विरोध से ही निकलेगा रास्ता

कूड़े का पहाड़
कूड़े का पहाड़


पिछले महीने कूड़े का पहाड़ ढहने से दिल्ली में दो लोगों की मौत हो गई। कूड़े के ढेर को लैंडफिल (भराव क्षेत्र) नामक बेहतर शब्द दे दिया गया है। दिल्ली का यह भराव क्षेत्र 50 मीटर ऊँचा है। यह शहर के तीन भराव क्षेत्रों में एक है जो अपनी क्षमता काफी पहले ही पूरी कर चुका है। सब जानते थे कि यह कभी भी हादसे का सबब बन सकता है। आखिर ऐसा हो ही गया।

इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि शहर अपने कूड़े के पहाड़ों का क्या करे? हादसे के एक दिन बाद ही निगम अधिकारियों ने ऐसे नए स्थान की तलाश शुरू कर दी जहाँ कूड़ा डाला जा सके। एक नया स्थान चिन्हित भी कर लिया गया। लेकिन रानीखेड़ा के ग्रामीणों ने अपने गाँवों में कूड़ा डालने का विरोध किया। “हमारी लाश पर”, “हमारे घर के पास नहीं” जैसे नारों के साथ ग्रामीणों ने निगम के इस कदम के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की।

आखिर इस विरोध में क्या बुराई है? क्या कोई अपने घर के पास कूड़े का ढेर चाहेगा? यह हमारा कचरा है और इसे हमारे पास ही होना चाहिए।

यह तथ्य है कि “नॉट इन माई बैकयार्ड” (निंबी) अर्थात मेरे घर के पास नहीं जैसा विरोध कचरा प्रबन्धन में मील का पत्थर साबित हो सकता है। कचरा प्रबन्धन का वैश्विक इतिहास इसका गवाह है। 1980 की शुरुआत में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने कचरे से भरे पानी के जहाजों को अफ्रीका पहुँचाया था। तब यह एक वैश्विक कलंक बन गया। इस वजह से ही विश्व बासेल सम्मेलन पर सहमत हुआ था।

यह सम्मेलन खतरनाक कचरे को दूसरी जगह भेजने के खिलाफ और उसके निपटान पर केन्द्रित था। यह न्यूयॉर्क के उन अमीर लोगों का कचरा था जो इसे अपने पास नहीं रखना चाहते थे या उसका निस्तारण नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अपने कचरे को अफ्रीका के गरीब लोगों के पास भेज दिया था। लेकिन जब गरीब इसके विरोध में खड़े हुए तो अमीरों को अपना कचरा वापस लेना पड़ा और उन्हें इसके निपटान के तरीकों पर गौर करना पड़ा। मजबूरी में ऐसा इसलिये करना पड़ा ताकि उन्हें कूड़े की बदबू से दो चार न होना पड़े। इस तरह पश्चिम ने कूड़े का प्रबन्धन शुरू किया। उनके पास अपने कचरे के पुनः उपयोग, पुनर्चक्रण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

यही वजह है कि भारत को भी अपने निंबी का जश्न मनाना चाहिए। लम्बे समय तक हमने अपने शहर के बैकयार्ड जहाँ गरीब रहते हैं, का इस्तेमाल किया है। जैसे-जैसे शिक्षा, राजनीतिक समझ और सामाजिक जागरुकता बढ़ रही है, गरीब पड़ोसी और ग्रामीण भी कहने लगे हैं कि अब बहुत हुआ “आपका कचरा हमारे घर के पास नहीं डाला जाएगा।” यह अलग बात है कि उनका विरोध नजरअन्दाज किया जा रहा है। सरकारों और न्यायपालिका ने भी ऐसे विरोध के खिलाफ आदेश सुनाया है। ऐसा इसलिये क्योंकि कचरे का निस्तारण निगमों का महत्त्वपूर्ण काम है। यही वजह है कि भराव क्षेत्रों के निर्माण, कम्पोस्ट इकाई या कचरे से ऊर्जा उत्पन्न करने के प्लांट से जुड़े प्रदर्शनों को अनावश्यक मान लिया जाता है।

