रमेश शक्तिवाल एक प्रतिभावान इंजीनियर और जल विशेषज्ञ हैं। आईआईटी दिल्ली से हो रही उनकी पीएचडी का विषय है वाटरलेस यूरिनल की डिजाइन। उनका मानना है कि जलसंकट के इस दौर में नई डिज़ाइन वाले निर्जल मूत्रालय आज के समय की महती आवश्यकता हैं। वाटरलेस यूरिनल को कुछ इस प्रकार बनाया गया है कि इनमें मूत्र के निस्तारण के लिये परम्परागत मूत्रालयों की तरह पानी की आवश्यकता नहीं होती।हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की ख्याति का एक कारण उनका स्वमूत्र का सेवन भी था। इतना ही नहीं वे लोगों को भी मूत्र को औषधि के रूप में व्यवहार करने की सलाह देते थे। मोरारजी की सलाह आप मानें न मानें पर गौमूत्र की उपयोगिता पर लगातार खोजों ने क्या आपको यह नहीं बताया कि गौमूत्र संजीवनी रसायन है। वैसे तो संसार गाय के मूत्र की विलक्षणताओं के बारे में जान ही गया है। कई गौशालाओं के लोग इसे बोतलबंद करके बेचने लगे हैं, इनका उपयोग लोग अपनी बीमारियों को ठीक करने में करते हैं। किसान अपने खेतों में फसलों की उपज बढ़ाने तथा फसलों के रोगों के इलाज के तौर पर कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले की सौंसर तहसील के एक किसान श्यामसुंदर चांडक अपने मौसंबी, एक हजार नींबू और संतरों के हजारों पौधे गौमूत्र छिड़ककर फाइटोफ्लोरा नामक बीमारी से बचा रहे हैं।
गौमूत्र तो गौमूत्र है ही वैसे मानव मूत्र की भी उपयोगिता वेद-पुराणों ने गायी है। ‘शिवाम्बु चामृतं दिव्यं जरारोगविनाशनम्। ‘ शिवाम्बु दिव्य अमृत है, बुढ़ापे एवं रोग का नाशक है। अनेकानेक उपलब्ध ग्रंथों में प्राप्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि भारत में मानव-मूत्र की चिकित्सा पद्धति प्रचलित थी। आयुर्वेद के एक महानतम् ग्रंथ भावप्रकाश में स्वमूत्र की चर्चा करते हुए इसे रसायन, निर्दोष और विषघ्न बताया गया है। डामरतन्त्र में प्राप्त उद्धरणों के अनुसार भगवान शंकर ने माता पार्वती को इसकी महिमा समझाई और बताया कि इसके प्राशन से मनुष्य निरोग, तेजस्वी, बलिष्ठ, कांतिवान, निरापद तथा दीर्घायु को प्राप्त होता है। मनुष्य के लिए निरापद मूत्र, पौधों को भी कांतिवान, निरापद तथा दीर्घायु बनाएगा ही।
मानव मल तो खाद के रूप में बरसों से श्रेष्ठ साबित हो चुका है। अब मानव मूत्र को उर्वरक के बतौर इस्तेमाल करने का प्रयोग बंगलुरू स्थित गाँधी कृषि विज्ञान केन्द्र की छात्रा श्रीदेवी ने कर दिखाया है। वर्तमान में फास्फोरस और पोटेशियम की आसमान को छूने वाली लागतें कृषि को अस्थिर बना रही हैं। इसी संबंध में उनकी हाल ही में पीएचडी हुई है। यह ईकोलॉजिकल सेनिटेशन पर भारत की पहली पीएचडी है। श्रीदेवी ने यह शोध प्रबंधन जीकेवीके, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर से मृदा विज्ञान विभाग के प्रो. श्रीनिवासमूर्ति के दिशानिर्देशन में किया, इस शोध प्रबंध के लिए सहायता अर्घ्यम् द्वारा उपलब्ध कराई गई। इस शोध के तहत मक्का, केला और मूली में मानव मूत्र का प्रयोग किया गया और अन्य पौधों पर उतनी ही मात्रा में रासायनिक फर्टीलाइजर का प्रयोग किया गया फिर दोनों में तुलना करके यह पाया गया कि रासायनिक खाद की बजाय मानवमूत्र से ज्यादा अच्छी फसल हुई। किसान के लिए इसकी लागत रासायनिक फर्टीलाइजर की अपेक्षा कम पाई गई। