पृथ्वी, एक अनोखा, किन्तु छोटा सा ग्रह है। अभी इसके बारे में ही हमारा विज्ञान अधूरा है। ऐसे में एक अन्तरिक्ष के बारे में सम्पूर्ण जानकारी का दावा करना या फिर जाने और कितने अन्तरिक्ष हैं; यह कहना, इंसान के लिये दूर की कौड़ी है।
सम्पूर्ण प्रकृति को समझने का दावा तो हम कर ही नहीं सकते; फिर भी हम कैसे मूर्ख हैं कि प्रकृति को समझे बगैर, उसे अपने अनुकूल ढालने की कोशिश में लगे हैं। कोई आसमान से बारिश कराने की कोशिश करने में लगा है, तो कोई प्रकृति द्वारा प्रदत्त हवा, पानी को बदलने की कोशिश में! क्या ताज्जुब की बात है कि इंसान ने मान लिया है कि वह प्रकृति के साथ जैसे चाहे व्यवहार करने के लिये स्वतंत्र है।
प्रकृति ने कितनी सुन्दर पृथ्वी बनाई! पहाड़, समुद्र, मैदान बनाए। प्राणवायु के लिये वायुमंडल बनाया। वायुमंडल में मुख्य रूप से ऑक्सीजन और नाइट्रोजन का मुख्य घटक बनाया। सूरज की पराबैंगनी किरणों को रोकने के लिये 10 से 15 किलोमीटर की ऊँचाई पर ओज़ोन गैस की सुरक्षा परत बनाई।
हमने ओज़ोन की चादर को पहले कम्बल, फिर रजाई और अब हीटर बना दिया। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इसलिये बनाई, ताकि धरती से लौटने वाली गर्मी को बाँधकर तापमान का सन्तुलन बना रहे। इसकी सीमा बनाने के लिये उसने कार्बन डाइऑक्साइड के लिये सीमित स्थान बनाया।
हमने यह स्थान घेरने की अपनी रफ्तार को बढ़ाकर 50 अरब मीट्रिक टन प्रतिवर्ष तक तेज कर लिया। जानकारों के मुताबिक, वायुमंडल में मात्र एक हजार अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का स्थान बचा है; यानी अगले 20 वर्ष बाद वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के लिये कोई स्थान नहीं बचेगा।
नतीजे में कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया 2.7 डिग्री तक गर्म होने के रास्ते पर है। वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट की रपट भिन्न है। वह अगले सौ वर्षों में हमारे वायुमंडल का तापमान पाँच डिग्री सेल्सियस तक अधिक हो जाने का आकलन प्रस्तुत कर रहा है।
ये आँकड़े कितने विश्वसनीय हैं; कहना मुश्किल है। हाँ, यह सच है कि इस तापमान वृद्धि से मिट्टी का तापमान, नमी, हवा का तापमान, दिशा, तीव्रता, उमस, दिन-रात तथा मौसम से मौसम के बीच में तापमान सीधे प्रभाव में हैं। हेमंत-बसंत भारत से गायब हो रहे हैं। पिछले एक महीने में ही तापमान में रिकार्ड परिवर्तन के समाचार हैं।
चेन्नई डूब रहा है और पूर्वी उत्तर प्रदेश सूखे से बेहाल है। मौसम में गर्मी के कारण गेहूँ की बोआई पिछड़ रही है। मच्छरों का हमला जारी है। नवम्बर के तीसरे सप्ताह में भी दिल्लीवासी रात को धीमे ही सही, पंखा चलाने को मजबूर हैं। कीटाणुओं की प्रजनन दर और बीमारियाँ बढ़ेगी ही, सो बढ़ रही है।
अब पृथ्वी के देश, कार्बन उत्सर्जन में घटोत्तरी की बात कर रहे हैं। हाल के सम्मेलनों में अमेरिका ने अपने उचित हिस्से का पाँचवाँ हिस्सा कार्बन घटोत्तरी की बात की है। 1850 को आधार वर्ष मानें, तो चीन ने 2,371 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की है, किन्तु उसने 2030 तक 488 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम करने का प्रस्ताव रखा है।
भारत ने 54 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की है। उसने 2030 तक 280 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कटौती करने की घोषणा की है। अक्तूबर माह में चली तैयारी बैठकों में की गईं ऐसी सारी घोषणाएँ, वर्ष 2020 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री तक कम करने के लक्ष्य को सामने रखकर की गईं।