विरोध प्रदर्शनों के अलग नतीजे निकलते हैं। नतीजे इस बात पर निर्भर करते हैं कि प्रदर्शन करने वाले कौन हैं- गरीब या अमीर। यही वजह है कि गरीब का ‘मेरे घर के पास नहीं’ अमीर से अलग है। मध्यम वर्ग का प्रदर्शन समस्या को दूसरे के घर की ओर में धकेल देता है और यह मान लिया जाता है कि वहाँ कोई नहीं रहता। लेकिन इसी जगह गरीब रहते हैं। वे प्रदर्शन की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

जब गरीब पड़ोसी शान्त रहना बन्द कर देते हैं तो कचरे को उनके पास फेंकना आसान नहीं होता। फिर इसका प्रबन्धन अलग तरीके से करना पड़ता है। गरीब के ‘मेरे घर के पास नहीं’ में वह क्षमता है कचरा पर क्रान्ति ला सकती है। तब वह कचरा नहीं बल्कि संसाधन बन जाएगा। भारत के कई अग्रणी शहरों में ऐसा हो भी रहा है। इन शहरों ने ठोस कचरा प्रबन्धन के उपायों की खोज कर ली है क्योंकि उनके पास इसके अलावा अन्य विकल्प नहीं था।

विलप्पीसाला गाँव ने तिरुअनन्तपुरम के कचरे को गाँव में डालने से रोकने का प्रयास किया था। हालांकि गाँव सुप्रीम कोर्ट में केस हार गया लेकिन ग्रामीणों ने हार नहीं मानी और संघर्ष करते रहे। इसी का नतीजा है कि शहर को अपने कचरे से निपटने के लिये वैकल्पिक उपाय करने पड़े। नगरपालिका ने साफ कह दिया है कि उसके पास कूड़ा डालने की जगह नहीं है, इसलिये वह कूड़ा नहीं उठाएगी। शहर के लोगों को या तो बदबूदार कूड़े के साथ रहना होगा या इसे अलग-अलग, प्रसंस्कृति और पुनर्चक्रण करना सीखना होगा। भराव क्षेत्र रोकने का ऐसा ही विरोध केरल के शहर अलप्पुझा में भी देखने को मिला।

कचरे के विरुद्ध विद्रोह बढ़ रहे हैं। पुणे में उरूली देवाची पंचायत के गाँव ने लगातार कहा कि उसने शहर का कचरा काफी बर्दाश्त कर लिया है। बंगलुरु में ग्रामीण कन्नाहाली और बिंगीपुरा कूड़ा भराव क्षेत्र का विरोध कर रहे हैं। वेल्लोर में भी सदुपेरी साइट के आस-पास 18 गाँवों के ग्रामीण कूड़े के विरोध में खड़े हैं। विरोध का दायरा बढ़ता जा रहा है। यह अपने तरीके से आगे बढ़ेगा।

अभी दिल्ली जैसे शहरों के प्रबन्धक कूड़े के लिये जमीन तलाश रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे विरोध को शान्त कर देंगे या किसी तरह न्यायालय से अपने पक्ष में आदेश पारित करवा लेंगे। जब तक ऐसा नहीं होता तो वे कूड़ा डालते रहेंगे और उम्मीद करेंगे कि कूड़े का पहाड़ न धसके। यह टिकाऊ तरीका नहीं है।

अब यह मानने का वक्त है कि ये विरोध न केवल जायज हैं बल्कि आवश्यक भी हैं। इस विरोध से ही माँग उठेगी कि दिल्ली किसी अन्य भराव क्षेत्र की ओर न देखे। शहर को अपने कूड़े को अपने पास ही रखना होगा, गरीब के यहाँ नहीं। इसके लिये कचरा प्रबन्धन के तमाम उपाय करने होंगे। भले ही वह कम्पोस्टिंग हो या कचरे से ऊर्जा उत्पादन अथवा पुनर्चक्रण। आखिर यह हमारा कूड़ा है। इसे हमारे पास ही होना चाहिए।
 

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