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि यह तरीका महंगे उवर्रकों का बेहतर विकल्प है।
ऐसे ही एक प्रयोग के तहत फिनलैंड के कोपियो विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय जीवविज्ञानी शोधार्थी सुरेंद्र प्रधान और उनके साथियों ने टमाटर के पौधों पर लवण-उर्वरक, मूत्र और लकड़ी के अवशेष या सिर्फ मूत्र डाला। उर्वरक के रूप में मूत्र का पोषण पाने वाले टमाटर के पौधे में लगे टमाटरों में लवण-उर्वरक का पोषण पाने वाले पौधे में लगे टमाटरों की तुलना में अधिक नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम पाया गया। मूत्र के पोषण से विकसित टमाटर में अधिक प्रोटीन भी मिला और यह मनुष्य के उपभोग के लिए पूरी तरह से सुरक्षित है।
दुनिया के फ़ॉस्फ़ेट और पेट्रोलियम भण्डारों के खत्म होते जाने की दशा में तथा दिनोंदिन कृषि उर्वरकों की कीमतें बढ़ने के कारण मानव मूत्र का पुनः प्रयोग करना समय की आवश्यकता है तथा “वाटर हार्वेस्टिंग” की तरह “मूत्र हार्वेस्टिंग” का भी एक आंदोलन चलाना होगा। आपको याद होगा कि 2009 के मई माह में अंतरिक्ष स्टेशन पर मनुष्य ने पुनःचक्रित पेशाब की हालांकि एक छोटी सी घूंट भरी थी पर यह पुन:चक्रित मूत्र के उपयोग की दिशा में बड़ा कदम था। इस अवसर पर अमेरिकी अंतरिक्षयात्री माइकल बरात ने कहा था स्वाद अद्भुत है।प्रधान ने कहा, “यह एक साधारण तकनीक है। टायलेट में टायलेट शीट ऐसी लगाते हैं कि मल-मूत्र अलग-अलग इकठ्ठा हो जाए।” लेकिन स्वीडन स्थित स्टॉकहोम इनवायर्नमेंट इंस्टीट्यूट के पारिस्थतिकी-कृषि एवं आरोग्य तकनीक विशेषज्ञ हाकन जॉनसन ने कहा कि, “एक परिवार या व्यक्ति से एकत्र किए गए मूत्र की मात्रा बेहद कम है।” जॉनसन ने कहा कि, “यह तकनीक छोटे किसानों की मदद कर सकती है लेकिन बड़े और सीमांत किसानों के लिए यह पर्याप्त नहीं है।” क्या यहीं कहानी खत्म कर दें? या कोई ऐसा तरीका निकालें जिससे पर्याप्त मात्रा में मानव मूत्र इकट्ठा किया जा सके।
वाटरलेस यूरिनल और भंडारण
मानव मूत्र का पुनर्चक्रीकरण, हाल ही में मानव के मूत्र की पहचान कृषि कार्यों हेतु खाद के एक सम्भावित और मजबूत स्रोत के रूप में हो चुकी है। शोधों में पाया गया है कि मानव मूत्र कृषि के लिये बेहद लाभदायक हैं। मानव के मूत्र में पौधों और खेतों के लिये पर्याप्त मात्रा में कई प्रमुख तत्व जैसे नाईट्रोजन, फ़ॉस्फ़ेट और पोटेशियम पाया जाता है। विभिन्न नई तकनीकों के जरिये मानव मूत्र और मानव