बोन में हुई तैयारी बैठकों में मिले सभी देशों के प्रस्तावों को 55 पेजी दस्तावेज़ के रूप में एक साथ किया गया है। पाँच दिवसीय बोन सत्र में तैयारी बैठक ही आगे पेरिस सम्मेलन का आधार होगी। अब चुनौती है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती पर वैश्विक सहमति कैसे सुनिश्चित हो? यह सुनिश्चित करने के लिये ही 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2015 तक पेरिस जलवायु सम्मेलन चलेगा।
उत्सर्जन कटौती उपायों के कारण अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक असर की एवज में विकसित देशों द्वारा वर्ष 2020 तक विकासशील और गरीब देशों को 100 अरब अमेरिकी डॉलर धनराशि देने का प्रस्ताव है। इसकी व्यवस्था कैसे होगी? इसके वितरण का आधार क्या होंगे? कार्बन बजट, एक मसला है।
जानमाल के नुकसान, दूसरा मसला है। उत्सर्जन कटौती में सहयोगी तकनीक का हस्तान्तरण जरूरी है। अतः तकनीकों को पेटेंट मुक्त और हस्तान्तरण को मुनाफ़ा मुक्त रखने की माँग, एक अन्य मसला है। विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में अभी भी आनाकानी कर रहे हैं। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे।
सीएसई की महानिदेशक, सुनीता नारायण का कहना है कि स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए कि कैसे करेंगे। यदि विकसित देशों ने न माना, तो वे अन्य देशों के अपने ग्रीनहाउस गैसें कटौती लक्ष्य को बढ़ाने को कह सकते हैं। इससे विवाद होगा। तैयारी बैठकों में भी विवाद हुआ।
गौर कीजिए कि 96 देशों के एक प्रतिनिधिमंडल चाहता था कि बोन में हो रहे पेरिस समझौते के प्रस्ताव को और सन्तुलित बनाया जाये, अध्यक्षीय पैनल के दो सदस्यों की राय से उस प्रतिनिधिमंडल को बन्द कमरे के हुए समझौते से अगले चार दिन के लिये अलग रखा गया। जापान समर्थित इस प्रतिनिधिमंडल में भारत, चीन, जी 77 के भी सदस्य थे। अमेरिकी और यूरोपीय सदस्य चुप रहे।
कुल मिलाकर चित्र यह है कि पृथ्वी पर जीवन बचाने जैसे गम्भीर मसले पर गरीब और विकासशील देश, आर्थिक सिद्धान्त को अमल में लाने की जिद्द ठाने बैठे हैं। तर्क है कि जिसने जितना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया, उत्सर्जन रोकने का उसका लक्ष्य उतना अधिक और त्वरित होना चाहिए।
दंड स्वरूप, उसे उतनी अधिक धनराशि कम उत्सर्जन करने वाले और गरीब देशों को उनके नुकसान की भरपाई में देनी चाहिए। गलती का पश्चाताप करने की ईमानदारी और हिम्मत विकसित देशों में भी नहीं है। इसी भिन्न रवैए के कारण, रियो डि जिनेरो में हुए प्रथम पृथ्वी सम्मेलन (03 से 14 जून, 1992) से लेकर अब तक हुईं सहमति की कवायदें, परवान नहीं चढ़ पाईं। 23 वर्षों से यही चल रहा है। पेरिस सम्मेलन भी इस रवैए से मुक्त नहीं है।
इस रवैए से मुक्ति के लिये हम क्या करें? पेरिस जलवायु सम्मेलन में समझौते के आधार, आर्थिक हों अथवा कुछ और? क्या जलवायु परिवर्तन का मसला इतना सहज है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने मात्र से काम चल जाएगा या पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिये करना कुछ और भी होगा? भारत का पक्ष और पथ क्या हो?
जलवायु परिवर्तन के कारण और दुष्प्रभावों के निवारण में हमारी व्यक्तिगत, सामुदायिक, शासकीय अथवा प्रशासकीय भूमिका क्या हो सकती है? सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जलवायु परिवर्तन, क्या सिर्फ पर्यावरण व भूगोल विज्ञान का विषय है या फिर कृषि वैज्ञानिकों, जीव विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, चिकित्साशास्त्रियों, नेताओं और रोज़गार की दौड़ में लगे नौजवानों को भी इससे चिन्तित होना चाहिए? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर की तलाश जरूरी है। क्या हम-आप तलाशेंगे?
