का अधिकार भी दर्ज होगा। अगर कहीं पर एकल महिला है या परिवार की मुखिया महिला है तो भी यह अधिकार उसी के नाम से दर्ज होगा। खीरी (उत्तर प्रदेश) में पति के मना करने के बावजूद एक परिवार की महिला मुखिया ने दावा भरा, जिसे ग्राम वनाधिकार समिति ने स्वीकार किया।

इसी तरह त्रिपुरा में भी कई परिवारों की महिला मुखिया को भूमि पर मालिकाना हक की पासबुक मिली है, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब महिलाएं जागरूक होंगी। इससे पहले इस तरह का अधिकार आज तक हमारे देश की महिलाओं को वन भूमि पर कभी नहीं मिला और न जंगल पर। अधिकारों की बात तो दूर, महिलाओं द्वारा कृषि कार्यों में 90 प्रतिशत से अधिक योगदान करने के बावजूद आज तक उन्हें किसान होने की मान्यता तक नहीं दी गई। देश में आज तक जितने भी भूमि संबंधी कानून बने हैं, उनके अनुसार घर के पुरुष मुखिया का देहांत हो जाने पर बेटे अथवा परिवार के अन्य पुरुषों को वंशज होने के नाते संपत्ति का अधिकार मिल जाता है। वनाधिकार कानून से पहले बने अन्य भूमि संबंधी कानूनों के आधार पर महिलाएं भूमि पर बराबर और सीधा मालिकाना हक प्राप्त नहीं कर सकती थीं, इसलिए वनों से जुड़ी महिलाओं के लिए वनाधिकार कानून बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें भले ही अधिकार आंशिक रूप से मिले हों, लेकिन जितने भी हैं, उनके सहारे वे अपने बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था और किसी हद तक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक सुरक्षा भी हासिल कर सकती हैं।

वनाधिकार कानून के अध्याय 3 में 13 अधिकारों का उल्लेख है, जिनमें तीन अधिकार व्यक्तिगत हैं और शेष सामुदायिक मामलों से जुड़े हैं। इनमें एक महत्वपूर्ण अधिकार लघु वनोपज से संबंधित है, जो वनाश्रित समुदाय के लिए आजीविका का प्रमुख स्रोत है, लेकिन कानून पारित होने के चार वर्ष बीत जाने के बावजूद अभी तक लघु वनोपज पर पात्रों को मालिकाना हक नहीं मिल सका है। यह लघु वनोपज अभी पूर्ण रूप से वन विभाग के नियंत्रण में है, जो इनसे सालाना करोड़ों रुपये की कमाई करता है। आंकड़े बताते हैं कि तेंदु पत्ता, लासा, बांस, शहद, मोम, महुआ एवं विभिन्न तरह की घासों-पत्तों से पैदा होने वाला धन वन विभाग द्वारा लूटा जा रहा है। अगर यहीं धन वनाश्रित समुदायों के पास उपलब्ध हो तो न केवल उनकी आय में वृद्धि होगी, बल्कि वे लघु वनोपज की सुरक्षा करेंगे, इस तरह के पेड़ों को लगाएंगे और वनों की सुरक्षा भी करेंगे। यही एक ऐसी जगह है, जहां महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है। पर्यावरण मंत्रालय वन भूमि को अपने नियंत्रण में रखने के लिए वृक्षारोपण और उद्योगों के नाम पर विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर रहा है। वृक्षारोपण के तहत वन विभाग द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है। वनाधिकार कानून के तहत वनाधिकार समितियों का गठन करके समुदाय की सलाह के अनुसार वृक्षारोपण होना चाहिए, लेकिन संयुक्त प्रबंधन समितियों का गठन करके संसद द्वारा बनाए गए कानून को विफल करने की कोशिश की जा रही है। ये संयुक्त प्रबंधन समितियां दबंगों-सामंतों द्वारा बनाई जा रही हैं। इसी वजह से वनाश्रित समुदाय के साथ इनका टकराव बढ़ता जा रहा है और कई जगह हिंसक घटनाएं भी हो रही हैं।

उत्तर प्रदेश के जनपद सोनभद्र में राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच ने आदिवासी एवं दलित महिलाओं की अगुवाई में व्यवसायिक वृक्षारोपण का बहिष्कार करके उन पेड़ों को लगाने की मुहिम शुरू की है, जो समाज के काम आते हैं। ये फलदार, चारा पत्ती एवं पर्यावरण को स्वच्छ करने वाले पेड़ हैं। झारखंड में तोड़न ट्रस्ट द्वारा लघु वनोपज को लेकर महिलाओं की सहकारी समितियां बनाई जा रही हैं, ताकि उनके जीवकोपार्जन का जरिया तैयार हो और उनका बाजार के साथ सीधा जुड़ाव हो सके। यह तभी हो पाएगा, जब वनाधिकार कानून प्रभावी ढंग से लागू किया जाएगा। महिला वनाधिकार एक्शन कमेटी का भी गठन किया गया है, जो वन विभाग के खिलाफ मोर्चा खोलकर वनों पर महिलाओं के अधिकार की आवाज बुलंद कर रही है। महिलाएं वन स्वशासन की मांग को लेकर आगामी 14-15 सितंबर को रांची में अपनी आवाज बुलंद करने वाली हैं। महिलाएं बिचौलियों को हटाने की मांग कर रही हैं, ताकि वे वनोपज का लाभ सीधे-सीधे उठा सकें। अगर वनाधिकार कानून की मंशा के अनुरूप महिलाएं अपना अधिकार पाने में सफल हो जाती हैं तो वनों में रहने वाली महिलाओं को उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्य आसानी से हाथ पकड़ कर घर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे।

झारखंड महिला आयोग की सदस्य एवं पत्रकार वासवी कीरो द्वारा किए गए अध्ययन में यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि जहां-जहां घने वन हैं, वहां महिलाओं का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। यह अनुपात कई वन क्षेत्रों में 1000 पुरुषों के मुकाबले 1100 तक है। जबकि दिल्ली जैसे शहर में 1000 पुरुषों के मुकाबले केवल 733 महिलाएं हैं। मैदानी इलाकों में महिलाएं भरण-पोषण के लिए परिवार पर निर्भर रहती हैं और निजी संपत्ति के चलते गर्भवस्था में ही लड़कियों की हत्या कर दी जाती है। महिलाओं के भूमि एवं वन संबंधी अधिकारों को पहली बार स्वीकार करने वाले वनाधिकार कानून ने वनाश्रित समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के मद्देनजर उनके कई अधिकारों को मान्यता दी है। इन अधिकारों में महिलाओं की बराबर हिस्सेदारी सुनिश्चित की गई है। महिलाओं को अपने हक के लिए जागरूक होना होगा, वनाधिकार कानून को समझना होगा और आम नागरिक समाज को भी उनके समर्थन में आगे आना होगा।

(लेखिका राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच एवं महिला वनाधिकार एक्शन कमेटी की सदस्य हैं)

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