मल को आसानी से अलग-अलग भी किया जा सकता है। दुनिया के फ़ॉस्फ़ेट और पेट्रोलियम भण्डारों के खत्म होते जाने की दशा में तथा दिनोंदिन कृषि उर्वरकों की कीमतें बढ़ने के कारण मानव मूत्र का पुनः प्रयोग करना समय की आवश्यकता है तथा “वाटर हार्वेस्टिंग” की तरह “मूत्र हार्वेस्टिंग” का भी एक आंदोलन चलाना होगा। आपको याद होगा कि 2009 के मई माह में अंतरिक्ष स्टेशन पर मनुष्य ने पुनःचक्रित पेशाब की हालांकि एक छोटी सी घूंट भरी थी पर यह पुन:चक्रित मूत्र के उपयोग की दिशा में बड़ा कदम था। इस अवसर पर अमेरिकी अंतरिक्षयात्री माइकल बरात ने कहा था स्वाद अद्भुत है।
रमेश शक्तिवाल एक प्रतिभावान इंजीनियर और जल विशेषज्ञ हैं। आईआईटी दिल्ली से हो रही उनकी पीएचडी का विषय है वाटरलेस यूरिनल की डिजाइन। उनका मानना है कि जलसंकट के इस दौर में नई डिज़ाइन वाले निर्जल मूत्रालय आज के समय की महती आवश्यकता हैं। वाटरलेस यूरिनल को कुछ इस प्रकार बनाया गया है कि इनमें मूत्र के निस्तारण के लिये परम्परागत मूत्रालयों की तरह पानी की आवश्यकता नहीं होती। इन मूत्रालयों को घरों, संस्थानों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर लगाया जाना चाहिये। मकसद, इन मूत्रालयों से पानी की बचत के साथ-साथ, ऊर्जा की बचत तथा मानव मूत्र भंडारण आसान बनाना जिससे खेती के लिये एक विशाल खाद स्रोत भी मिले। वाटरलेस यूरिनल की स्थापना में धन खर्च और पानी का खर्च भी काफी कम आता है। वाटरलेस यूरिनल की यह अवधारणा पर्यावरण स्वच्छता बनाये रखने में परम्परागत फ़्लश वाले मूत्रालयों की अपेक्षा अधिक बेहतर है।
रमेश शक्तिवाल की डिजाइन में वाटरलेस यूरिनल में बदबू को रोकने के लिये, इनमें आने-जाने वाली ड्रेनेज लाइनों के अन्दर एक विशेष प्रकार का मेकेनिज़्म लगाया गया है। पूरे विश्व में इस प्रकार के मूत्रालयों में द्रव पदार्थ रोकने, दुर्गन्ध को दबाने तथा सूक्ष्म जैविक नियन्त्रण के लिये एक “मेम्ब्रेन” (झिल्ली) और वाल्व तकनीक का उपयोग किया जाता है। लेकिन बदबू रोकने के इन मेकेनिज़्म को समय-समय पर लगातार बदलना पड़ता है, जिस वजह से इन मूत्रालयों का रखरखाव खर्च बढ़ जाता है। इसे ध्यान में रखते हुए आईआईटी दिल्ली द्वारा बदबूरोधक नये मूत्रालयों का निर्माण किया गया है जो सस्ते भी हैं और इनमें किसी प्रकार के पुर्जे अथवा यन्त्र बदलने की जरूरत नहीं पड़ती।
एक खबर के अनुसार अक्टूबर 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों के लिए राजधानी में एक हजार वाटरलेस यूरिनल्स लगाए जा रहे हैं। हम सबका प्रयास होना चाहिए कि पानी रहित यह मूत्रालय सफ़ल हो सकें और धरती का पानी-पर्यावरण बचाया जा सके। रमेश शक्तिवाल के वाटरलेस यूरिनल के डिजाइन निश्चय ही “मूत्र हार्वेस्टिंग” की दिशा में एक नई इबारत लिखेंगे। (हिंदी इंडिया वाटर पोर्टल)
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