सम्पूर्ण प्रकृति को समझने का दावा तो हम कर ही नहीं सकते; फिर भी हम कैसे मूर्ख हैं कि प्रकृति को समझे बगैर, उसे अपने अनुकूल ढालने की कोशिश में लगे हैं। कोई आसमान से बारिश कराने की कोशिश करने में लगा है, तो कोई प्रकृति द्वारा प्रदत्त हवा, पानी को बदलने की कोशिश में! क्या ताज्जुब की बात है कि इंसान ने मान लिया है कि वह प्रकृति के साथ जैसे चाहे व्यवहार करने के लिये स्वतंत्र है।
प्रकृति ने कितनी सुन्दर पृथ्वी बनाई! पहाड़, समुद्र, मैदान बनाए। प्राणवायु के लिये वायुमंडल बनाया। वायुमंडल में मुख्य रूप से ऑक्सीजन और नाइट्रोजन का मुख्य घटक बनाया। सूरज की पराबैंगनी किरणों को रोकने के लिये 10 से 15 किलोमीटर की ऊँचाई पर ओज़ोन गैस की सुरक्षा परत बनाई।
हमने ओज़ोन की चादर को पहले कम्बल, फिर रजाई और अब हीटर बना दिया। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इसलिये बनाई, ताकि धरती से लौटने वाली गर्मी को बाँधकर तापमान का सन्तुलन बना रहे। इसकी सीमा बनाने के लिये उसने कार्बन डाइऑक्साइड के लिये सीमित स्थान बनाया।
हमने यह स्थान घेरने की अपनी रफ्तार को बढ़ाकर 50 अरब मीट्रिक टन प्रतिवर्ष तक तेज कर लिया। जानकारों के मुताबिक, वायुमंडल में मात्र एक हजार अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का स्थान बचा है; यानी अगले 20 वर्ष बाद वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के लिये कोई स्थान नहीं बचेगा।
नतीजे में कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया 2.7 डिग्री तक गर्म होने के रास्ते पर है। वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट की रपट भिन्न है। वह अगले सौ वर्षों में हमारे वायुमंडल का तापमान पाँच डिग्री सेल्सियस तक अधिक हो जाने का आकलन प्रस्तुत कर रहा है।
ये आँकड़े कितने विश्वसनीय हैं; कहना मुश्किल है। हाँ, यह सच है कि इस तापमान वृद्धि से मिट्टी का तापमान, नमी, हवा का तापमान, दिशा, तीव्रता, उमस, दिन-रात तथा मौसम से मौसम के बीच में तापमान सीधे प्रभाव में हैं। हेमंत-बसंत भारत से गायब हो रहे हैं। पिछले एक महीने में ही तापमान में रिकार्ड परिवर्तन के समाचार हैं।
चेन्नई डूब रहा है और पूर्वी उत्तर प्रदेश सूखे से बेहाल है। मौसम में गर्मी के कारण गेहूँ की बोआई पिछड़ रही है। मच्छरों का हमला जारी है। नवम्बर के तीसरे सप्ताह में भी दिल्लीवासी रात को धीमे ही सही, पंखा चलाने को मजबूर हैं। कीटाणुओं की प्रजनन दर और बीमारियाँ बढ़ेगी ही, सो बढ़ रही है।
अब हम क्या करें?
अब पृथ्वी के देश, कार्बन उत्सर्जन में घटोत्तरी की बात कर रहे हैं। हाल के सम्मेलनों में अमेरिका ने अपने उचित हिस्से का पाँचवाँ हिस्सा कार्बन घटोत्तरी की बात की है। 1850 को आधार वर्ष मानें, तो चीन ने 2,371 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की है, किन्तु उसने 2030 तक 488 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम करने का प्रस्ताव रखा है।
भारत ने 54 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की है। उसने 2030 तक 280 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कटौती करने की घोषणा की है। अक्तूबर माह में चली तैयारी बैठकों में की गईं ऐसी सारी घोषणाएँ, वर्ष 2020 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री तक कम करने के लक्ष्य को सामने रखकर की गईं।
बोन में हुई तैयारी बैठकों में मिले सभी देशों के प्रस्तावों को 55 पेजी दस्तावेज़ के रूप में एक साथ किया गया है। पाँच दिवसीय बोन सत्र में तैयारी बैठक ही आगे पेरिस सम्मेलन का आधार होगी। अब चुनौती है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती पर वैश्विक सहमति कैसे सुनिश्चित हो? यह सुनिश्चित करने के लिये ही 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2015 तक पेरिस जलवायु सम्मेलन चलेगा।
पेरिस सम्मेलन: जनाकांक्षा और आशंका
जलवायु परिवर्तन के कारण और दुष्प्रभावों के निवारण में हमारी व्यक्तिगत, सामुदायिक, शासकीय अथवा प्रशासकीय भूमिका क्या हो सकती है? सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जलवायु परिवर्तन, क्या सिर्फ पर्यावरण व भूगोल विज्ञान का विषय है या फिर कृषि वैज्ञानिकों, जीव विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, चिकित्साशास्त्रियों, नेताओं और रोज़गार की दौड़ में लगे नौजवानों को भी इससे चिन्तित होना चाहिए? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर की तलाश जरूरी है। क्या हम-आप तलाशेंगे?
जनाकांक्षा है कि जब 11 दिसम्बर, 2015 को पेरिस जलवायु सम्मेलन सम्पन्न हो, तो देशों के हाथ मिले हुए हों, दिल खुले हुए हों और सहमति से आगे के कदमों के लिये कमर कसी हुई हों, किन्तु क्या यह होगा? पेरिस में हुए हमले से दुनिया चिन्तित तो है ही, जलवायु सम्मेलन को लेकर भी चिन्ता कम नहीं है। जानकार आशंकित हैं कि सम्मेलन में गरीब और विकासशील देशों की क्या वाकई सुनी जाएगी या बोन सत्र में मिला आश्वासन झूठा हो जाएगा?उत्सर्जन कटौती उपायों के कारण अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक असर की एवज में विकसित देशों द्वारा वर्ष 2020 तक विकासशील और गरीब देशों को 100 अरब अमेरिकी डॉलर धनराशि देने का प्रस्ताव है। इसकी व्यवस्था कैसे होगी? इसके वितरण का आधार क्या होंगे? कार्बन बजट, एक मसला है।
जानमाल के नुकसान, दूसरा मसला है। उत्सर्जन कटौती में सहयोगी तकनीक का हस्तान्तरण जरूरी है। अतः तकनीकों को पेटेंट मुक्त और हस्तान्तरण को मुनाफ़ा मुक्त रखने की माँग, एक अन्य मसला है। विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में अभी भी आनाकानी कर रहे हैं। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे।
सीएसई की महानिदेशक, सुनीता नारायण का कहना है कि स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए कि कैसे करेंगे। यदि विकसित देशों ने न माना, तो वे अन्य देशों के अपने ग्रीनहाउस गैसें कटौती लक्ष्य को बढ़ाने को कह सकते हैं। इससे विवाद होगा। तैयारी बैठकों में भी विवाद हुआ।
गौर कीजिए कि 96 देशों के एक प्रतिनिधिमंडल चाहता था कि बोन में हो रहे पेरिस समझौते के प्रस्ताव को और सन्तुलित बनाया जाये, अध्यक्षीय पैनल के दो सदस्यों की राय से उस प्रतिनिधिमंडल को बन्द कमरे के हुए समझौते से अगले चार दिन के लिये अलग रखा गया। जापान समर्थित इस प्रतिनिधिमंडल में भारत, चीन, जी 77 के भी सदस्य थे। अमेरिकी और यूरोपीय सदस्य चुप रहे।
कुल मिलाकर चित्र यह है कि पृथ्वी पर जीवन बचाने जैसे गम्भीर मसले पर गरीब और विकासशील देश, आर्थिक सिद्धान्त को अमल में लाने की जिद्द ठाने बैठे हैं। तर्क है कि जिसने जितना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया, उत्सर्जन रोकने का उसका लक्ष्य उतना अधिक और त्वरित होना चाहिए।
दंड स्वरूप, उसे उतनी अधिक धनराशि कम उत्सर्जन करने वाले और गरीब देशों को उनके नुकसान की भरपाई में देनी चाहिए। गलती का पश्चाताप करने की ईमानदारी और हिम्मत विकसित देशों में भी नहीं है। इसी भिन्न रवैए के कारण, रियो डि जिनेरो में हुए प्रथम पृथ्वी सम्मेलन (03 से 14 जून, 1992) से लेकर अब तक हुईं सहमति की कवायदें, परवान नहीं चढ़ पाईं। 23 वर्षों से यही चल रहा है। पेरिस सम्मेलन भी इस रवैए से मुक्त नहीं है।
प्रश्न कई
इस रवैए से मुक्ति के लिये हम क्या करें? पेरिस जलवायु सम्मेलन में समझौते के आधार, आर्थिक हों अथवा कुछ और? क्या जलवायु परिवर्तन का मसला इतना सहज है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने मात्र से काम चल जाएगा या पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिये करना कुछ और भी होगा? भारत का पक्ष और पथ क्या हो?
जलवायु परिवर्तन के कारण और दुष्प्रभावों के निवारण में हमारी व्यक्तिगत, सामुदायिक, शासकीय अथवा प्रशासकीय भूमिका क्या हो सकती है? सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जलवायु परिवर्तन, क्या सिर्फ पर्यावरण व भूगोल विज्ञान का विषय है या फिर कृषि वैज्ञानिकों, जीव विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, चिकित्साशास्त्रियों, नेताओं और रोज़गार की दौड़ में लगे नौजवानों को भी इससे चिन्तित होना चाहिए? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर की तलाश जरूरी है। क्या हम-आप तलाशेंगे?
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